२०वीं शताब्दी के शुरु से, जून का तीसरा इतवार फादर्स् डे के रूप में मानाया जाता है। आज जून का तीसरा इतवार है। इस चिट्ठी में, कुछ बातें अपने पिता के बारे में।
बसंत पंचमी १९३९ - मेरी मां, पिता की शादी। मां , उस समय ११वीं कक्षा की छात्रा थीं और पिता उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। १९४० में, पिता ने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और मां ने इण्टरमीडिएट पास किया। पिता तो, बाबा के कस्बे में, वापस आकर व्यवसाय में लग गये पर मां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहर चली गयीं। अगले चार वर्ष छात्रावास में रह कर, उन्होने स्नातक और कानून की शिक्षा पूरी की। १९४४ में, वे अपने विश्वविद्यालय की पहली महिला विधि स्नातक बनीं। उनकी उच्च शिक्षा पूरी हो जाने के बाद ही, हम भाई-बहन इस दुनिया में आए। यह इसी लिये संभव हो सका क्योंकि वे हमारा परिवार हमेशा महलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक था।
१९५० में, मेरे पिता शहर में व्यवसाय की बढ़ोत्तरी के लिये आये। पिता, चाहते हैं कि हमारा लालन-पालन एक सामान्य भारतीय के अनुसार हो। वह इतना पैसा जरूर कमाते थे कि हमें हिन्दुस्तान के किसी भी स्कूल में आराम से पढ़ने भेज सकते थे पर उन्होंने हम सब को वहीं पढ़ने भेजा जहाँ हिन्दुस्तान के बच्चे सामान्यत: पढ़ते हैं। हमने अपनी पढ़ाई एक साधारण से स्कूल में पूरी की।
पिता, हिन्दी के भी बहुत बड़े समर्थक थे। हमें हिन्दी मीडियम स्कूल में ही पढ़ने के लिये भेजा गया। घर में अंग्रेजी में बात करना मना था। मेरे पड़ोस के सारे बच्चे, अंग्रेजी मीडियम में पढ़ते थे। उनके स्कूलों का भी बहुत नाम था। पड़ोस में सारे बच्चे अंग्रेजी में ही बात करते थे। यह हमें कभी, कभी शर्मिंदा भी करता था। लेकिन आज इस बात पर अच्छा लगता है कि वे जिस बात पर विश्वास करते थे उस पर अमल भी - बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं।
हमारे पिता ने, हमेशा हमें पुस्तक पढ़ने के इिये प्रेरित किया। हमें हर तरह की पुस्तक खरीदने की इजाज़त थी। इसके लिये उनके पास हमेशा पैसा रहता था। हम सब का पुस्तक प्रेम का कारण, शायद उनकी यह प्रेणना ही है। आपातकाल के दौरान, उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।
जून १९७५ में, मैं कशमीर में था। लोग पकड़े जाने लगे। मुझे लगा कि कस्बे पहुंचना चाहिये। मेरे पिता पकड़े जा सकते हैं। यही हुआ भी। मेरे कस्बे पहुंचते पता चला कि पिता को झूठे केस में डी.आई.आर. में बन्द किया गया। उन पर इल्जाम लगाया गया कि वे यह भाषण दे रहे थे कि जेल तोड़ दो, बैंक लूट लो। यह एकदम झूट था। उस समय देश की पुलिस और कार्यपालिका से सरकारी तौर पर जितना झूट बुलवाया गया उतना अभी तक कभी नहीं। डी.आई.आर. में पिता की जनामत हो गयी पर वे जेल से बाहर नहीं आ पाये। उन्हें मीसा में पकड़ लिया गया।
यह समय हमारे लिये मुश्किल का समय था। समझ में नहीं आता था कि पिता कब छूटेंगे। इस बीच, मित्रों, नातेदारों ने मुंह मोड़ लिया था। लोग देख कर कतराते थे। उनको डर लगता था कि कहीं उन्हें ही न पकड़ लिया जाय। मां यह समझती थीं। उन्होंने खुद ही ऐसे रिश्तेदारों और मित्रों को घर से आने के लिये मना कर दिया ताकि उन्हें शर्मिंदगी न उठानी पड़े। मुझे ऐसे लोगो से गुस्सा आता था। मैंने बहुत दिनो तक अपने घर कर बाहर पोस्टर लगा रखा था,
