अम्मां (९.२.१९२२-४.८.१९८४), हम लोगों के इस दुनिया में आने के बाद। |
रिश्तों में सबसे पवित्र रिश्ता मां का - आज मां-दिवस पर, कुछ बातें अम्मां के बारे में।
मेरी बहन मुझसे सात साल बड़ी। मेरा और उसका रिश्ता भाई-बहन का कम, मां-बेटे का ज्यादा। कुछ बातें, उसके बारे में भी।
इसी के माध्यम से, कुछ चर्चा पालन-पोषण और बड़े होने के बारे में
मेरी बहन मुझसे सात साल बड़ी। मेरा और उसका रिश्ता भाई-बहन का कम, मां-बेटे का ज्यादा। कुछ बातें, उसके बारे में भी।
इसी के माध्यम से, कुछ चर्चा पालन-पोषण और बड़े होने के बारे में
बसंत पंचमी १९३९ – मेरी मां, पिता की शादी। मां , उस समय ग्यारवीं कक्षा की छात्रा थीं और पिता उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। १९४० में, पिता ने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और मां ने इण्टरमीडिएट पास किया। पिता तो, बाबा के कस्बे में, वापस आकर व्यवसाय में लग गये पर मां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहर चली गयीं। वे अगले चार वर्ष छात्रावास में रह कर उन्होने स्नातक और कानून की शिक्षा पूरी की। १९४४ में, वे अपने विश्वविद्यालय की पहली महिला विधि स्नातक बनीं। उनकी उच्च शिक्षा पूरी हो जाने के बाद ही, हम भाई-बहन इस दुनिया में आए। १९५० में, मेरे पिता, इस कस्बे में, व्यवसाय की बढ़ोत्तरी के लिये आये।
बचपन की यादें
पिता चाहते थे कि हमारा लालन-पालन एक सामान्य भारतीय के अनुसार हो। वह इतना पैसा जरूर कमाते थे कि हमें हिन्दुस्तान के किसी भी स्कूल में आराम से पढ़ने भेज सकते थे पर उन्होंने हम सब को वहीं पढ़ने भेजा जहाँ हिन्दुस्तान के बच्चे सामान्यत: पढ़ते हैं। हमने अपनी पढ़ाई एक साधारण से स्कूल में पूरी की।पिता हिन्दी के समर्थक थे। हम भाई बहन हिन्दी मीडियम स्कूल में गये। घर में अंग्रेजी में बात करना मना था। मेरे पड़ोस के सारे बच्चे कस्बे के अंग्रेजी मीडियम विद्यालयों में और कई कस्बे के बाहर हिन्दुस्तान के सबसे अच्छे पब्लिक विद्यालयों में पढ़ते थे। वे सब अंग्रेजी में ही बात करते थे। यह हमें कभी, कभी शर्मिंदा भी करता था। मां हमेशा हमें दिलासा देती,
‘ये लोग अपने स्कूल पर गर्व करते हैं पर तुम्हारा स्कूल तुम पर।’मां की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। वे अंग्रेजी के महत्व को समझती भी थीं। वे हमें बीबीसी सुनने के लिये प्रेरित करती। प्रतिदिन शाम को, हम सब भाई-बहनों को उन्हें अंग्रेजी की कोई न कोई कहानी या तो रीडर्स डाइजेस्ट से या फिर अखबार पढ़ कर सुनाना पड़ता था। वे हमारा उच्चारण ठीक करती और अर्थ समझाती थीं। किसकी बारी पड़ेगी यह तो हम लोग यह खेल से ही निकालते थे,
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बोल,बस जिस पर भागा आया उसे ही पढ़नी पड़ती थी।
अस्सी नब्बे पूरे सौ।
सौ में लगा धागा,
चोर निकल भागा।
एक बार मैंने मां से पूंछा कि तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो, तुमने वकालत या कोई और काम क्यों नहीं किया। उनका जवाब था कि,
