Sunday, December 31, 2006

मुजरिम उन्मुक्त, हाजिर हों

'उन्मुक्त आप मुजरिम हैं हिन्दी चिट्ठाजगत की अदालत में हाजिर हों।'
'मैं और मुजरिम, अरे मैंने क्या जुर्म किया है?'
'आपने हरिवंश राय बच्चन की चार भागो में लिखी
जीवनी की समीक्षा करते हुऐ कॉपीराईट का उल्लघंन किया है। इसकी आखरी पोस्ट यहांं है। यह लिखते समय आपने हरिवंश राय बच्चन के कॉपीराईट का उल्लघंन किया है। इसके सबूत में चिट्ठाचर्चा की यह चर्चा पेश है, जिसमें कहा गया है कि,
"उन्मुक्त जी, देख लीजिएगा, शायद बच्चन साहब की आत्मकथा कापीराइट की श्रेणी मे आती है, कंही लेने के देने ना पड़ जाएं।"'
'मी लौर्ड मैं अपने बचाव में अपने वकील मित्र इकबाल को पेश करना चाहता हूं'
'आपको इजाजत दी जाती है'

माई लॉर्ड, मेरा नाम इकबाल है। मैं उन्मुक्त का सहपाठी और वकील हूं। मेरा मुवक्किल निर्दोष है। बचाव में दलील यह है कि,
'यह सच है कि हिन्दी चिट्ठों वा हिन्दी समूहों में कभी, कभी कानून का उल्लघंन होता है पर यह अनजाने में, कानून न जानने के कारण होता है। लेकिन जहां तक मेरे मुवक्किल उन्मुक्त की बात है इसके चिट्ठे की किसी भी चिट्टी पर कोई भी कानून का उल्लघंन नहीं है।

दुनिया का हर कॉपीराईट का कानून, किसी भी कॉपीराईट का उचित प्रयोग करने कि अनुमति देता है, क्योंकि यह सार्वजनिक हित में है और कॉपीराईट का ठीक तरह विकास करने में सहायक है। यही कारण है कि जब कभी कोई पुस्तक, या फिल्म, या गाने की समीक्षा होती है तो उस संदर्भ में कॉपीराईट कार्य के कुछ अंश को उध्दृत किया जा सकता है और किया जाता है। भारतीय कॉपीराईट अधिनियम की धारा ५२ भी इसी तरह तथा कुछ और सुरक्षा प्रदान करती है। मेरे मुवक्किल की चिट्ठियों में कोई गलती नहीं है। इसे बा-इज्जत बरी किया जाय'

यह सच है कि दुनिया भर के कॉपीराईट कानून इस तरह से कॉपीराईट का उचित प्रयोग करने देते हैं। हर देश में यह कानून हमेशा से था पर अब यह ट्रिप्स के कारण लाज़मी हो गया है। मैंने पेटेंट के बारे में लिखते समय ट्रिप्स का जिक्र किया था। यह विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation) (WTO या डब्लू.टी.ओ.) के चार्टर में का एक समझौता हैं। यह बौद्धिक सम्पत्ति के अधिकारों के न्यूनतम मानकों को तय करता है और सदस्य देशों को उसके अनुपालन के लिए बाध्य करता है । हम तथा विश्व के लगभग सभी देश डब्लू. टी. ओ. के सदस्य हैं इसलिए इन सब देशों को बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार के कानून में कम से कम वह सुविधायें देनी होंगी जो इसमें लिखी हैं।

ट्रिप्स का अनुच्छेद ९, ट्रिप्स का बर्न कन्वेंशन से संबन्ध दर्शाता है। यह इस प्रकार है,
Article 9
Relation to the Berne Convention
1. Members shall comply with Articles 1 through 21 of the Berne Convention (1971) and the Appendix thereto. However, Members shall not have rights or obligations under this Agreement in respect of the rights conferred under Article 6 bis of that Convention or of the rights derived therefrom.
2. Copyright protection shall extend to expressions and not to ideas, procedures, methods of operation or mathematical concepts as such.
अथार्त सदस्य देशों को बर्न कन्वेंशन १९७१ के अनुच्छेद १ से २१ का और इसके परिशिष्ट का अनुपालन करना होगा।

बर्न कन्वेंशन १९७१ का अनुच्छेद १० इस प्रकार है।
Article 10
(1) It shall be permissible to make quotations from a work which has already been lawfully made available to the public, provided that their making is compatible with fair practice, and their extent does not exceed that justified by the purpose, including quotations from newspaper articles and periodicals in the form of press summaries.
(2) It shall be a matter for legislation in the countries of the Union, and for special agreements existing or to be concluded between them, to permit the utilization, to the extent justified by the purpose, of literary or artistic works by way of illustration in publications, broadcasts or sound or visual recordings for teaching, provided such utilization is compatible with fair practice.
(3) Where use is made of works in accordance with the preceding paragraphs of this Article, mention shall be made of the source, and of the name of the author if it appears thereon.
अथार्त किसी भी सार्वजनिक कार्य से उध्दरण देना संभव रहेगा यदि वह उसका उचित प्रयोग है लेकिन इस दशा में जहां से उध्दरण लिया गया है और लेखक का नाम देना आवश्यक होगा।

संक्षेप में, हर देश जो कि डब्लू.टी.ओ. का सदस्य है उसे कॉपीराईट का उचित प्रयोग करने की अनुमति देनी होगी अन्यथा उस देश का कानून गलत होगा एवं इन सब देशों के कानून की जब व्याख्या की जायेगी तब उसे ट्रिप्स के परिपेक्ष में देखा जायगा।

भारत, डब्लू.टी.ओ. का सदस्य है, इसके कॉपीराईट अधिनियम की धारा भी इसी परिपेक्ष में पढ़ी जायगी। मैंने बच्चन जी की जीवनी जो कि चार बड़ी, बड़ी पुस्तकों के रूप में है कि समीक्षा की है और इसी संदर्भ में पुस्तक के कुछ अंश उध्दृत किये हैं मैंने बर्न कन्वेंशन के अनुच्छेद १०(३) के मुताबिक किताब का नाम तथा लेखक का नाम भी लिखा है।

