यह चिट्ठी महावीर सिंह फोगट की जीवनी 'अखाड़ा' एवं उनके जीवन पर बनी फिल्म 'दंगल' की समीक्षा है।
छः बहने, अन्तरराष्ट्रीय स्तर की पहलवान, वह भी हरयाणा जैसे प्रदेश, जहां स्त्री-पुरुष अनुपात देश में सबसे कम, के एक गांव से - असंभव। लेकिन इसे संभव कर दिखाया महावीर सिंह फोगट, उनके जोश और लगन ने। फोगट बहनों की कहानी, दुनिया के किसी आश्चर्य से कम नहीं है।
महावीर सिंह फोगट के पिता स्वयं एक पहलवान थे। उन्होंने अपने बेटे महावीर को चन्दगी राम के अखाड़े में पहलवानी सीखने लिये इस लिये भेजा कि यदि वह उसमें कुछ अच्छा करता है तो उसे सरकारी नौकरी मिल जायगी। महावीर ने कुश्ती में नाम कमाया और सरकारी नौकरी भी मिली पर रास नहीं आयी। वह वापस गांव में आ गया।
गांव वापस आ कर, भूमि-भवन बिक्री व्यापार भी किया, थोड़ा बहुत पैसा भी कमाया लेकिन लगा कि यदि वह अपनी बेटीयों को कुश्ती सिखाये, और वे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सोने का मेडल जीत सकें तब वे नाम और शोहरत पा सकती हैं। बस इसी लगन, इसी जोश ने इस कमाल को संभव कर दिखाया।
केडी सिंह 'बाबू', जब ही हमारे कस्बे में आते थे, तब हमारे साथ रुकते थे। उनके आराम और सहूलियत का जिम्मा मेरे पास होता था। वे मुझसे कहते थे कि गदहा कभी दौड़ने वाला घोड़ा नहीं बन सकता, दौड़ने वाला घोड़ा तो पैदा होता है और दौड़ने वाला घोड़ा भी रेस नहीं जीत सकता जब तक कि उसमें लगन न हो, वह मेहनत न करे। बिना मेहनत के कोई अच्छा खिलाड़ी नहीं बन सकता।
महावीर सिंह फोगट की बेटियों और भतीजियों में पहलवान बनने के वशांणु (genes) तो थे बस उन्हें मेहनत की जरूरत थी, जरूरत थी किसी को उन्हें निखारने की। जिसकी जिम्मेवारी महावीर सिंह ने ली। इसी लगन और मेहनत को, सौरभ दुग्गल ने अपनी पुस्तक 'अखाड़ा' में लिखा है और नितेश तिवारी ने अपनी फिल्म 'दंगल' में दिखाया गया है।
मुझे पुस्तक अच्छी लगी। इसकी अंग्रेजी सरल है और तेज चलती है - छोड़ने का मन नहीं करता। एक बार उठायी तो पढ़ता ही चला गया, समाप्त करके ही उठा।
फिल्म में, यह सब बेहतरीन तरीके पर्दे पर उतारा गया है। इसे मसालेदार बनाने के लिये, कुछ तथ्यों को बदला गया है। लेकिन इसे अनदेखा किया जा सकता है। फिल्म के डायलॉगों में हरियाणवी उच्चारण का पुट है जो न केवल इसे कर्णप्रिय बनाता है पर फिल्म को रोचकता प्रदान करता है। फिल्म में आसू न बहें - ऐसा तो हो नहीं सकता। बाहर आते समय आपकी आंखें नम तो होंगी ही, रुमाल ले जाना न भूलें।
मुझे फिल्म के बीच मुन्ना की बहुत याद आयी। बहुत सारे दृश्यों में, उसके बचपन की यादें ताज़ा हो गयी। मै स्वयं राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी तो नहीं था पर राज्य स्तर तक तो पहुंचा था। मुन्ने को खेल की दिशा में तो नहीं ले जा पाया। लेकिन उसे हमेशा बाहर खेलने के लिये उत्साहित किया और शाम को हमेशा उसके साथ खेलने के लिये गया। यदि हमने बहुत सी रातें आकाश में तारों को देखते बितायीं तो शामें, क्रिकेट के मैदान पर, या बैडमिन्टन और स्क्वौश के कोर्ट पर। अगली बार, जब हम साथ होंगे, तब इस फिल्म को साथ-साथ देखेंगे।