‘मैं घर की सबसे बड़ी बहूं हूं। तुम्हारे बाबा के कस्बे से तुम्हारे चाचा, बुआ, उनके लड़के, लड़कियां सब यहीं पढ़ने आए। वे सब हमारे साथ ही रहे, यदि मैं कुछ काम करती तो उनका ख्याल, तुम लोगों का ख्याल कैसे रख पाती। पैसे तो तुम्हारे पिता, हम सबके लिए कमा ही लेते हैं बस इसलिए घर के बाहर जाना ठीक नहीं समझा।’मैंने मां को हमेशा सफेद रंग की साड़ी पहने हुए देखा। मैंने मां को कभी सिंदूर लगाये भी नहीं देखा। बिन्दी भी किसी खास मौके पर - हर समय नहीं।
एक बार हम ट्रेन में सफर कर रहे थे। एक महिला ने मां से पूछा कि क्या वे विधवा हैं? मां मुस्करायीं और हमारी ओर इशारा कर बोली,
‘इनके पिता को सफेद रंग पसन्द है, बस इसलिये, मैंने इसे अपना लिया। शादी के बाद, जब भी सिंदूर लगाया तो सर में दर्द हो गया – शायद कुछ मिलावट हो। इनके पिता ने सिंदूर लगाने के लिए मना कर दिया। यदि बिन्दी अच्छी न हो तो दाग लग जाता है। बस इसलिये सिंदूर या बिन्दी नहीं लगाती।’उस महिला ने मां से माफी मांगी पर ट्रेन पर हमारी उनसे अच्छी मित्रता हो गयी। मुझे भी, होली के रंगों से, एलर्जी हो जाती है। शायद, यह मैंने उन्हीं से पाया है।
जीजी और अम्मां - जब मेरी बहन पढ़ाने लगी। |
हमें हिन्दी पिक्चर देखने की अनुमति नहीं थी। हम केवल अंग्रेजी पिक्चर ही देख सकते थे। बहन की शादी, मेरे विश्विद्यालय के जीवन के अन्तिम चरण पर हुई। उसके बाद, मेरी मां को पिक्चर देखने के लिए साथी मिलना बन्द हो गया तब मैंने उनके साथ हिन्दी पिक्चर देखना शुरू किया। कुछ दिनों के बाद मेरे दोस्त भी हमारे गुट में शामिल हो गये। टिकट और कोकाकोला के पैसे तो मेरी मां ही देती थी। शादी के बाद, पत्नी शुभा के साथ अनलिखी शर्त थी,
'हिन्दी पिक्चर में मेरी मां भी साथ चलेंगी।'वे जब तक जीवित रहीं ऎसा ही रहा। ऐसे हम जब भी कस्बे के बाहर गये, वे हमारे साथ ही गयीं।
मां की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे छोटी-छोटी बातों से जीवन को भरपूर जीना जानती थीं, दशहरे की झांकी हो या कोई मेला हो, वह हमेशा उसमें जाने में उत्साहित रहती थीं और हम लोगों को भी वहां ले जाती थीं। वहां पर चाट खाना, कचौड़ी खाना उनको प्रिय था और हमें भी। मुझे यह अब भी प्रिय है पर शुभा को नहीं। बस जब वह नहीं होती है तब ही इसका आनन्द उठाता हूं 🙂
मेरी मां एक गरीब परिवार से थीं और वह कहती थीं कि उनके घर एक बार ही खाना बनता था। वे हर का, खास तौर से गरीब रिश्तेदारों का ख्याल ज्यादा ही रखती थीं। उनका कहना था कि जो जीवन में बहुत नहीं कर पाया उसका बहुत ख्याल रखना चाहिए क्योंकि वह शायद हिचक के कारण कुछ न कह पाये।
मैंने मां को पिता से कभी बात करते नहीं देखा पर उनके कुछ न कहने पर वह मेरे पिता के मन की हर इच्छा जान जाती थीं। वे पिता की हर बात नहीं मानती थीं कई बार वे हमारा साथ देती थीं पर जिसे वे मानती थी वह उनके न बताये भी जान जाती थीं जैसे कि वे उनका मन पढ़ लेती हों। मैं अक्सर सोचता हूं कि शुभा क्यों नहीं मेरे मन की बात समझ पाती। वह मुझसे कहती है,
‘तुम्हारे मन में जो है वह मुझे बताते क्यों नहीं। मुझे कैसे मालुम चले कि तुम क्या चाहते हो।’लगता है कि मेरी मां किसी और मिट्टी की बनी थीं। वह मेरे पिता के बिना बोले ही उनका मन जान जाती थीं।
परिवार में यौन शिक्षा
