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Wednesday, February 03, 2021

चौधरी धनराज सिंह - राजा बलवन्त सिंह कॉलेज, आगरा के पहले हेडमास्टर

इस चिट्ठी में, राजा बालवन्त सिंह कॉलेज के इतिहास के साथ, मेरे परबाबा के छोटे भाई, चौधरी धनराज सिंह की चर्चा है, जो इसके पहले हेडमास्टर बने।

तुम्हारे बिना 
चौधरी धनराज सिंह - राजा बलवन्त सिंह कॉलेज के पहले हेडमास्टर।। बाबा - राजमाता की ज़बानी।। मेरे बाबा।। अम्मा।।  दद्दा (मेरे पिता)।। नैनी सेन्ट्रल जेल और इमरजेन्सी की यादें।। RAJJU BHAIYA AS I KNEW HIM।। रक्षाबन्धन।। जीजी, शादी के पहले - बचपन की यादें ।  जीजी की बेटी श्वेता की आवाज में पिछली चिट्ठी का पॉडकास्ट।। दिनेश कुमार सिंह उर्फ़ दद्दा - बावर्ची।।

राजा बलवन्त सिंह कॉलेज - इतिहास
राजा बलवन्त सिंह कॉलेज की शुरुवात, १८८५ में, राजपूत लड़को के छात्रावास के रूप में शुरू हई। इसे  कोटला के उमराओ सिंह और उनके भाई नौनिहाल सिंह ने, अपने घर के बाहर, मकान में बनाया था। 
बहुत जल्द ही, इस काम में, आवगढ़ के राजा बलदेव सिंह, वाज़िपुर के राजा लक्षमण सिंह,  गभाना के ठाकुर लेखराज सिंह, और जलालपुर के के कल्याण सिंह भी जुड़ गये। साल भर बाद, आवगढ़ के राजा बलवनत सिंह ने आज के कॉलेज की इमारत, १३,००० रुपये में खरीद कर दान में दी और १८८७ में इस छात्रावास का औपचारिक उद्घाटन 'जुबली राजपूत बोर्डिंग हाउस' के नाम से हुआ।
बाद में, राजा बलवन्त सिह और कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के प्रयासों से, १८९९ में इसमें हाईस्कूल खुला। उस समय इसका नाम 'राजपूत हाई स्कूल' था। १९२८ में इन्टर्मीडीएट और स्वतंत्रता मिलने तक, यह एक प्रसिद्ध पोस्ट्-ग्रैजूइट महाविद्यालय बना चुका था।
१८९९ में, जब यह हाई स्कूल बना, तब मेरे परबाबा के छोटे भाई, चौधरी धनराज सिंह, इसके पहले हेडमास्टर बने। वे वहां १९०५, छः साल, तक रहे। इसके बाद वे प्रशासनिक सेवा में चले गये।

हमारा परिवार 

बाप-दादाओं से सुना करते थे कि हमारा परिवार रारी, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में जमींदार था, कुछ कहते हैं कि तालुकदार था। हमारे पास जमीन जायदाद, शान-शौकत, घोड़ा-गाड़ी  और बहुत कुछ था। लेकिन १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम ने सब बदल दिया। 

इस संग्राम में, हमारा परिवार अंग्रेजो के खिलाफ, स्वतंत्रता सेनानियों के साथ लड़ा। लेकिन, जब अंग्रेजों ने इसे कुचल दिया, तब हमारी जमंदारी/ तालुकदारी, जमीन, जायदाद जब्त कर ली। बस कुछ मौरूसी काश्तकारी ही बची और पूर्वजों का मुश्किल समय शुरू हो गया।

राम भवन सिंह, हमारे पूर्वज थे। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने भाग लिया था। उनके तीन पुत्रों में, सबसे बड़े रक्षपाल सिंह, फिर शिवराज सिंह, और सबसे छोटे धनराज सिंह हुऐ। रक्षपाल सिंह, बची जमीन से गुजर-बसर करने के लिये, रारी में रुक गये। कानपुर, उस समय बड़ी मंडी हुआ करता था। शिवराज सिंह (मेरे परबाबा) ने, कानपुर में एक रेलवे गोदाम में काम शुरू किया। क्या काम करते थे, क्या वेतन था - यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकता। लेकिन, जहां तक मुझे मालुम है कि वे चौकीदार थे और वहां जमीन पर गिरने वाला अनाज ही उनका वेतन हुआ करता था। दोनो बड़े भाइयों ने, छोटे भाई धनराज को पढ़ने के लिये इलाहाबाद विश्वविद्यालय भेज दिया।