मैं इसका निर्णय हिन्दी चिट्ठे जगत पर छोड़ता हूं।

मेरे द्वारा बच्चन जी की जीवनी पर लिखी गयी चिट्ठियों पर कानून के अलावा कुछ और भी पहलू हैं:
  • मेरे किसी भी चिट्ठे पर कोई भी विज्ञापन नहीं है। न ही मैं इससे कोई पैसा कमा रहा हूं। मेरा इससे कोई फायदा नहीं हुआ। हां इस चर्चा से, कुछ लोगों को इन पुस्तकों के बारे में अवश्य जानकारी हो गयी होगी। इससे कुछ इन पुस्तकों का विज्ञापन ही हुआ होगा। हांलाकि बच्चन जी के कुछ प्रेमी मुझसे रुष्ट हो गये होंगे क्योंकि जो बात मुझे पसन्द नहीं आयी, उसके बारे में मैंने स्पष्ट रूप से कहा। यह भी सच है कि मुझे उनकी कई बातें पसन्द नहीं आयी और मुझे लगा कि बड़े व्यक्ति में कुछ और गुण होते हैं - शायद फाइनमेन में हैं जिनके बारे में मैंने यहां लिखा है। इनके पत्रों की पुस्तक 'Do you have time to think?' की समीक्षा कई कड़ियों में इसी चिट्ठे पर की है। इन कड़ियों की आखरी पोस्ट यहां है। इसके पश्चात इन्हें संकलित कर अपने लेख चिट्ठे पर यहां रखा है;
  • मेरे चिट्ठे पर लिखे लेख बच्चन जी के लेख की कोटि के तो नहीं हैं पर जो भी है वह सब कॉपीलेफ्टेड हैं। मैं विचारों की स्वतंत्रता का पक्षधार हूं और उन्हें लोगो के साथ बाटने एवं उनके विचार जानने की बात करता हूं। इसीलिये मैं सब को, अपनी चिट्ठियों को इसी प्रकार से या संशोधन कर बांटने की स्वतंत्रता भी देता हूं - चाहे वे इसका श्रेय मुझे दें या नहीं। विचारों को सीमित कर रखना मुझे पसन्द नहीं। बच्चन जी ने अपने तथा पन्त जी के विवाद पर चर्चा करते समय लिखा है कि,
    'अगर आपके पास मेरे पत्र पड़े हों और आप उन्हें कभी छपाना चाहें तो मैं कभी आप से नहीं कहूँगा कि पहले मुझे उन्हें सेंसर करने दीजिए।'
    बच्चन जी इस तर्क पर मुझे भी, कम से कम, उनके लेखों के कुछ अंश का उनके नाम के साथ प्रयोग करने में इन जीवनी के कॉपीराईट स्वामी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये;
  • बच्चन जी के लेखों के कॉपीराईट स्वामी को कभी कोई आपत्ति हुई तो मुझे बच्चन जी की जीवनी से उध्दृत अंशो को मिटाने में या पूरी चिट्ठी मिटाने में देर नही लगेगी;
  • किताबें तो नश्वर हैं आज हैं कल समाप्त। यह चिट्ठे तो अमर हैं। इन चिट्ठों के साथ, कम से कम इन पुस्तकों की चर्चा जब तक रहेगी जब तक रहेगा यह अन्तरजाल।
इसके बाद भी यदि चिट्टा चर्चा में व्यक्त की गयी शंका के मुताबिक यदि लेने के देने पड़ जायें तो मुझे देने में कभी भी आपत्ति नहीं होगी - न तो इसमें झगड़ा करुगां न ही मुकदमे बाजी।

जब तक रहेंगे सूरज तारे,
जब तक रहेगी पृथ्वी हमारी,
तब तक रहेगा यह अन्तरजाल।
तभी तक रहेंगे यह चिट्ठे सारे,
तब तक रहेगी इन चिट्ठों के संग,
इन पुस्तकों की चर्चा।
अमर हो गये हम सब,
अपने चिट्ठों के संग।
साथ, अमर हो गयीं चिट्ठियां हमारी।

इसी पोस्ट के साथ, वर्ष २००६ को, मुजरिम उन्मुक्त का अलविदा - फिर मिलेंगे नये साल में, नयी बातें, नये विचारों के साथ। नये साल में, हिन्दी चिट्ठे जगत को वह सम्मान मिले - जिसे हम सब चाहते हैं, जिसकी हम सब आशा करते हैं।

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम

भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर

भाग -४ दशद्वार से सोपान तक
ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चन
बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा
तेरवीं पोस्ट: नारी मन
चौदवीं पोस्ट: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र

यह पोस्ट: मुजरिम उन्मुक्त, हाजिर हों

Tuesday, December 26, 2006

बच्चन – पंत विवाद

हरिवंश राय बच्चन भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं
भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता, सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी नवीं पोस्ट: नियम
भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर
भाग -४ दशद्वार से सोपान तक

ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चन बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा तेरवीं पोस्ट: नारी मन चौदवीं पोस्ट: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र पंद्रवीं पोस्ट: अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा सोलवीं तथा अन्तिम यह पोस्ट: बच्चन – पंत विवाद

Monday, December 25, 2006

हस्तरेखा विद्या: ... और टोने-टुटके

ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके
पहली पोस्ट: भूमिका
दूसरी पोस्ट: तारे और ग्रह
तीसरी पोस्ट: प्राचीन भारत में खगोल शास्त्र
चौथी पोस्ट: यूरोप में खगोल शास्त्र
पांचवीं पोस्ट: Hair Musical हेर संगीत नाटक
छटी पोस्ट: पृथ्वी की गतियां
सातवीं पोस्ट: राशियां Signs of Zodiac
आठवीं पोस्ट: विषुव अयन (precession of equinoxes): हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ
नवीं पोस्ट: ज्योतिष या अन्धविश्वास
दसवीं पोस्ट: अंक विद्या, डैमियन - शैतान का बच्चा
ग्यारवीं पोस्ट: अंक लिखने का इतिहास
यह बारवीं तथा अन्तिम पोस्ट: हस्तरेखा विद्या

इरविंग वैलेस कल्पित (fiction) उपन्यास के बादशाह हैं, पर उनका मन हमेशा अकल्पित (non-fiction) लेख लिखने में रहता है। उनके अनुसार वे कल्पित उपन्यास इसलिये लिखते हैं क्योंकि उसमें पैसा मिलता है। उन्होंने बहुत सारे अकल्पित लेख लिखे हैं। इन लेखों को मिलाकर एक पुस्तक निकाली है, उसका नाम है, The Sunday Gentleman यह पुस्तक पढ़ने योग्य है। इसमें एक लेख The Incredible Dr. Bell के नाम से है। यह लेख डा. जोसेफ बेल के बारे में है।

डा. जोसेफ बेल वे 19वीं शताब्दी के अंत तथा 20वीं शताब्दी के शुरू में, एडिनबर्ग में सर्जन थे और एक वहां के विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे। वे हमेशा अपने विद्यार्थियों को कहते थे कि लोग देखते हैं पर ध्यान नहीं देते। यदि आप किसी चीज को ध्यान से देखें तो उसके बारे में बहुत कुछ बता सकते हैं। उन्होंने बहुत सारे विद्यार्थी को पढ़ाया, उनमें से एक विद्यार्थी का नाम था आर्थर कैनन डॉयल, जो कि शर्लौक होल्मस के रचयिता हैं।

इस लेख में डा. बेल के बहुत सारे उदाहरण बताये गये हैं जब उन्होंने किसी व्यक्ति को देखकर उसके बारे में बहुत कुछ बता दिया। शर्लोक होल्मस एक जासूस थे और कहानियों में ध्यान पूर्वक देखकर बहुत कुछ सुराग ढूढ कर हल निकालते थे। आर्थर कैनन डॉयल ने जब शर्लोक होल्मस की कहानियां लिखना शुरू किया तो उसका चरित्र डा. बेल के चरित्र पर ढाला और डा. वाटसन का चरित्र अपने ऊपर ढाला।

यदि आप किसी कागज को मोड़ें तो हमेशा पायेंगे कि उस कागज को जहां से मोड़ा जाता है, उसमें चुन्नट (Crease) पड़ जाती है। इस तरह से जब हम हंथेली को मोड़ते हैं तो जिस जगह हमारी हथेली मुड़ती है, उस जगह एक चुन्नट, रेखा के रूप में पड़ जाती है। हथेलियों की रेखायें, हाथ के मुड़ने के कारण ही पड़ती हैं।

हम किसी के हाथ को ध्यान से देखें तो कुछ न कुछ उस व्यक्ति के बारे में पता चल भी सकता है। शायद यह भी पता चल जाय कि वह व्यक्ति बीमार है या नहीं। पर उसकी हंथेली की रेखाओं को देखकर यह बता पाना कि उस व्यक्ति की शादी कब होगी, वह कितनी शादियां करेगा, कितने बच्चे होंगे, या नहीं होंगे। यह सब बता पाना नामुमकिन है। यह सब भी ढकोसला है।