सेक्स का विषय हर जगह वर्जित है। हांलाकि कि बीबीसी के मुताबिक बहुत कुछ बदल रहा है। सीबीएससी में यौन शिक्षा को पाठ्य-क्रम में रखा गया है। हांलाकि इसे कई राज्य सरकारों ने रखने से मना कर दिया। मैं यौन शिक्षा का पक्षधर हूं पर यह किस तरह से हो इसमें जरूर संशय है। आइये कुछ बात करते हैं मेरे परिवार में किस तरह से हुई।मैं नहीं जानता कि इस विषय को बताने का क्या सबसे अच्छा तरीका है पर मैं वह तरीका अवश्य जानता हूं जैसा कि हमारे परिवार में हुआ। मैंने यह विषय कैसे अपनी आने वाली पीढ़ी को बताया। मुझे, अक्सर स्कूल, विद्यालय, विश्व विद्यालय में जाना पड़ता है। बच्चों से मुकालात होती है। अक्सर, मेरे पास बच्चे यह पूछने के लिये आते हैं कि वे क्या कैरियर चुने, कहां जायें। कभी कभी, मैं उनसे इस विषय पर भी बात करता हूं। मैं, क्या उन्हें बताता हूं, यहां कुछ उसी के बारे में।
मेरे बचपन का एक बहुत अच्छा मित्र, टोरंटो इंजीनियरिंग कॉलेज में अध्यापक रहा। कुछ समय पहले उसकी मृत्यु हो गयी। बचपन में ही उसके पिता का देहान्त हो चुका था। भाई, बहनो की भी शादी के बाद, वह और उसकी मां हमारे ही कस्बे में रहते थे। अक्सर उसकी मां उसके भाई या बहनो के पास रहने चली जाती थी। उस समय उसका घर खाली रहता था। उस समय, उसके घर, काफी धमाचौकड़ी रहती थी।
यह १९६० का दशक था। हेर संगीत नाटक का मंचन हो चुका था। हिप्पी आंदोलन अपने चरम सीमा पर था। इस धमाचौकड़ी में, अक्सर लड़कियों भी शामिल रहती थीं। कभी कभी चरस और गांजा भी चलता था। मैं खेल में ज्यादा रुचि रखता था। मुझे जिला, विश्वविद्यालय एवं अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने का सौभाग्य मिला। इसी कारण इस तरीके की धमाचौकड़ी में शामिल नहीं रहता था।
एक बार मेरे मित्र को कुछ ब्लू फिल्में मिल गयीं। एक दूसरे मित्र ने प्रोजेक्टर का इंतजाम कर दिया। उन लोगों ने फिल्म को भी देख लिया। यह सोचा गया कि उसे फिर देखा जायगा पर सवाल था कि ब्लू फिल्म कहां रखी जाय। कोई भी उसे रखने को तैयार नहीं था। मैं ही ऐसा था जो कि इस धमाचौकड़ी मे शामिल नहीं था। इसलिये मेरे पास ही रखना सबसे सुरक्षित समझा गया या यह समझ लीजये कि मुझे उन ब्लू फिल्मों को रखने में कोई हिचक नहीं थी।
मैं ने यह ब्लू फिल्में अपने कपड़े की अलमारी में रख दी। एक दिन मेरे कपड़े लगाते समय मां को ब्लू फिल्में मिल गयीं। उनके पूछने पर मैंने सारा किस्सा बताया और यह भी बताया कि मैंने कोई भी ब्लू फिल्म नहीं देखी है। मां पूछा कि मुझे सेक्स के बारे में कितना ज्ञान है। मेरा जवाब था थोड़ा बहुत। उन्होने कहा कि,
‘ब्लू फिल्मों मे बहुत कुछ नामुमकिन बात होती है और अधिकतर जो भी होता है वह ठीक नहीं। तुम्हें मालुम होना चाहिये कि क्या ठीक नहीं है। इसलिये इसे, तुम्हें देख लेना चाहिये पर उसके पहले सेक्स का अच्छा ज्ञान भी होना चाहिये।’
हम लोग किताबों की दुकान पर गये और वहां से एक पुस्तक Everything you always wanted to know about sex but were afraid to ask by David Reuben खरीद कर लाये। यह पीले रंग की पुस्तक है इसलिये यह पीली पुस्तक के नाम से भी मशहूर हुई।
सेक्स के सम्बन्ध में उत्तेजना चित्र देख कर या उसके वर्णन से होती है। इस पुस्तक में कोई भी चित्र नहीं हैं। इसमें सारा वर्णन प्रश्न और उत्तर के रूप में है। इसे पढ़ कर कोई उत्तेजना नहीं होती है। इस पुस्तक में कुछ सूचना समलैंगिक रिश्तों और सेक्स परिवर्तन के बारे में है। यह इस तरह के विषयों को नकारती है। इसी लिये कुछ लोग इस पुस्तक पर विवाद करते हैं। यह दोनो विषय विवादस्पद हैं। यदि आप इस पुस्तक में, इस विषय की सूचना को छोड़ दें, तो बाकी सूचना के बारे में कोई विवाद नहीं है और लगभग सही है। मेरे विचार से, यह एक अच्छी पुस्तक है।