स्वतंत्रता संग्राम के सौ साल बाद, १९५७ से १९५९ तक, उत्तर प्रदेश सरकार, 'फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश' नामक  पुस्तकों में इस प्रदेश में इसका उतिहास छापा है।

इसकी चौथी पुस्तक में फतेहपुर जिले  का जिक्र है। हमारा गांव इसी जिले में आता है। इसके पेज ८२२-८२३ में लिखा है कि रारी में लोगों की जमीन जायदाद ज़ब्त कर ली गयी।

हांलाकि इसमें उन लोगों का नाम नहीं लिखा है कि किनकी जमीन ज़ब्त की गयी थी लेकिन इसमें हमारी भी जमीन जायदात थी।

 
 उन्होंने, इलाहाबाद से स्नातक की परीक्षा श्रेष्ठता से पास की। वे, हमारे परिवार के, सबसे पढ़े-लिखे और सम्मानित सदस्य थे। तभी राजा बलवन्त सिंह कॉलेज, हाई-स्कूल बना। वे इसके पहले हेडमास्टर बने। बाद में, सरकार ने उन्हें तहसीलदार बनाया और हम सब उन्हें डिप्टी-साहब के नाम से जानते हैं। 

१८५७ के आजादी की लड़ाई में, हमारे परिवार ने स्वतंत्रता सेनानियों का साथ दिया था। इस कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें कभी  पदोन्नति नहीं किया। इनकी प्रपौत्री सीमा, वर्तमान अल्पसंख्यक मामलों के कैबिनेट मंत्री मुख्तार अब्बास नक्वी की पत्नी हैं।  

मेरे पिता ने, कई पुस्तकें लिखीं हैं। उनमें से एक पुस्तक 'कालचक्र - सभ्यता की कहानी' है। इसकी प्रस्तावना में, उन्होंने धनराज सिंह की चर्चा की है। नीचे लिखा उद्धरण, उसी पुस्तक की प्रस्तावना से है। 

 'कालचक्र : सभ्यता की कहानी'  की प्रस्तावना से

भारत में आपात-स्थिति के घने अंधकार में मेरी निरूद्धि के समय एक दिन पुत्री जया भेंट करने आयी। कहने लगी,

’हमारे बचपन में, आप हमको अपने छोटे बाबाजी [धनराज सिंह] द्वारा वर्णित प्रसंग कभी बताते थे। वे कहानियां हम सबको भाती थीं। आजकल वकालत के व्यस्त जीवन से कुछ छुट्टी मिली। अब वे कथायें लिख लें।‘
इस प्रकार प्रारंभ हुई मानव के विचारों की, संस्कृति की यह गाथा, जो पुस्तकाकार में प्रस्तुत है। सामान्य पाठक के लिये यह कहानी के रूप में ( और इसलिए बहुत सी तिथियों एवं संदर्भो का उल्लेख न करते हुए) लिखी गई है।

मेरे छोटे बाबाजी, चौ. धनराज सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रतिष्ठापूर्वक स्नातक परीक्षा पास करने के बाद आगरा में उस विद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य बने, जो अब बलवन्त राजपूत कालेज, आगरा के नाम से जाना जाता है। दो [छः] वर्ष के बाद उनकी सीधी नियुक्ति प्रांतीय प्रशासनिक सेवा में हो गई। पुरातत्व उनकी अभिरूचि का विषय था, उनका व्यासंग भी कह सकते हैं। जिस जिले में तैनाती हुई, वहां के पुरातत्व स्थल उन्होंने खोजे, उनकी कहानियां जानीं। सरकारी सेवा से अवकाश के बाद उनका पूरा समय इस अध्ययन में बीता। सभी पुराण, वेद, प्राचीन सभ्यताओं की दंतकथाएं एवं कहावतें, संसार के मानचित्र में फैले भारत का स्मरण दिलाते अवशिष्ट चिन्‍ह। आश्चर्य कि भाषा-शास्त्र के माध्‍यम से वे पुरातत्व के विद्यार्थी बने और अनेक देशों की पौराणिक आख्यायिकाओं और दंतकथाओं के अंदर ऐतिहासिक विषय-वस्तु खोजने का नियम निकाला और रामायण एवं महाभारत काल का एक ऐतिहासिक ढांचा खड़ा करने का प्रयत्न किया। वे कहा करते थे कि इनमें अनेक स्थानों एवं घटनाओं का वर्णन बृहत्तर भारत ही नहीं, उसके बाहर का हो सकता है, इसलिए संसार के रंगमंच पर उनकी लीलास्थली खोजें।