निष्कर्ष
मैंने पिछली पोस्टों पर यह बताने का प्रयत्न किया कि ज्योतिष, अंक विद्या, और हस्त रेखा विद्या में कोई भी तर्क नहीं है, फिर भी हमारे समाज में बहुत सारे काम इनके अनुसार होते हैं। बड़े से बड़े लोग इन बातों को विचार में रख कर कार्य करते हैं।

इनका एक कारण मुझे यह समझ में आता है कि यह सब कभी कभी एक मनश्चिकित्सक (psychiatrist) की तरह काम करते हैं। आप परेशान हैं कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें। मुश्किल तो अपने समय से जायगी पर इसमें अक्सर ध्यान बंट जाता है और मुश्किल कम लगती है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि इनमें कोई सत्यता है या यह अन्धविश्वास नहीं है या फिर टोने टुटके से कुछ अलग है।

मैं इन सब बातों पर विश्वास तो नहीं करता पर कोई मेरे बारे में अच्छी बात करे, तो सुन लेता हूं। कोई खास व्यक्ति हाथ पकड़ कर बताये तो क्या बात है। हां कभी मेले में आप मुझे किसी चिड़िया से अपना भाग्य
बंचवाते भी देख सकते हैं जैसा कि यहां पर हो रहा है :-)

मैनें यह सब कुछ लोगो के द्वारा टोने टुटके के चिट्ठे पर की गयी आपत्ति के कारण लिखना शुरु किया। अधिकांश लोग टोने टुटके पर कुछ अंश तक विश्वास करते हैं इसलिये यदि कोई टोने टुटके के बारे में लिखे तो लिखे, जिसे पढ़ना हो पढ़े, जिसे न पढ़ना हो वह न पढ़े। हमसे किसी ने भी, किसी और के दिमाग ठेका नहीं ले रखा है।


इसी चिट्ठी के साथ यह श्रंखला भी समाप्त होती है।

Saturday, December 23, 2006

गणित: ... time to think? चुनाव प्रचार

Don’t you have time to think?
पहली पोस्ट: पुस्तक - Don’t you have time to think?
दूसरी पोस्ट: पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा
तीसरी पोस्ट: गायब
चौथी पोस्ट: मानद उपाधि
पांचवीं पोस्ट: खेलो, कूदो और सीखो
छटी पोस्ट: अधिकारी, विशेषज्ञ
सातवीं पोस्ट: काम से ज्यादा महत्व, उसे करने में है
यह आठवीं वा इस विषय पर अन्तिम पोस्ट: गणित

भौतिक शास्त्र मेरा प्रिय विषय था। मुन्ने की मां को गणित अच्छी लगती है। मैं हमेशा कहता हूं कि भौतिक शास्त्र तो रानी है और गणित नौकरानी - जहां चाहो लगा लो। गणित के यही गुण गणित को राजरानी बनाते हैं क्यंकि विज्ञान में इसके बिना ठौर नहीं।

फ्रेड्रिक हिप्प १६ साल के नवयूवक ने १९६१ में फाइनमेन को पत्र लिख कर बताया कि भौतिक शास्त्र उसे अच्छा लगता है पर गणित पसंद नहीं आती है। वह क्या करे। फाइनमेन ने उसे लिखा कि,
'To do any important work in physics a very good mathematical ability and aptitude are required. Some work in applications can be done without this, but it will not be very inspired.
If you must satisfy your “personal curiosity concerning the mysteries of nature” what will happen if these mysteries turn out to be laws expressed in mathematical terms (as they do turn out to be )? You cannot understand the physical work in any deep or satisfying way without using mathematical reasoning with facility.'
मुझे तो मालुम है कि मुन्ने की मां तो हमेशा सही रहती है, उससे जीत पाना संभव नहीं।

इसी पोस्ट के साथ 'Do you have time to think?' पुस्तक की समीक्षा समाप्त होती है। बच्चन जी की जीवनी के चारों भाग की समीक्षा अपने अन्तिम चरण में है, इसकी भी आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण कड़ी लिखनी है जिसमें जिक्र रहेगा पन्त जी बच्चन जी विवद पर चर्चा।शीघ्र ही कोई दूसरी पुस्तक पढ़ कर आपके सामने प्रस्तुत करूगां तब तक चलिये चुनाव की सरगर्मी में भाग लेते हैं।

चुनाव प्रचार
भाईयों और बहनो (मुन्ने की मां को छोड़ कर)
मैं भी २००६ के सर्वश्रेष्ठ उभरते हुऐ चिट्ठाकार चुनाव का उम्मीदवार हूं, कृपा दृष्टि बनाये रखियेगा। जीतने पर मेरा वायदा:
  • मैं २००७ में, साल भर आपको पोस्ट लिख कर बोर करूगां;
  • यदि आपको नींद नहीं आती है नींद आने की शर्तिया दवा। कुछ और करने की जरूरत नहीं - बस केवल मेरी पोस्टें पढ़िये, नींद तुरन्त आयेगी;
  • मैंने एक कैमरा भी खरीद लिया है २००७ में चित्रों से भी बोर करूंगा।
मैं नहीं समझता हूं इससे अच्छा किसी और का चुनाव प्रचार है: एकदम छोटा, लेकिन to the point.

आजकल, मुन्ने की मां का मूड ऑफ है। उसने भी २००६ में लिखना शुरू किया। आप में किसी ने मेरा तो नॉमिनेशन कर दिया पर उसका नहीं किया। कह रही है कि मैं अब कोई पोस्ट नहीं लिखूंगी। चिट्ठेकार भैइया लोग तो मुझे मानते ही नहीं, किसी ने मेरा
नॉमिनेशन नहीं किया

उसका मूड ठीक करने के लिये,
मैंने ही चुपके से उसके नाम से अभी, अभी नॉमिनेशन कर दिया है। देर हो गयी है - चुनाव कानून सख्त होता है। मुझे मालुम है कि उसका नामांकन इसी बात पर खारिज हो जायगा पर मूड तो ठीक होगा। कम से कम चाय तो नसीब होगी, देखिये अभी बता कर हलवा बनवाता हूं।

Thursday, December 21, 2006

अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम

भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर

भाग -४ दशद्वार से सोपान तक
ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चन
बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा
तेरवीं पोस्ट: नारी मन
चौदवीं पोस्ट: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र
यह पोस्ट: अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा

कुछ दिन पहले हिन्दी चिट्ठजगत में अनुवाद सम्बन्धी नीति की चर्चा रही। यहां पर कुछ लिखा भी गया। बच्चन जी दिल्ली में विदेश मंत्रालय में अनुवाद करने का कार्य करते थे। वे अनुवाद की नीति के बारे में कहते हैं,
'भाषा सरल-सुबोध होगी
पर बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं
लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को
सही भी होना है।
और मेरा दावा है कि लिखित हिन्दी अंग्रेजी के ऊंचे से ऊंचे स्तर को छूने की क्षमता आज भी रखती है।'