मैंने, इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ब्लू फिल्म देखना जरूरी नहीं समझा। ब्लू फिल्म न देखने के निर्णय में, कई अन्य बातों ने भी महत्वपूर्ण रोल निभाया। मां ने,
- मुझे न तो उन फिल्मों को रखने के कारण डांटा, न ही देखने के लिये मना किया, जिसकी मनाही हो उसी के बारे में उत्सुकता ज्यादा रहती है;
- हमेशा हमें, बाहर के खेल पर, पढ़ाई से भी ज्यादा ध्यान देने के लिये प्रोत्साहित करती थीं। उस समय पढ़ाई का वैसा बोझ नहीं था जैसा कि आजकल होता है।
मां का प्रिय वाक्य थे,
‘पढ़ाई बन्द करो और बाहर जा कर खेलो।’यदि हम रात को देर तक पढ़ते थे तो हमेशा कहती थीं,
‘चलो, सोने जाओ। बहुत रात तक पढ़ना ठीक नहीं।’परीक्षा के दिनो में तो हमारे कमरे की बत्ती बहुत ज्लद ही बन्द कर दी जाती थी। वे कहती थीं,
‘परीक्षा के समय दिमाग एकदम तरोताजा रहना चाहिये।’मैंने अपने बेटे को, जब स्कूल में ही था तब यह पुस्तक पढ़ने के लिये दी। वह बारवीं के बाद आईआईटी कानपुर से, इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चला गया और हॉस्टल में ही रहा। मैं समझता हूं कि उन्हें इस पुस्तक के पढ़ने के कारण मदद मिली।
देश के कुछ महाविद्यालयों में, पास-ऑउट करने वाले छात्रों की एक पत्रिका निकाली जाती है। आई.आई.टी. कानपुर में भी ऐसा होता है। यह पत्रिका विद्यार्थी ही निकालते हैं इसमें उनके साथी ही उन्हीं के बारे में लिखते हैं। मैं एक बार उनकी इस पत्रिका को पढ़ने लगा तो उन्होने मना किया,
‘पापा, तुम मत पढ़ो। इसे पढ़ कर तुम्हे अच्छा नहीं लगेगा।’मैंने कहा,
‘मैं भी अपने विद्यार्थी जीवन में इन सब से गुजर चुका हूं इसलिये कोई बात नहीं।’उनकी पत्रिका में बहुत सारी बातें स्पष्ट रूप से लिखी थीं। हमारे समय में भी उस तरह की बातें होती थी पर इतना स्पष्ट रूप से नहीं लिखा जाता था। मैंने School Reunion चिट्ठी लिखते समय लिखा था कि मेरे बेटा आई.आई.टी. कानपुर की पत्रिका में दी गयी पहली दो सूची में नहीं हैं पर विद्यार्थियों की इस पत्रिका में उनके बारे में यह अवश्य लिखा है कि वह सबसे साथ सुथरा बच्चा है। हो सकता है यह उसके संस्कारों के कारण हो पर मेरे विचार से यह उनके इस पुस्तक को पढ़ने और यौन शिक्षा को अच्छी तरह से समझने के कारण भी है।
मेरे विचार में, परिवार के अन्दर, आने वाली पीढ़ी को अच्छी किताबें बताना, मुक्त पर स्वस्थ यौन चर्चा करना, एक अच्छी बात है। अन्यथा, नयी पीढ़ी को गलत सूचना मिल सकती है और वे गलतफहमी के शिकार हो सकते हैं।
करो वही, जिस पर विश्वास हो