अन्दर संभल कर आना,इस मुश्किल समय पर कइयों ने हमारा साथ भी दिया। उन्हें भूलना मुश्किल है और उन्हें भी जो उस समय डर गये थे। इन डरने वालों में से ज्यादातर वे लोग थे जो उस समय के पहले या आज स्वतंत्रता प्रेमी होने का दावा करते हैं। इस समय में न्यायालयों के द्वारा दिये गये फैसलों को आप देखें तो यह बात, शायद अच्छी तरह से समझ सकें।
यहां डिटेंशन ऑर्डर रद्दी की टोकड़ी पर पड़े मिलते हैं।
दो साल (१९७५-७७) हमने न कोई पिक्चर देखी, न ही आइसक्रीम खायी, न ही कोई दावत दी, न ही किसी दावत पर गये। पैसे ही नहीं रहते थे। अक्सर लोग, हमसे उस समय भी पैसे मांगने आते थे। उन्हें भी मना नहीं किया जा सकता था वे भी मुश्किल में थे, उनके प्रिय जन भी जेल में थे।
आपातकाल के समय, कई लोग माफी मांग कर जेल से बाहर आ गये पर पिता ने नहीं मांगी। उनका कहना था,
'मैंने कोई गलत काम नहीं किया। मैं क्यूं माफी मांगू। माफी तो सरकार को मागनी चाहिये।'यह हुआ भी। आज उस समय के से जुड़े लोगों ने यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया कि उस समय गलत हुआ। पिता लगभग दो साल तक जेल में रहे। १९७७ के चुनाव के बाद पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी, चुनाव हार गयी तभी वे छूट पाये।
उच्च न्यायालय ने तो हमारा साथ दिया पर सर्वोच्च न्यायालय ने हमें शर्मिन्दा किया। प्रसिद्ध न्यायविद सीरवाई बहुत साल तक महाराष्ट्र राज्य के महाधिवक्ता रहे और आपकी भारतीय संविधान पर लिखी पुस्तक अद्वतीय है। इस पुस्तक में वे कहते हैं कि,
‘The High Courts reached their finest hour during the emergency; that brave and courageous judgements were delivered; ... the High Courts had kept the doors ajar which the Supreme Court barred and bolted’. (Constitution of India: Appendix Part I The Judiciary Of India)
आपातकाल का समय, उच्च न्यालयों के लिये सुनहरा समय था। उस समय उन्होने हिम्मत और बहादुरी से फैसले दिये। उन्होने स्तंत्रता के दरवाजों को खुला रखा पर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे बन्द कर दिया।आपातकाल के बाद, वे सब हमारे पास पुन: आने लगे जिन्होंने हमसे मुंह मोड़ लिया था। मां, पिता ने उन्हें स्वीकार कर लिया, हमने भी। सरकार ने पिता को राजदूत बनाकर विदेश भेजने की बात की पर उन्होने मना कर दिया। वे अपने सिद्घान्त के पक्के थे। आपातकाल के समय न माफी मांगी और न ही बाद में कोई पद लिया। उनका कहना था,
'मैंने समाज सेवा किसी पद के लिये नहीं की।'पिता यदि चाहते तो बहुत पद मिल सकते थे हमारे लिये बहुत कुछ कर सकते थे पर कभी किया नहीं। सबके पिता करते थे इसीलिये हमें वे समझ में नहीं आते थे। उनका कहना था,
'जो करना है वह अपने बल बूते पर करो। यही जीवन, सार्थक जीवन है।'
हमारे बचपन में टेप रिकॉर्डर अजूबा थे। १९६० दशक के शुरुवाती सालों में हमने अपना पहला टेप-रिकॉर्डर खरीदा। उसी शाम, हम सब उत्साहित होकर उसे चलाने लगे। मेरे पिता भी आ गये। जब हमने उनसे उनकी प्रिय कविता सुनाने ले लिये कहा, तब उन्होंने गोपालदास 'नीरज' की यह कविता सुनायी।