वे भाषा के प्रथम आयोग के परिणामो के बारे में दुख प्रगट करते हुऐ कहते हैं कि,
'सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था कि १५ वर्ष तक यानी १९६५ तक अंग्रेजी की जगह पर हिंदी लाना न आवश्यक है, न संभव; सिद्धान्तत: हिंदी राजभाषा मानी जायगी, अंग्रेजी सहचरी भाषा; (व्यवहार में उसके विपरीत: अंग्रेजी राजभाषा, हिंदी सहचरी - अधिक उपयुक्त होगा कहना ‘अनुचरी’)। सरकारी प्रयास हिंदी के विभिन्न पक्षों को विकसित करने का होगा - प्रयोग करने का नहीं - जिसमें कितने ही १५ वर्ष लग सकते हैं। मेरी समझ में प्रयोग से विकास के सिद्धान्त की उपेक्षा कर बड़ी भारी गलती की गई; अंततोगत्वा जिसका परिणाम यह होना है कि हिंदी तैयारी ही करती रहेगी और प्रयोग में शायद ही कभी आए - “डासत ही सब निशा बीत गई, कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो"।'

मुझे बच्चन जी की यह बात ठीक लगती है। हिन्दी की दुर्दशा का यह भी एक कारण है।


अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Tuesday, December 19, 2006

बासमती चावल का झगड़ा: पेटेंट पौधों की किस्में एवं जैविक भिन्नता

पहला भाग: पेटेंट
दूसरा भाग: पेटेंट और कंप्यूटर प्रोग्राम
तीसरा भाग: पेटेंट पौधों की किस्में एवं जैविक भिन्नता
पहली पोस्ट: प्रस्तावना
यह पोस्ट: बासमती चावल का झगड़ा
अगली पोस्ट: गेहूं और हल्दी का लफड़ा

राइस टेक एक अमेरिकन कम्पनी है यह कासमती और टैक्समती के नाम से चावल बेच रही थी। १९९४ में राइस टेक ने २० तरह के बासमती चावल के लिए पेटेंट प्राप्त करने के लिए यू.एस. पेटेंट एण्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन (यू.एस.पी.टी.ओ.) में एक आवेदन पत्र दाखिल किया। यू.एस.पी.टी.ओ. ने १९९७ में सभी पेटेंटों को मंजूर कर दिया। हमने अप्रैल २००० में तीन पेटेंटों की पुन: परीक्षा के लिए एक आवेदन पत्र प्रस्तुत किया । यह आवेदन पत्र उच्चतम न्यायालय के Research Foundation for Science Technology & Ecology and others Vs. Ministry of Agriculture and others (1999) 1 SCC 655 में की गयी कार्यवाही के तहत किये गये।

राइसटेक ने इन तीन के साथ एक और पेटेंट को वापस ले लिया। बाद में राइसटेक से 11 अन्य पेटेंटों को भी वापस लेने के लिए भी कहा गया जो कि उसने वापस ले लिया। राइसटेक को पेटेंट का नाम भी Basmati Rice lines and Grains से बदल कर Bas 867 RT 1121 and RT 117 करना पड़ा पर अन्त में राइसटेक को अगस्त २००१ में बासमती पर पांच पेटेंट दिये गये।

बासमती चावल हिमालय की तराई में पैदा होता है। इसी तरह से इसके नाम का प्रचलन भी हुआ। यह विश्व के अन्य भाग में पैदा नहीं किया जाता है। किसी अन्य स्थान पर पैदा किया गया चावल को बासमती भी नहीं कहा जा सकता है। बासमती एक भौगोलिक सूचक है। हमने राइसटेक के आवेदन पत्र में पेटेंट के आधार पर आक्षेप किया था लेकिन बासमती का एक ‘भौगोलिक सूचक’ के रूप में दावा नहीं किया था। राइसटेक अमेरिका में पैदा किया गये चावल को, बासमती कहते हुए बेच सकता है। यह अजीब बात है कि अमेरिका में बासमती चावल पैदा हो सकता है।

हमने भौगोलिक उपदर्शन (रजिस्ट्रीकरण और संरक्षण) अधिनियम १९९९ बनाया है । हमें बासमती को एक भौगोलिक सूचक के रूप में दर्ज करना चाहिये फिर आगे कार्यवाही करनी चाहिये ताकि कोई भी इसके नाम का गलत लाभ न ले सके। अगली पोस्ट पर हम गेंहू पर उठे विवाद के बारे में चर्चा करेंगे।


अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Saturday, December 16, 2006

हरिवंश राय बच्चन: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम

भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर

भाग -४ दशद्वार से सोपान तक
ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चन
बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा
तेरवीं पोस्ट: नारी मन
यह पोस्ट: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र

यदि किसी के व्यक्तित्व का सही आंकलन करना है तो उसे मुश्किल के समय पर देखें न कि खुशहाली के समय पर। अपने देश काले समय का दौर आया: १९७५-७७ का समय। यह देश के लिये मुश्किल का समय था। लोगों को सही आंकलन, उस समय उनके बर्ताव से किया जा सकता है। इस समय कई बुद्धिजीवियों ने शासक दल का सर्मथन दिया। बच्चन जी उनमें से एक थे। बाद में शायद उन्हें इसका कुछ पछतावा रहा। वे इसे, इस तरह से समझाते दिखते हैं।
'एक दिन किसी ने मुझे प्रधान मंत्री निवास से फोन किया, शायद संजय ने, कि क्या मेरा नाम आपात्कालीन स्थिति के समर्थकों में दिया जा सकता है? और अगर मैं सच कहूँ तो केवल गांधी परिवार से अपनी मैत्री और निकटता के कारण मैंने फोन पर ही हामी भर दी। बाद को कई दिनों तक रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से कई और लेखकों के साथ मेरा नाम भी इमर्जेसी के समर्थकों में प्रसारित किया गया। जहाँ तक मुझे याद है, उनमें दो प्रमुख नाम थे गुरूमुख सिंह ‘मुसाफिर’ के और सरदार जाफरी के।'

मैंने उर्मिला की कहानी बताते समय इस विषय की पहली पोस्ट पर अपने सहपाठी इकबाल का जिक्र किया था जो कि वकील है। उसे इमरजेंसी के कई कटु अनुभव रहे। अमिताभ बच्चन ने भी इमरजेंसी को समर्थन दिया था इसीलिये उसने इमरजेंसी के समय से ही अमिताभ बच्चन की पिक्चरें देखना छोड़ दिया था। मैंने एक बार पूछा कि तुम्हारे एक व्यक्ति के पिक्चर न देखने से क्या होगा। उसने कहा कि,
'कुछ नहीं, पर कम से कम एक व्यक्ति तो उसके समर्थकों में से कम हुआ। इस बारे में विरोध जताने का यही सबसे अच्छा तरीका है।'
इकबाल फिर कभी पिकचर हॉल में, अमिताभ बच्चन की पिकचरें देखने नहीं गया। मालुम नहीं अब जाता है कि नहीं। क्योंकि अब तो गांधी परिवार ने भी इमरजेंसी के बारे में अपनी गलती स्वीकार के ली और बच्चन परिवार, नेहरू-गांधी परिवार से दूर चला गया।

बच्चन जी की सातवीं पोस्ट मांस मदिरा से परहेज पर इदन्नम्मन ने टिप्पणी कर पूछा था,
'उन्मुक्त जी कया आपने इनकी जीवनी में Rudiard Kipling की कविता पढी? अगर हाँ तो बताना कैसी लगी।'
बच्चन जी अपने जीवनी के चौथे भाग में बताते हैं कि वे 'बसेरे से दूर’ को लिखते समय टूटे-गिरेपन की हालत से गुजर रहा थे और इस परिस्थिति को संभलने के लिये उन्होने किपलिंग की ‘If’ शीर्षक कविता का सहारा लिया था। हालांकि इस कविता का जिक्र मुझे उनकी जीवनी के तीसरे भाग में नहीं मिला था। उन्होने इमरजेंसी के बाद यही कविता इंदिरा गांधी को चुनाव हार जाने के बाद, उनकी हिम्मत बढ़ाने के लिये भेजी थी।

मुझे यह कविता कैसी लगी?