कई दशक पहले, जून १९७५ में आपातकाल की घोषणा हुई थी। उस समय, मैं कश्मीर में था। लोग पकड़े जाने लगे। मुझे लगा कि मुझे कस्बे पहुंचना चाहिये। मेरे पिता पकड़े जा सकते हैं और मां अकेले ही रह जांयगी। यही हुआ भी। मेरे कस्बे पहुंचते पता चला कि पिता को झूठे केस में डी.आई.आर. में बन्द किया गया। उन पर इल्जाम लगाया गया कि वे यह भाषण दे रहे थे कि जेल तोड़ दो, बैंक लूट लो। यह एकदम झूट था। उस समय देश की पुलिस और कार्यपालिका से सरकारी तौर पर जितना झूट बुलवाया गया उतना तो कभी नहीं, यहां तक अंग्रेजों के राज्य में भी नहीं। डी.आई.आर. में मेरे पिता की जनामत हो गयी पर वे जेल से बाहर नहीं आ पाये। उन्हें मीसा में पकड़ लिया गया।यह समय हमारे लिये मुश्किल का समय था। समझ में नहीं आता था कि पिता कब छूटेंगे। इस बीच, मित्रों, नातेदारों ने मुंह मोड़ लिया था। लोग देख कर कतराते थे। उनको डर लगता था कि कहीं उन्हें ही न पकड़ लिया जाय। मां यह समझती थीं। उन्होंने खुद ही ऐसे रिश्तेदारों और मित्रों को घर से आने के लिये मना कर दिया ताकि उन्हें शर्मिंदगी न उठानी पड़े। मुझे ऐसे लोगो से गुस्सा आता था। मैंने बहुत दिनो तक अपने घर कर बाहर पोस्टर लगा रखा था,
‘अन्दर संभल कर आना, यहां डिटेंशन ऑर्डर रद्दी की टोकड़ी पर पड़े मिलते हैं।’इस मुश्किल समय पर कइयों ने हमारा साथ भी दिया। उन्हें भूलना मुश्किल है: उन्हें भी भूलना मुश्किल है जो उस समय डर गये थे।
दो साल (१९७५-७७), मैंने न कोई पिक्चर देखी, न ही आइसक्रीम खायी, न ही कोई दावत दी, न ही किसी दावत पर गये। पैसे ही नहीं रहते थे। उस समय भी लोग, अक्सर हमसे पैसे मांगने आते थे। उन्हें भी मना नहीं किया जा सकता था वे भी मुश्किल में थे, उनके प्रिय जन भी जेल में थे।
आपातकाल के समय, कई लोग माफी मांग कर जेल से बाहर आ गये पर पिता ने नहीं मांगी। उनका कहना था,
‘मैंने कोई गलत काम नहीं किया। मैं क्यों माफी मांगू। माफी तो सरकार को मागनी चाहिये।’वे लगभग दो साल तक जेल में रहे। १९७७ के चुनाव के बाद पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी, चुनाव हार गयी तभी वे छूट पाये।
मां से संबन्धित आपतकाल की एक घटना मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है। वे हमेशा कहती थीं,
‘करो वही, जिस पर विश्वास हो। दिखावे के लिये कुछ करने की कोई जरूरत नहीं।’वे न इसे कहती थीं पर इसे अमल भी करती थीं। नि:संदेह, ढ़कोसलों का उनके जीवन पर कोई स्थान नहीं था।
शिव आराधना … से कोई नहीं छूटेगा
आपातकाल के दौरान, जब मेरे पिता जेल में थे तो हमारे शुभचिन्तक हमारे घर आये। उन्होंने मेरी मां से अकेले में बात करने को कहा। बाद में मैंने मां से पूछा कि वे क्यों आये थे और क्या चाहते थे। मां ने बताया,‘वे कह रहे थे कि यदि मैं मंदिर में शिव भगवान की आराधना करूंगी, तो तुम्हारे पिता छूट सकेंगे।’मां ने यह नहीं किया। वे आर्यसमाजी थीं और इस तरह के धार्मिक कृत्यों (ritual) पर उनका विश्वास नहीं था। उनका कहना था कि,
‘शिव अराधना केवल मन की शान्ति के लिये है। उससे कोई नहीं छूटेगा। लोग तो छूटेंगे न्यायालाय से या फिर जनता के द्वारा।’उच्च न्यायालय ने तो हमारा साथ दिया पर सर्वोच्च न्यायालय ने हमें शर्मिन्दा किया। सीरवाई एक प्रसिद्ध न्यायविद रहे हैं। वे बहुत साल तक महाराष्ट्र राज्य के महाधिवक्ता रहे और उनकी भारतीय संविधान पर लिखी पुस्तक अद्वतीय है। इस पुस्तक (Constitution of India: Appendix Part I The Judiciary Of India) में वे कहते हैं कि,
‘The High Courts reached their finest hour during the emergency; that brave and courageous judgements were delivered; … the High Courts had kept the doors ajar which the Supreme Court barred and bolted’.