उनके भाषा-विज्ञान और फिर पुरातत्व में धंसने का संदर्भ दूसरे अध्याय में है। उन्होंने कई सहस्त्र अंग्रेजी और हिन्दी अथवा ठेठ देहाती, एक ही ध्वनि के, पर्यायवाची शब्द खोज निकाले। उनके पास लगभग नब्बे वर्ष पुरानी जागतिक महायुद्ध के पहले की भू-चित्रावली (एटलस) थी। उसमें वर्णित स्थानों, नदियों, पर्वतों के संस्कृत नाम निकाले तथा वहां की किंवदंतियों और जनश्रुतियों से उन्हें प्रमाणित किया। उनकी दुर्लभ हस्तलिपियां कुछ शोधछात्र ले गए और दुर्भाग्यवश कालांतर में वे विलीन हो गईं। उनके साथ बृहत्तर भारत में छितरा महाभारत एवं रामायण काल के इतिहास का ढांचा भी खो गया। जो उनके लिखे नोट, स्मरण-पत्रक आदि हैं, उनके आधार पर पुन: आज प्राचीन सभ्यताओं का इतिहास लिखने का कार्य कोई न कर सका।

मेरे विद्यार्थी जीवन में कभी-कभी वे दूर देशों की, प्राचीन सभ्यताओं की कहानियॉं सुनाते, पर हम सब सुनी-अनसुनी कर देते। हममें धैर्य कहॉं। एक बार ‘मत्स्यपुराण’ से उन्होंने बताना शुरू किया, जब माया नगरी (हरिद्वार) में प्रभात होता है तो कुबेर की नगरी में दोपहर और सुषा नगरी में रात्रि का तीसरा प्रहर। फिर पूछा, क्या आधुनिक बीजिंग कुबेर की नगरी हो सकती है? ईरान की सुषा नगरी की जानकारी हमें है, जिसके ध्वंसावशेष एक बड़े क्षेत्र में फैले हैं। उन्‍होंने संसार भर में पुराणों में उल्लिखित नगरों को खोजा। कितने ही ऐतिहासिक नगर पुरानी भू-चित्रावली में भारत के बाहर दिखाए।

बाद में जब मैं प्रयाग उच्च न्यायालय में वकालत करने आया, उसके कुछ वर्ष बाद एक दिन उन्होंने मुझसे कहा,

’देखो, मैंने एक बड़ी गलती की थी। एक बार विदेशी पुरातत्वशास्‍त्री (संभवतया वैदेल के कोई शिष्य) मिलने आए थे। वह अनेक बातें पूछते रहे। मैंने उन्हें यह सोचकर अपना शोधकार्य एवं उसके परिणाम नहीं बताए कि वे उसका कहीं दुरूपयोग न करें। परंतु यह ठीक न था। बाद में लगा, केवल विदेशी होने से शंका करना भारतीयत्व नहीं। मुझे बताना चाहिए था।‘

भारतीय दृष्टि से संपूर्ण ज्ञान जनता की संपत्ति है।

जब बांदा में वकालत करता था तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आया। तब मुझे एक नई दृष्टि मिली। जो बाबाजी कहते थे और जिसमें कुछ को उनकी सनक समझता था, वह नए ढंग से समझ में आने लगा। और फिर सन १९३५ के संघशिक्षा वर्ग में एक प्रारंभिक विषय मुझे पकड़ा दिया गया। उसे उपयुक्त शीर्षक के अभाव में मैंने प्रारंभ किया, ‘भारत की यशोगाथा संसार के इतिहास ने गाई है‘। इस पुस्तक की भूमि बाबाजी ने बनाई, तो बीज उस बौद्धिक में निहित था।

आप 'कालचक्र - सभ्यता की कहानी' पुस्तक को  'मेरी कलम से' चिट्ठे पर पढ़ सकते हैं।

About this post in Hindi-Roman and English

Chaudhary Dhanraj Singh, mere perbaba ke chhote Bhaaee the aur  us vidyalay ke pradhanacharya ke phale headmaster bane,  jo ki ab, Raja Balwant Singh College, Agra ke naam se jana jata hai. is chitthi mein, unhee kee charchaa ke saath Raja Balwant Singh College, Agra ke itihas kI charcha hai. ise aap roman ya kisee aur bhaarateey lipi mein  padh sakate hain. isake liye daahine taraf, oopar ke widget ko dekhen.