कवितायें अक्सर गागर में सागर भरती हैं। मुझे कम समझ में आती हैं, शायद इसलिये कुछ कम अच्छी लगती हैं। मेरे विचार से किसी भी कृति का आनन्द, इस पर भी निर्भर करता है कि वह किस तरह से वह प्रयोग की गयी हो। बच्चन जी ने इस कविता का प्रयोग इमरजेंसी के बारे में जिक्र करते हुऐ लिखी है। आप खुद समझ सकते हैं मुझे यह कैसी लगी होगी।


अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Wednesday, December 13, 2006

अंक लिखने का इतिहास: ... टोने टुटके

ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके
पहली पोस्ट: भूमिका
दूसरी पोस्ट: तारे और ग्रह
तीसरी पोस्ट: प्राचीन भारत में खगोल शास्त्र
चौथी पोस्ट: यूरोप में खगोल शास्त्र
पांचवीं पोस्ट: Hair Musical हेर संगीत नाटक
छटी पोस्ट: पृथ्वी की गतियां
सातवीं पोस्ट: राशियां Signs of Zodiac
आठवीं पोस्ट: विषुव अयन (precession of equinoxes): हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ
नवीं पोस्ट: ज्योतिष या अन्धविश्वास
दसवीं पोस्ट: अंक विद्या, डैमियन - शैतान का बच्चा
यह पोस्ट: अंक लिखने का इतिहास
अगली पोस्ट: हस्तरेखा विद्या
अधिकतर सभ्यताओं में लिपि के अक्षरों को ही अंक माना गया। रोमन लिपि के अक्षर I को एक का अंक माना गया क्योंकि यह शक्ल से एक उंगली जैसा है। इसी तरह II को दो का अंक माना गया क्योंकि यह दो उंगलियों की तरह है। रोमन लिपि के अक्षर V को पांच का अंक माना गया। यदि आप हंथेली को देखे जिसकी सारी उंगलियां चिपकी हो और अंगूंठा हटा हो तो वह इस तरह दिखेगा। रोमन X को उन्होंने दस का अंक माना क्योंकि यह दो हंथेलियों की तरह हैं। L को पच्चास, C को सौ, D को पांच सौ और N को हजार का अंक माना गया। इन्हीं अक्षरों का प्रयोग कर उन्होंने अंक लिखना शुरू किया। इन अक्षरों को किसी भी जगह रखा जा सकता था। इनकी कोई भी निश्चित जगह नहीं थी। ग्रीक और हरब्यू (Hebrew) में भी वर्णमाला के अक्षरों को अंक माना गया उन्हीं की सहायता से नम्बरों का लिखना शुरू हुआ।

नम्बरों को अक्षरों के द्वारा लिखने के कारण न केवल नम्बर लिखे जाने में मुश्किल होती थी पर गुणा, भाग, जोड़ या घटाने में तो नानी याद आती थी। अंक प्रणाली में क्रान्ति तब आयी जब भारतवर्ष ने लिपि के अक्षरों को अंक न मानकर, नयी अंक प्रणाली निकाली और शून्य को अपनाया। इसके लिये पहले नौ अंको के लिये नौ तरह के चिन्ह अपनाये जिन्हें १,२,३ आदि कहा गया और एक चिन्ह ० भी निकाला। इसमें यह भी महत्वपूर्ण था कि वह अंक किस जगह पर है। इस कारण सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि सारे अंक इन्हीं की सहायता से लिखे जाने लगे और गुणा, भाग, जोड़ने, और घटाने में भी सुविधा होने लगी। यह अपने देश से अरब देशों में गया। फिर वहां से 16वीं शताब्दी के लगभग पाश्चात्य देशों में गया, इसलिये इसे अरेबिक अंक कहा गया। वास्तव में इसका नाम हिन्दू अंक होना चाहिये था। यह नयी अंक प्रणाली जब तक आयी तब तक वर्णमाला के अक्षरों और अंकों के बीच में सम्बन्ध जुड़ चुका था। जिसमें काफी कुछ गड़बड़ी और उलझनें (Confusion) पैदा हो गयीं।

इस कारण सबसे बड़ी गड़बड़ यह हुई कि किसी भी शब्द के अक्षरों से उसका अंक निकाला जाने लगा और उस शब्द को उस अंक से जोड़ा जाने लगा। कुछ समय बाद गड़बड़ी और बढ़ी। उस अंक वही गुण दिये जाने लगे जो कि उस शब्द के थे। यदि वह शब्द देवी या देवता का नाम था तो उस अंक को अच्छा माना जाने लगा। यदि वह शब्द किसी असुर या खराब व्यक्ति का था तो उस अंक को खराब माना जाने लगा। यहीं से शुरू हुई अंक विद्या: इसका न तो कोई सर है न तो पैर, न ही इसका तर्क से सम्बन्ध है न ही सत्यता से। इसका सम्बन्ध महज अन्धविश्वास है - यह एक तरह का टोना टुटका ही है।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Sunday, December 10, 2006

काम से ज्यादा महत्व, उसे करने में है: ... time to think?

Don’t you have time to think?
पहली पोस्ट: पुस्तक - Don’t you have time to think?
दूसरी पोस्ट: पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा
तीसरी पोस्ट: गायब
चौथी पोस्ट: मानद उपाधि
पांचवीं पोस्ट: खेलो, कूदो और सीखो
छटी पोस्ट: अधिकारी, विशेषज्ञ
यह पोस्ट: काम से ज्यादा महत्व, उसे करने में है

हम सब के जीवन में कोई न कोई आदर्श रहा है। मेरे जीवन में - एक नहीं, कई रहे। उन्होने अलग अलग तरह से मेरे जीवन, मेरी विचारधारा पर असर डाला। इनमे से कईयों से कभी नहीं मिला। फाइनमेन उनमें से एक थे। उनके मुताबिक काम से ज्यादा महत्व उसे करने में है: जो अच्छा लगे, जिसमें मन लगे - वह करो पर करो उसे बढ़िया।

एक बार कोची नामक एक विद्यार्थी ने फाइनमेन को पत्र लिखा कि वह भौतिक शास्त्र के साधारण विषय पर काम कर कर रहा है और नामरहित है। इस पत्र ने फइनमेन को दुखी किया। उन्हें लगा कि कोची के अध्यापक ने उसे ठीक से नहीं बताया कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं है। फाइनमेन ने कोची को पत्र लिखा कि,
'The worthwhile problems are the once you can really solve or help solve, the ones you can really contribute something to. A problem is grand in science if it lies before us unsolved and we see some way for us to make a little headway into it.'

फाइनमेन का सुझाव था कि पहले छोटी छोटी और आसान मुश्किलों का हल खोजो जो कि आसानी से मिल सकता है। उनके मुताबिक,
'You will get the pleasure of success, and of helping your fellow man, even if it is only to answer a question in the mind of a colleague less able than you. You must not take away from yourself these pleasures because you have some erroneous idea of what is worthwhile.'
फाइनमेन ने पत्र में यह भी बताया कि उन्होने स्वयं,
'I have worked on innumerable problem that you would call humble, but which I enjoyed and felt very good about because I sometimes could partially succeed.'