आपातकाल का समय, उच्च न्यालयों के लिये सुनहरा समय था। उस समय उन्होने हिम्मत और बहादुरी से फैसले दिये। उन्होने स्वतंत्रता के दरवाजों को खुला रखा पर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे बन्द कर दिया।आपातकाल के बाद, वे सब हमारे पास पुन: आने लगे जिन्होंने हमसे मुंह मोड़ लिया था। मां, पिता ने उन्हें स्वीकार कर लिया, हमने भी। सरकार ने, पिता को राजदूत बनाकर विदेश भेजने की बात की पर उन्होंने मना कर दिया। वे अपने सिद्घान्त के पक्के थे। आपातकाल के समय न माफी मांगी और न ही बाद में कोई पद लिया। उनका कहना था,
‘मैंने किसी पद के लिये समाज सेवा नहीं की।’मुझे अच्छा लगता है, गर्व भी होता है कि मेरी मां, मेरे पिता ऐसे थे। जिन्होंने हमेशा वह किया जो उन्हें ठीक लगता था – दुनिया के दिखावे के लिये नहीं।
अम्मा – अन्तिम समय पर
मां दूसरों के मन की बात समझती थीं और उसे पूरा करने का भरसक प्रयत्न करती थीं। १९८० के दशक में उन्हें दिल की बीमारी हो गयी, अक्सर डाक्टर उन्हें देखने आया करते थे। मेरी सास ने कई साल अमेरिकी विश्विद्यालयों में पढ़ाया है। मेरी शादी के बाद जब वे सबसे पहले पढ़ाने के लिये गयीं तो शुभा, मेरी मां की बीमारी के कारण उन्हें दिल्ली तक छोड़ने नहीं जा पा रही थी। उसने मुझे कहा कि मैं दिल्ली जाकर उसकी मां (मेरी सास) को छोड़ आऊं।
मैंने दिल्ली जाने का प्रोग्राम भी बना लिया। शाम को उसने फोन करके बताया कि अम्मा की तबियत खराब है और मैं घर आ जाऊं। उसने डाक्टर को भी बुला लिया था। जब तक मैं घर पहुँचा, डाक्टर साहब मां को देख चुके थे और जाने लगे। चलते-चलते जब मैं डाक्टर साहब को उनकी कार तक छोड़ने गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि,
‘अम्मा की तबियत ठीक है और तुम दिल्ली जा सकते हो।’मैंने कहा कि मैं इस बारे में सोचूंगा। मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था और दिल्ली नहीं गया।
मां की तबियत अगले दिन बहुत अच्छी हो गयी। मुझे लगा कि मैंने बेकार ही दिल्ली प्रोग्राम रद्द किया। इसके दिन बाद, मां ने सुबह चाय बनायी। अखबार पढ़ते-पढ़ते, चाय की चुस्की लेते, उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वे वहां चली गयीं, जहां से कोई वापस नहीं आता। वे अन्त तक सारे काम स्वयं करती रहीं। उन्हें न कभी किसी सहारे की जरूरत पड़ी, न ही उन्होंने किसी का सहारा लिया, न ही वे ऐसा जीवन पसन्द करती थीं। शायद भगवान भी, जिससे ज्यादा प्यार करता है – उसे इसी तरह की जिन्दगी, इसी तरह की मौत देता है। हे ईश्वर, मुझे भी इसी तरह की मौत देना।
कुछ दिनों बाद, बातचीत के दौरान मैंने शुभा से कहा कि,
‘अच्छा हुआ कि मैं दिल्ली नहीं गया और चला जाता तो मैं कभी अपने आपको माफ नहीं कर पाता पर मेरी समझ में नहीं आया कि डाक्टर साहब ने यह कैसे कह दिया कि मैं दिल्ली जा सकता हूं जबकि अम्मां की तबियत ठीक नहीं थी।’उसने जवाब दिया,