एक दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी,
अटल विश्वास बन कर जी,
अमर युग गान बन कर जी ।
यही उनके जीवन का दर्शन था, वे इसी तरह से जिये, यही हमें शिक्षा मिली।
आज, जीवन के तीन चौथाई बसन्त देख लेने के बाद, अब पिता समझ में आने लगे हैं, उनके सिद्धान्त भी समझने लगा हूं, उन पर गर्व भी होने लगा है। आज मुझे अच्छा लगता है, गर्व भी होता है कि मेरे पिता ऐसे थे।
उन्मुक्त की पुस्तकों के बारे में यहां पढ़ें।
सांकेतिक शब्द
। culture, Family, Inspiration, life, Life, Relationship, Etiquette, जीवन शैली, समाज, father's day, कैसे जियें, जीवन, दर्शन, जी भर कर जियो, तहज़ीब,
आपको लगता नहीं कि आपके पास इतने संस्मरण हैं - कि आपको फिर से यहाँ अति सक्रिय होकर उन्हें यहाँ लिपिबद्ध किया जाना चाहिए?
ReplyDeleteउम्र के साथ, कुछ जीवन सुस्त हो गया, कुछ ज़न्दगी को को नयी तरह से ढ़ालने में, नये धारे पिरोने में समय मिलना कम हो गया। कोशिश करूंगा कि लिखूं।
Deleteप्रणाम स्वीकार कीजियेगा
ReplyDeleteफिर से पढ़ा योग्य पुत्र के हाथों एक योग्यतम पिता की दास्तान
ReplyDeleteवंदन है ऐसे पिता को।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
aap ke sansamaran padhakar housala milata hai ...
ReplyDeleteBade dino bad aapke blog per aana hua aur jaan kar behad khushi hui ki aap sakriya hein. Hriday sprashi sansmaran. Aapde rubroo milne ki hamesha se khwahish rahi hei, shayad kabhi poori ho. Shesh fir.
ReplyDeleteमैं उतना सक्रिय नहीं हूं जितना पहले पर फिर भी कोशिश करता हूं।
DeleteNice reminiscence . Reading this article very late ...
ReplyDeleteGlad to know about your father...
And also glad to know about your mother .... Which university did she pass out ... that you haven't mentioned...
ReplyDeleteबनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
Deleteसर, अच्छा होता कि आप पिताजी के नाम के साथ लिखते तो हम लोगों को और भी प्रेरणा मिलती।
ReplyDeleteबहुत प्रेरणादायक संसमरण है सर् ऐसी हस्ती को सलाम । इस लाइन से सहमत नही हो पा रहा "उस समय देश की पुलिस और कार्यपालिका से सरकारी तौर पर जितना झूट बुलवाया गया उतना अभी तक कभी नहीं" अभी जो झूठ बोलवाया जा रहा है वो आपातकाल से कम नही है। आज जेलों में बंद पिताओं के पुत्र जब ऐसे संस्मरण लिखेंगे तो उनमें सिर्फ मीसा की जगह रासुका और यूएपीए लिखा जाएगा बाकी सब कुछ ऐसा ही होगा।
ReplyDeleteअक्सर लोग किसी भी समय को इमेरजेन्सी कह देते हैं। लेकिन, जिसने इमेरजेन्सी का समय देखा और भोगा नहीं वह उस समय की कल्पना नहीं कर सकता। मैंने दोनो समय देखे और भोगे है। यह समय उस समय से बहुत बेहतर है। इस समय आप बहुत कुछ कह सकते हैं, न्यायायलय जा सकते हैं उस समय नहीं। वह समय ही कुछ और था।
Deleteमाफ कीजिएगा सर ,पर मेरे पिताजी आपके पिताजी से अच्छे थे✍️
Deleteप्रेरणास्पद। उनके वकालती संस्मरण भी लिखें। प्रणाम।
ReplyDeleteNice memories 🙏
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