फाइनमेन का मानना था कि,
'You do any problem that you can, regardless of field.'
न तो सरदर्द लेने की जरूरत है न ही घबराने की - कयोंकि,
'In no field is all the research done. Research leads to new discoveries and new questions to answer by more research.'
उनके अनुसार,
'No problem is too small or too trivial if we can really do something about it.'

पत्र में फानमेन, आगे लिखते हैं कि,
'You say you are a nameless man. You are not to your wife and to your child. You will not long remain so to your immediate colleagues if you can answer their simple question when they come into your office. You are not nameless to me. Do not remain nameless to yourself — it is too sad a way to be. Know your place in the world and evaluate yourself fairly, not in terms of the naïve ideals of your own use, nor in terms of what you erroneously imagine your teacher’s ideals are.'

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Thursday, December 07, 2006

पेटेंट पौधों की किस्में एवं जैविक भिन्नता: प्रस्तावना

पहला भाग: पेटेंट
दूसरा भाग: पेटेंट और कंप्यूटर प्रोग्राम
तीसरा भाग: पेटेंट पौधों की किस्में एवं जैविक भिन्नता
यह पोस्ट: प्रस्तावना

प्रकृति में पायी जाने वाली वस्तुओं के गुणों का पेटेंट नहीं कराया जा सकता है पर प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं या इसके गुणों का प्रयोग कर यदि कोई नवीन उत्पाद बनाया जाय तो उसको पेटेंट कराया जा सकता है । एक सार्वजनिक प्रक्रिया या उत्पाद, अथवा परंपरागत जानकारी को पेटेंट नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह नवीन आविष्कार नहीं है। इनको दोहरा कर दूसरी प्रक्रिया या प्राप्त उत्पाद को भी पेटेंट नहीं कराया जा सकता है क्योंकि यहां भी यह नवीन आविष्कार नहीं कहे जा सकते हैं।

हमारे देश में रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा तैयार किये गये उत्पाद या खाद्य पदार्थ, या औषधि, पर पेटेंट नहीं दिया जा सकता था। इसका यह अर्थ नहीं होता है कि इस तरह के उत्पाद हमारे देश में होते नहीं थे, या उनका हमारे देश में प्रयोग नहीं किया जाता था। हमारे देश में केवल इनका पेटेंट नहीं होता था हालांकि बाहर के देशों में, इस तरह की कोई भी रोक नहीं थी तथा वहां इस तरह के उत्पाद का पेटेंट होता था। ट्रिप्स के अन्दर इस तरह की कोई रोक नहीं लगायी जा सकती है इसलिये अब इस तरह के पेटेंट अपने देश में भी दिये जाने लगे हैं।

हमने जैविक भिन्नता (Biological Diversity) अधिनियम २००२ बनाया हैं इसको बनाने के निम्न कारण हैं।
  • जैविक भिन्नता का संरक्षण करना;
  • जैविक भिन्नता के संघटकों का ठीक प्रकार से प्रयोग करना; और
  • जैविक साधन की जानकारी के प्रयोग से प्राप्त होने वाले लाभ का उचित एवं न्यायपूर्ण बंटवारा होना।
बहुत सारे देशों में उन उत्पाद पर पेटेंट दे दिये गये हैं जिन पर हम पेटेंट नहीं देते थे और बहुत से पेटेंट पारम्परिक जानकारी या पूर्वकला की जानकारी न मिल पाने के कारण दिये जा चुके हैं। यह पेटेंट चावल, गेहूं, नीम, हल्दी, इसपगोल, सौंफ, धनिया, जीरा, सूरजमुखी, मूंगफली, अरंडी रेड़ी, करेला, जामुन, ब्रिंजल और आंवला के प्रयोग के बारे में हैं जिनकी हमें परम्परागत जानकारी थी। इसमें से कुछ तो समाप्त कर दिये गये हैं पर, अधिकतर अभी भी हैं। हमें इन सब पेटेंटों के बारे में विचार करना चाहिए और हो सके तो उन्हें समाप्त करवाना चाहिये। आने वाली पोस्टों पर, कुछ उन पेटेंट की चर्चा करेंगे, जो समाप्त कर दिये गये हैं। सबसे पहले बात करेंगे बासमती चावल की - यह अगली बार।

Monday, December 04, 2006

हरिवंश राय बच्चन: नारी मन

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम

भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर

भाग -४ दशद्वार से सोपान तक
ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चन
बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा
यह पोस्ट: नारी मन

कहा जाता है कि नारी को समझ पाना, पुरषों के लिये सुलभ नहीं है। बच्चन जी संवेनदशील थे - कई महिलाओं के नजदीक रहे। अपनी जीवनी कुछ ऐसे सम्बन्धों की भी चर्चा की जिसे भारतीय समाज में दबी जुबान से बात की जाती है। मेरे लिये कहना मुश्किल है कि वे नारी मन को अच्छा समझ पाये कि नहीं। यह तो वही व्यक्ति कह सकता है जो स्वयं इसमें पारंगत रहा हो - मैं नहीं। पर मैं बच्चन जी के नारी विश्लेषण से सहमत नहीं हूं। ऐसा क्यों है, मैं नहीं बता सकता हूं, मैं स्वयं न तो इसे समझ पा रहा हूं और नही इसे तर्क पर रख पा रहा हूं।

बच्चन जी कहते हैं कि तुलसी दास जी ने
'एक ओर तो उन्होंने सीता के रूप में आदर्श नारी की कल्पना की और दूसरी ओर, जहॉं भी मौका मिला नारी की निंदा करते रहे, प्राय: उसकी कामुकता की ओर संकेत करते हुए।'
इसका कारण वे इस तरह से बताते हैं।
'विवाह हो गया था, पर पत्नी उनकी अनुपस्थिति में, बिना उनकी अनुमति के मायके भाग गई थी। आधी रात को तुलसीदास को पत्नी की याद सताती है ... पहुँच जाते हैं [पत्नी] के कमरे में। ... कहा तो यह जाता है कि ... [पत्नी] ने कहा कि जैसी प्रीति आपको मेरे हाड़-मांस के शरीर से है वैसी प्रीति यदि आप रघुनाथ जी से करते तो आपका जन्म-जन्मांतर सुधर जाता ... क्षमा करेंगे, इस विषय में मेरी अलग ही कल्पना है। अधिक संभावना इसकी है कि उस रात तुलसीदास ने ... [अपनी पत्नी] को किसी और के साथ देखा। उस रात उनकी मोहनिद्रा नहीं टूटी। नारी के प्रति उनका मोह भंग हुआ—‘Frailty thy name is woman’ (नारी तेरा नाम छिन्नरपन)। '

हो सकता है कि वे ठीक हों, पर मालुम नहीं क्यों मुझे यह ठीक नहीं लगता - शायद मैं कम संवेदनशील हूं या फिर महिलाओं को नजदीक से कम परखा है।

वे भारतीय नारी की मुश्किलों के बारे में लिखते हैं कि,
'परंपरागत मर्यादाओं में बँधी भारतीय नारी की बड़ी मुसीबत है। किसी पुरूष के प्रति यदि उसमें प्रेम जागे तो वह सीधे-साफ शब्दों में यह नहीं कह पाती कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। प्राय: वह उसे अपना भाई बनाती है। उसकी कलाई पर राखी बांधती है और इस प्रकार उससे किसी संबंध से जुड़ उसे अपना सखा, साथी, मित्र, प्रेमी बना पति के रूप में भी पाने की कामना करती है।'