‘जब तुम नहीं थे तो अम्मा ने डाक्टर साहब से कहा था कि, तुम दिल्ली जाना चाहते हो, प्रोग्राम बना है और टिकट भी आ गया है, इसलिए डाक्टर साहब तुमसे कह दें कि उनकी तबियत एकदम ठीक है और यह न कहें कि कुछ टेस्ट करवाने हैं। जो भी टेस्ट करवाना है वे अगले दिन आकर लिख देंगे। वे उसकी फीस अलग से दे देंगी। उन्होंने मुझे और डाक्टर सहब को तुम्हें यह न बताने कि कसम भी दिलवा दी थी। इसलिए मैंने तुम्हे नहीं बताया और डाक्टर साहब ने तुम्हे दिल्ली जाने को कह दिया।’मुझे लगा कि वह मरते समय भी, इस बात का ख्याल रखती थी कि हम क्या चाहते हैं।
हो सकता है कि आज के समय में बेटे और बेटियों का मां से रिश्ता मदर-डे पर याद कर लेना या एक कार्ड देना ही रह गया हो पर मैं नहीं समझता कि मां का अपने बेटे और बेटियों से रिश्ता, कार्ड तक है। यह कहीं ज्यादा गहरा, कहीं ज्यादा सच्चा है। मैं नहीं समझता कि इसे आंकने के लिये कोई नपना है, न कभी कोई नपना बनाया जा सकेगा।
तुम्हारे बिना
।। 'चौधरी' ख़िताब - राजा अकबर ने दिया।। बलवन्त राजपूत विद्यालय आगरा के पहले प्रधानाचार्य।। मेरे बाबा - राजमाता की ज़बानी।। मेरे बाबा - विद्यार्थी जीवन और बांदा में वकालत।। बाबा, मेरे जहान में।। पुस्तकें पढ़ना औेर भेंट करना - सबसे उम्दा शौक़।। सबसे बड़े भगवान।। जब नेहरू जी और कलाम साहब ने टायर बदला।। मेरे नाना - राज बहादुर सिंह।। बसंत पंचमी - अम्मां, दद्दा की शादी।। अम्मां - मेरी यादों में।। दद्दा (मेरे पिता)।।My Father - Virendra Kumar Singh Chaudhary ।। नैनी सेन्ट्रल जेल और इमरजेन्सी की यादें।। RAJJU BHAIYA AS I KNEW HIM।। मां - हम अकेले नहीं हैं।। रक्षाबन्धन।। जीजी, शादी के पहले - बचपन की यादें ।। जीजी की बेटी श्वेता की आवाज में पिछली चिट्ठी का पॉडकास्ट।। चौधरी का चांद हो।। दिनेश कुमार सिंह उर्फ बावर्ची।। GOODBYE ARVIND।।
सांकेतिक शब्द
।Mother's Day,
। Culture, Family, Inspiration, life, Life, Relationship, जीवन शैली, समाज, कैसे जियें, जीवन, दर्शन, जी भर कर जियो,
#हिन्दी_ब्लॉगिंग #HindiBlogging
#Amma #Mother'sDay
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 112वीं जयंती - सुखदेव जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteएक उच्च आदर्शों के परिवार की विस्तार से कहानी।योग्य मां,पिता और अब पुत्र भी। बहुत अच्छा लिखा यतीन्द्र जी।
ReplyDeleteThis comment is on behalf of Rajesh Kumar Singh on the post.
ReplyDeleteReading your post about Badi-Amma brought back happy memories from the past. She was a truly caring soul who was concerned about the well being of all around her. The best thing was that she would anticipate our wishes without being told and fulfil them. A great person who will always live in our hearts.