This post is about history of Raja Balwant Singh College as well as Chaudhary Dhanraj Singh, younger brother of my great grandfather, who was its the first Headmaster. It is in Hindi (Devanagari script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.

सांकेतिक शब्द
। Culture, Family, Inspiration, life, Life, Relationship, जीवन शैली, समाज, कैसे जियें, जीवन, दर्शन, जी भर कर जियो,
#हिन्दी_ब्लॉगिंग #HindiBlogging
#ChaudharyDhanrajSingh #BalwantRajputCollege

9 comments:

  1. Such a brilliant background..an accomplished personality..love and respect

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  2. A very interesting read and fascinating to learn about our forefathers. Thank you for sharing, Yati Dada.

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  3. चाचा जी, आपके इस लेख से अपने रारी परिवार के बारे मे और जानने को मिला.
    हमारे परदादा मे से स्वर्गीय श्री Rambaksh ने 1857 मे अंग्रेजो के खिलाफ अन्दोलन छेडा था, क्या इस विषय मे कोई जानकारी है?

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    1. मैं कह नहीं सकता। मैंने वही लिखा जैसा मेरे पिता बताते थे।
      मुझे रामभवन सिंह या फिर उनके बेटों का जन्म का साल या कब मृत्यु हुई नहीं मालुम। केवल यह मालुम है कि धनराज सिंह की मृत्य १९५४ में हुई।
      रामबक्श, जिनका आप जिक्र कर रहे हैं वे धनराज सिंह या शिवराज सिंह के वंशज नहीं हैं।
      जहां तक मुझे मालुम है कि रक्षपाल सिंह के दो बेटे थे - हरपाल सिंह और यदुनाथ सिंह।
      हरपाल सिंह के चार बेटे थे - बेनी माधो, बृजपाल सिंह, भानुप्रताप सिंह, और उदयप्रताप सिंह। यदुनाथ सिंह के दो बेटे थे। इन्दरपाल सिंह उर्फ शार्दुल और पृथ्वीपाल सिंह। बेटियां भी हो सकती हैं पर उनके बारे में नहीं कह सकता।
      मैं नहीं कह सकता कि रामबक्श जिनका आप जिक्र कर रहे हैं वह कहां पर आते हैं।

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    2. देवेन्द्र कुमार सिंह4:46 pm

      मेरे पास है। आप कौन हैं पहले यह पता चले। मै धनराज सिंह चौधरी के सबसे बड़े भाई रक्षपाल सिंह चौधरी के छोटे पुत्र यदुनाथ सिंह के बड़े पुत्र इन्द्रपाल सिह(शार्दूल सिंह) का बड़ा पुत्र हूं। मेरा नाम देवेन्द्र कुमार सिंह (लल्ला) है।

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    3. वंशावली, मेरे पास भी है। लेकिन उसमें रामबक्श नाम को कोई नहीं है।

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    4. रामबक्स की जगह रामभवन पढे, येह एक टाइपिंग त्रुटी है.
      बृजपाल की जगह ब्रजमोहन सिंह् (रामराज) सही नाम है,देवेन्द्र चाचा जी मै ब्रजमोहन सिंह का नाती हूँ और मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री आदित्य कुमार सेना मे थे और 65 वा 71 के जंग मे लड़ चुके है.

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  4. बहुत ही महत्वपूर्ण तथा भावनात्मक रूप से ओतप्रोत लेख को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे उसी समय के गलियारों में विचरण कर रही हूँ। साभार, वीनू परीदा

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  5. राम बक्श सिंह बैस तो थे पर उनका रारी से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने 1857-58 की क्रांति मे भाग लिया था पकडे गए और उन्नाव जिले मे गंगा तट पर बक्सर मे उनको फांसी पर लटकाया गया था।

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आपके विचारों का स्वागत है।