उनके मुताबिक शूर्पणखा भी अनाड़ी थी। उनके अनुसार,
'यदि वह [शूर्पणखा] बहन बनकर राम के हाथ में राखी बॉंधने के लिए आई होती, तो ... अरण्य कांड के बाद रामायण की कथा कुछ और ही तरह लिखी जाती।'

वे साहित्य की दुनिया से दो उदाहरण भी देते हैं।
'सुनता हूं कि पुष्पा ने भी भारती के हाथ में पहले राखी बांधी थी; आज वे उनसे एक पुत्र, एक पुत्री की मां हैं। नंदिता जी को आज प्राय: सभी लोग भगवतीचरण वर्मा की पत्नी के रूप में जानते हैं। उन्होंने भी पहले वर्मा जी के हाथ में राखी ही बांधकर उनसे बहन का रिश्ता कायम किया था।'
बच्चन जी के अनुसार अजिताभ और रोमेला का प्रेम भी, शायद इसी तरह से शुरु हुआ। यह सब सच है कि नहीं यह तो वे ही लोग बता सकते हैं। पर अब समय बदल गया है यह आज सच न हो। मैंने तो नहीं पर मेरे कई मित्रों ने प्रेम विवाह किया पर उनका पत्नी से रिश्ता कभी भी बहन के रूप में नहीं शुरु हुआ था वह हमेशा मित्र के रूप में ही शुरु हुआ था।

मेरे और उनके विचारों की भिन्नता का कारण शायद यही हो कि हम लोग अलग अलग समय में पैदा हुऐ और अलग अलग वातावरण में बड़े हुऐ। इसने हमारी विचारधारा पर भी असर डाला।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Saturday, December 02, 2006

गोलकुण्डा का किला और अंधेरी रात

हैदराबाद
पहली पोस्ट: आप किस बात पर, सबसे ज्यादा झुंझलाते हैं
दूसरी पोस्ट: निजाम के गहने और जैकब हीरा
यह पोस्ट: गोलकुण्डा का किला और अंधेरी रात

हैदराबाद में एक देखने का स्थल है - गोलकुण्डा का किला। इसमें शाम को आवाज और रोशनी का कार्यक्रम होता जिसमें वे इसके इतिहास के बारे में बताते हैं। यह बहुत अच्छा है, कभी वहां जायें तो इसे अवश्य देखें। मैंने इसे कई बार देखा है।

एक बार मैं इसके अंग्रेजी के प्रोग्राम को देखने के लिए गया था। इसमें अंग्रेजी में आवाज अमिताभ बच्चन की है पर थोड़ी देर बाद आवाज और रोशनी दोनो गायब हो गयीं। जाहिर है कि बिजली चली गयी थी। कुछ देर तक जब बिजली नहीं आयी तो पता चला कि पावर कट है और जेनरेटर की डीज़ल खत्म हो गया है। बाजार से डीज़ल मंगवाया गया है पर आने में समय लगेगा।

जहां तक मुझे याद पड़ता है उस रात अमावस्या थी - कम से कम चांद तो नहीं निकला था। आकाश में तारे सुन्दरता बिखेर रहे थे। मैंने पूंछा कि जब तक बिजली नहीं आती है तब तक क्या वे लोग तारों के बारे में बात करना पसन्द करेंगे। वहां पर बैठे लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि क‍या करें, बोर हो रहे थे - उन्होंने हामी भर दी। मैं अपने मित्रों के बीच ज्यादा बोलने के लिये बदनाम हूं। आदत से लाचार - हो गया शुरु।

मुझे लगा कि सबसे पहला काम लोगों में उत्सुकता बढ़ाना है इसलिये सबसे पहले तारों के वर्गीकरण के बारे में बताना शुरु किया जैसा कि मैंने यहां बताया। जब मैने वर्गीकरण को याद करने वाला वाक्य
'Be A Fine Girl Kiss Me' और उसके बाद इसमें जोड़े नये तीन वर्ग को याद करने के लिये वाक्य 'Right Now Sweetheart' बताया तो मुझे लगा कि कुछ लोग हल्के हल्के मुस्कुरा रहें हैं और उन्हें मजा आने लगा है।

इसके बाद आकाश में तारा समूहों के बारे मैं बताना शुरु किया। तब शुरु हुआ राशियों का सफर और वे क्यों महत्वपूर्ण हैं। इन सब के बारे में मैंने कुछ यहां और यहां लिखा है। इतने में जनरेटर चलने की आवाज शुरु हो गयी और बिजली आ गयी। इस प्रोग्राम में अधिकतर लोग विदेशी थे। मैंने देखा कि कुछ एक दूसरे को चूम रहे थे, कुछ हाथ पकड़ कर प्यार का इज़हार कर रहे थे। एक विदेशी महिला ने मुस्कराते हुऐ कहा,
‘Thank you for taking us on star trek’
इतने में प्रोग्राम शुरु हो गया। अमिताभ बच्चन की आवाज आनी शुरु हो गयी और हम सब उसके जादू में खो गये।

Sunday, November 26, 2006

डैमियन - शैतान का बच्चा: ... टोने टुटके

ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके
पहली पोस्ट: भूमिका
दूसरी पोस्ट: तारे और ग्रह
तीसरी पोस्ट: प्राचीन भारत में खगोल शास्त्र
चौथी पोस्ट: यूरोप में खगोल शास्त्र
पांचवीं पोस्ट: Hair Musical हेर संगीत नाटक
छटी पोस्ट: पृथ्वी की गतियां
सातवीं पोस्ट: राशियां Signs of Zodiac
आठवीं पोस्ट: विषुव अयन (precession of equinoxes): हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ
नवीं पोस्ट: ज्योतिष या अन्धविश्वास
यह पोस्ट: अंक विद्या, डैमियन - शैतान का बच्चा
अगली पोस्ट: अंक लिखने का इतिहास

१९७६ में एक फिल्म ओमेन
(Omen) नाम से आयी थी। इसकी कहानी कुछ इस प्रकार की है,
एक अमेरिकन राजनयिक (Diplomat), के पुत्र की म़ृत्यु हो जाती है और उसकी जगह एक दूसरा बच्चा रख दिया जाता है। इस बच्चे का नाम डेमियन (Damien) है। यह बच्चा वास्तव में एक शैतान का बच्चा है और आगे चलकर इसके एन्टीक्राइस्ट (Antichrist) बनने की बात है। यह बात बाइबिल की एक भविष्यवाणी में है। कुछ लोगों को पता चल जाता है कि यह शैतान का बच्चा है और उसे मारने का प्रयत्न किया जाता है पर पुलिस जिसे नहीं मालुम कि वह शैतान का बच्चा है, उसे बचा लेती है। यह फिल्म यहीं पर समाप्त हो जाती है।

इस फिल्म के बाद, १९७८ में दूसरी फिल्म
Damien: Omern II नाम सेआयी। यह डैमियन के तब की कहानी है, जब वह १३ साल का हो जाता है। १९८१ में इस सीरीज में तीसरी फिल्म Oemn III: The Final Conflict आयी। इस सिरीस की चौथी फिल्म टीवी के लिये १९९१ में Omen IV : The Awakening के नाम से बनी। मैंने इस सिरीस की केवल पहली फिल्म देखी है, यह डरावनी थी। बाद की कोई भी फिल्म नहीं देखी। मुझे ऐसी फिल्मों में मजा नहीं आता है।

इन फिल्मों में यह महत्वपूण है कि यह कैसे पता चला कि डेमियन शैतान का बच्चा है।

डेमियन के सर की खाल
(Scalp) पर बालों से छिपा ६६६ अंक लिखा था। इस नम्बर को शैतान का नम्बर कहा जाता है। इससे पता चला कि डैमियन शैतान का बच्चा है। पर क्या आप जानते हैं कि इस नम्बर को क्यों शैतान का नम्बर क्यों कहा जाता है। चलिये कुछ अंक लिखने के इतिहास के बारे में चर्चा करें, इसी से यह सब पता चलेगा, पर यह अगली बार।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Saturday, November 25, 2006

अधिकारी, विशेषज्ञ: ... time to think?