Rajesh
यह टिप्पणी राजीव कुमार सिंह चौधरी की तरफ से इस पोस्ट पर की जा रही है।
ReplyDeleteमैं शायद आख़री ख़ुशक़िस्मत हूँ जो बड़ी-अम्मा के साथ अगस्त १९८० से जुलाई १९८४ तक रहा। इतने अधिक समय में मुझे एक बार भी नहीं लगा कि बड़ी-अम्मा ने आपमें और मुझमे कोई फ़र्क़ किया हो। कभी दद्दा ने किसी बात में कुछ कह दिया हो तो बड़ी-अम्मा ने मेरी ही तरफ़दारी की। बड़ी-अम्मा की बीमारी के समय मैं वहीं पर था, मुझे उनकी सेवा का सौभाग्य मिला। जब उनको हृदय की बीमारी हुई थी, तो वे बिना किसी को बताए चिकित्सक के पास जाँच के लिए गयी थीं। अगले दिन मैं रिपोर्ट लेकर आया तब पता चला कि हृदयआघात हो चुका है। उनका हमेशा मनाना था कि उनकी वजह से किसी को तकलीफ़ ना हो।
परीक्षा के समय सुबह जल्दी उठकर चाय नाश्ता करवाकर कर ही जाने देती थी। हर बात का ख़्याल रखती थीं। चार साल कैसे बीते पता ही नहीं चला।लकी स्वीट मार्रत की मलाई चाप हमेशा याद रहेगी।
लंच के समय चार सब्ज़ी भोला बनाते थे पाँचवी सब्ज़ी बड़ी-अम्मा बनाती थीं, जो वे और मैं खाते थे जिसमें नमक और मिर्च थोड़ा अधिक होता था।
मैं २८ जुलाई को कानून की पढ़ाई पूरी करके के वापस आया। बड़ी-अम्मा ४ अगस्त को नहीं रहीं। ७ अगस्त को उनका पत्र मम्मी के पास पहुँचा था। उसमें उन्होंने मेरे लिए काफ़ी अच्छे भाव प्रकट किए थे। वे पूरे परिवार की सबसे मज़बूत कड़ी थीं। वे हमेशा हमारे दिलों में रहेंगी। ओम् शान्ति।
राजीव
बहुत अच्छा लगा माँ के और परिवार के बारे में पढ़ना, बहुत कुछ सीखने को मिला जिसे बच्चों को बताना चाहूंगी, इसे परिवार के साथ शेयर भी किया ।
ReplyDeleteआर्चना जी
Deleteमैंने सालों बाद, रचना जी को कहीं टिप्पणी करते देखा। शायद उन्होंने इस लिये टिप्पणी की, आपने चिट्ठी को साझा किया।
आपको इसके लिये धन्यवाद।
नमस्ते उमुक्त जी! आपकी मां के बारे में मैंने बहत पहले शायद २००७/८ में पढ़ा था. वे सफेद सदी पहनती थीं और सिंदूर नहीं लगाती थी, उन्होंने आपको कैसे मूल्य सिखाए सब याद था मुझे :)
ReplyDeleteरचना जी, कुछ साल पहले मैंने एक श्रंखला 'हमने जानी है रिश्तों में रमती खुशबू' नाम से इसी चिट्ठे पर लिखी थी। जिसे बाद में, संकलित कर यहां डाली है। इसकी कुछ कड़ियां शुभा ने भी लिखी हैं। इसी श्रंखला में मैंने अपनी मां का जिक्र किया था, जिसकी आपको याद है। उसी श्रंखला की कुछ कड़ियों को जोड़ कर यह चिट्ठी बनायी है।
Deleteआपने लिखना शुरू किया या नहीं। आप बहुत अच्छा लिखती हैं फिर से शुरू कीजिये।
मैंने इस संस्मरण को पढ़ा नहीं बल्कि जिया है। प्रेरक और इतनी अच्छी मां को शत शत नमन।
ReplyDeleteप्रेरक संस्मरण..🥰🙏
ReplyDeleteप्रेरक और श्रद्धास्पद।
ReplyDeleteशत शत नमन. 🌹 विनम्र श्रद्धांजलि 🌹
ReplyDeleteRight sir lordship
ReplyDeleteVery gret ful life story Thankyou sir
ReplyDeleteThank you for sharing anecdotes from your life about Nani. She left for her heavenly abode so early in life that I have but a few memories of her. Through your articles I come to know more about her and Ma. What a wonderful woman she was. Wish I had more time with her.
ReplyDeleteFantastic blog, Yati Da! Learnt more about Badi Amma and Jiji than before. Nice photos of Badi Amma and Jaya Jiji.
ReplyDelete