पुस्तक पढ़ने योग्य है इस पढ़ें और अपने मुन्ने और मुन्नी को भी पढ़ने के लये दें। फिल्म भी अवश्य देखें लेकिन अपने बेटों और बेटियों को साथ ले जाना न भूंले।
दंगल फिल्म का ट्रेलर और इस चिट्ठी के शीर्षक का डायलॉग
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आभार इस समीक्षा के लिए। सचमुच दोनों कृतियाँ बेहतरीन और अविस्मरणीय हैं और प्रेरणा संचार करती हैं ।
ReplyDeleteयह वाक्य शायद विवादास्पद हो जाय -"महावीर सिंह फोगट की बेटियों और भतीजियों में पहलवान बनने के वशांणु तो थे बस उन्हें मेहनत की जरूरत थी,"
दरअसल यह स्थापना लैमार्क की थी ,डार्विन के विकास सिद्धांत के मुताबिक़ उत्परिवर्तनीय कारणों को छोड़कर वंशाणुओं में बदलाव बहुत लंबे समय में होते हैं -एक दो पीढ़ियों में नहीं! वैसे नए अध्ययन सांस्कृतिक प्रभावों को भी जीनोम में आमेलित होने पर प्रकाश डाल रहे हैं जिन्हें एपिजेनेटिक्स के नए शास्त्र के अधीन रखा गया है तथापि पेशागत गुणों का पीढी दर पीढी आनुवांशिक अंतरण अभी भी स्वीकार्य नहीं है। कृपया वंशाणु की जगह संस्कार लिखने पर विचार करना चाहें!
मैं वास्तव में जीन्स शब्द प्रयोग करना चाह रहा थ। लेकिन यह अंग्रेजी का शब्द है। हिन्दी का अनुवाद देखने में केवल वशांणु ही समझ में आया इसलिये इसका प्रयोग किया। अब अंग्रेजी में genes भी लिख दिया है।
Deleteयह बात बहस की है कि आस-पास का परिवेश, पालन-पोषण, संस्कार ज्यादा महत्वपूर्ण हैं कि जीन्स। कुछ के हिसबा से जीन्स और कुछ के हिसाब से आस-पास का परिवेश, पालन-पोषण, संस्कार। मेरे विचार में दोनो महत्वपूर्ण हैं। आप किसी भी क्षेत्र अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सफल नहीं हो सकते जब तक कि आपके पास दोनो न हो।
यदि आपके पास जीन्स नहीं हैं तब चाहे आप कितनी भी मेहनत कर लें, आपका परिवेश चाहे जो हो, आपका लालन पोषण चाहे जैसा हुआ हो, आप सफल खिलाड़ी नहीं हो सकते। हम में से अधिकतर लोग चाहे जितनी मेहनत कर लें, चाहे जो भी संस्कार या परिवेश हो पर ध्यानचन्द जैसा हॉकी नहीं खेल सकते। वैसे तो बिरले ही पैदा होते हैं वे भी तभी ध्यानचन्द बनेगें जब उनमें लगन हो और मेहनत करें।
फोगेट बहनों के बाबा सफल पहलवान थे। इसलिये उनमें जीन्स तो थे। शायद उनके भाई के पास नहीं। दोनो को संस्कार वही मिले। मेहनत कराने वाला भी वही। लेकिन सफल तो केवल फोगेट बहनें ही हो पायीं।
सही कह रहे हैं सर, फ़िल्म देखते हुये मेरी भी आँखे नम हुई थी।
ReplyDeleteजीन्स के सम्बन्ध में मेरे लिए नई जानकारी।
सर फिल्म देख ली है, आपकी समीक्षा पढ़ने के बाद किताब भी मंगानी पड़ेगी
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा article है। .... Thanks for sharing this!! :)
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