Tuesday, December 26, 2006

बच्चन – पंत विवाद

हरिवंश राय बच्चन भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं
भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता, सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी नवीं पोस्ट: नियम
भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर
भाग -४ दशद्वार से सोपान तक

ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चन बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा तेरवीं पोस्ट: नारी मन चौदवीं पोस्ट: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र पंद्रवीं पोस्ट: अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा सोलवीं तथा अन्तिम यह पोस्ट: बच्चन – पंत विवाद

 मैंने, बच्चन जी की जीवनी, उनके तथा पंत जी के कथित विवाद के लिये पढ़नी शुरु की। इसका जिक्र चौथे भाग में है। १९७१ में बच्चन जी ‘पंत के दो सौ पत्र’ का प्रकाशन करना चाहते थे। इनके मुताबिक वे उसे उसी रूप में छपवाना चाहते थे जिस रूप में वे लिखे गये थे पर पंत जी उसे कुछ सेंसर करना चाहते थे। इसी से दोनो के बीच में कुछ मनमुटाव हो गया और वह इतना बढ़ गया कि पन्त जी ने इसका प्रकाशन रोकने के लिये, इलाहाबाद में एक मुकदमा ठोक दिया। बच्चन जी के मुताबिक, बाद में, पंत जी ने अपने वकील की सलाह पर प्रकाशक से इस तरह का समझौता कर लिया कि वे पंत जी पत्रों से वे अंश निकाल देंगे जिस पर पंत जी को आपत्ति है और इसी आधार पर पंत जी ने मुकदमा वापस ले लिया। बच्चन जी लिखते हैं कि,

'पंत जी ने –शायद अपने पक्ष की दुर्बलता देखकर –मुकदमा वापस लेने का ही फैसला किया।'
मैंने अपने सहपाठी तथा वकील मित्र इकबाल से पूछा क्या यह सही है। उसका कहना है कि किसी के लिखे पत्र उसके कॉपीराइट होतें है और उसकी अनुमति के बिना छापे नहीं जा सकते। पंत जी का मुकदमा कमजोर नहीं था। इकबाल का कहना है कि लगता है कि,
'पंत जी बहुत बड़े थे। छोटे (बच्चन जी) की जिद्द देख कर खुद ही झुक गये।'

मालुम नहीं क्या सच है। मैंने इस विवाद के बारे में संक्षेप में लिखा। इस भाग में, इस विवाद के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। जिसे न मैं उचित समझता हूं, न ही उसका इससे अधिक जिक्र करना - पढ़ने के बाद दुख हुआ। शायद बड़ा व्यक्ति होने के लिये केवल बड़ा साहित्यकार होना जरूरी नहीं, इसके लिये कुछ और होना चाहिये।

बच्चन जी की जीवनियों पर मेरी लिखी समीक्षा के कारण, क्या किसी  कॉपीराइट का उल्लघंन होगा –  इस बारे में आप मेरी चिट्ठी, ‘मुजरिम उन्मुक्त, हाजिर हों‘ पर पढ़ सकते हैं।

इसी चिट्ठी के साथ यह श्रंखला भी समाप्त होती है।

2 comments:

  1. शायद बड़ा व्यक्ति होने के लिये केवल बड़ा साहित्यकार होना जरूरी नहीं, इसके लिये कुछ और होना चाहिये।

    --क्या बात कही है, वाह!! बिल्कुल सत्य.

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  2. सार्थक पोस्ट.

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