फाइनमेन का हमेशा कहना था कि किसी बात को तब स्वीकार करो जब वह तर्क पर खरी उतरे, उसे केवल किसी के कहने पर न स्वीकार करो। १९७६ में मार्क को पत्र लिखते समय सलाह दी कि,
'Don’t pay attention to “authorities,” think yourself.'

अपनी पुस्तक Lectures on Physics में एक जगह उन्होने लिखा था कि
'No static distribution of charges inside a closed conductor can produce any electric field outside.'
एलिज़बेथ ने भौतिक शास्त्र में एक कोर्स लिया था। परीक्षा में एक सवाल का यही जवाब दिया। इस पर उसके शिक्षक ने उसे कोई नम्बर नहीं दिया क्योंकि यह बात गलत थी। शिक्षक ने एलिज़बेथ को यह भी बताया कि यह किस प्रकार से गलत है। एलिज़बेथ ने जब इसके बारे में फाइनमेन को पत्र लिखा। तो फाइनमेन का जवाब था,
'Your instructor was right not to give you any points for your answer was wrong, as he [the teacher] demonstrated using Gauss’ Law. You should, in science, believe logic and arguments, carefully drawn, and not authorities. '

वे आगे कहते हैं कि तुमने मेरी किताब को सही समझा, मैंने ही गलती कर दी थी,
'You also read the book correctly and understood it. I made a mistake, so the book is wrong ... I am not sure how I did it, but I goofed. And you goofed too, for believing me.

बड़े व्यक्तियों का पहला गुण – यदि वे गलत हैं, तो स्वीकार करने में कभी नहीं हिचकते।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Tuesday, November 21, 2006

ज्योतिष या अन्धविश्वास: ... टोने टुटके

ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके
पहली पोस्ट: भूमिका
दूसरी पोस्ट: तारे और ग्रह
तीसरी पोस्ट: प्राचीन भारत में खगोल शास्त्र
चौथी पोस्ट: यूरोप में खगोल शास्त्र
पांचवीं पोस्ट: Hair Musical हेर संगीत नाटक
छटी पोस्ट: पृथ्वी की गतियां
सातवीं पोस्ट: राशियां Signs of Zodiac
आठवीं पोस्ट: विषुव अयन (precession of equinoxes): हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ
यह पोस्ट: ज्योतिष या अन्धविश्वास
अगली पोस्ट: अंक विद्या - डेमियन

सूरज और चन्द्रमा हमारे लिये में महत्वपूर्ण हैं। यदि सूरज नहीं होता तो हमारा जीवन ही नहीं शुरू होता। सूरज दिन में, और चन्द्रमा रात में रोशनी दिखाता है। सूरज और चन्द्रमा, समुद्र को भी प्रभावित करते हैं। ज्वार और भाटा इसी कारण होता है। समुद्री ज्वार-भाटा के साथ यह हवा को भी उसी तरह से प्रभावित कर, उसमें भी ज्वार भाटा उत्पन करते हैं। ज्वार-भाटा में किसी और ग्रह का भी असर होता होगा, पर वह नगण्य के बराबर है। इसके अलावा यह बात अप्रसांगिक है कि हमारा जन्म जिस समय हुआ था, उस समय
  • सूरज किस राशि में था, या
  • चन्द्रमा किस राशि पर था, या
  • कोई अन्य ग्रह किस राशि पर था।
इसका कोई सबूत नहीं है कि पैदा होने का समय या तिथि महत्वपूर्ण है। यह केवल अज्ञानता ही है।

हमारे पूर्वजों ने इन राशियों को याद करने के लिये स्वरूप दिया। पुराने समय के ज्योतिषाचार्य बहुत अच्छे खगोलशास्त्री थे। पर समय के बदलते उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि किसी व्यक्ति के पैदा होने के समय सूरज जिस राशि पर होगा, उस आकृति के गुण उस व्यक्ति के होंगे। इसी हिसाब से उन्होंने राशि फल निकालना शुरू कर दिया। हालांकि इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि आप ज्योतिष को उसी के तर्क पर परखें, तो भी ज्योतिष गलत बैठती है।

मैंने इस विषय की आठवीं पोस्ट (विषुव अयन: हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ) पर बताया था कि पृथ्वी की धुरी घूम रही है और २५,७०० साल में एक बार चक्कर लगाती है। इसलिये विषुव (equinox) का समय बदल रहा है, जिसे विषुव अयन (precession of equinoxes) कहते हैं। ज्योतिष/ खगोलशास्त्र के शुरु होने के समय, विषुव अप्रैल के माह में आता था, इसीलिये राशि चक्र मेष से शुरु होता है। अब यह मार्च के महीने में आ गया है यानी कि मीन राशि में आ गया है। यदि ज्योतिष का ही तर्क लगायें तो जो गुण ज्योतिषों ने मेष राशि में पैदा होने वाले लोगों को दिये थे वह अब मीन राशि में पैदा होने वाले व्यक्ति को दिये जाने चाहिये। यानी कि, हम सबका राशि फल एक राशि पहले का हो जाना चाहिये पर ज्योतिषाचार्य तो अभी भी वही गुण उसी राशि वालों को दे रहे हैं।

सच में हम बहुत सी बातो को उसे तर्क या विज्ञान से न समझकर उस पर अंध विश्वास करने लगते हैं, जिसमें ज्योतिष भी एक है। ज्योतिष या टोने टोटके में कोई अन्तर नहीं। यह एक ही बात के, अलग अलग रूप हैं। यही बात अंक विद्या और हस्तरेखा विद्या के लिये लागू होती है। यह दोनो, टोने टोटके के ही दूसरे रूप हैं। इनके बारे में अगली पोस्टों पर।


अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Sunday, November 19, 2006

हरिवंश राय बच्चन: अमिताभ बच्चन

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम

भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूर

भाग -४ दशद्वार से सोपान तक
यह पोस्ट: अमिताभ बच्चन
अगली बारवीं पोस्ट: रूस यात्रा

यह बच्चन जी की जीवनी का चौथा एवं अंतिम भाग है। बच्चन जी इलाहाबाद में क्लाईव रोड पर जिस बंगले में रहते थे, उसके कमरों में दरवाजे, खिड़कियों और रोशनदान को मिलाकर १०-१० खुली जगहें थी, इसलिये उसका नाम उन्होंने दशद्वार रख दिया।

सोपान का अर्थ है: सीढ़ी। बच्चन जी जब दिल्ली गये तो वहां पर वे लेखकों व पत्रकारों की सहकारी समिति के सदस्य बन गये। इस सहकारी समिति को गुलमोहर पार्क में कुछ जमीन मिली जिसमें एक प्लाट बच्चन जी को भी मिला। इस पर वहां बच्चन जी ने एक तिमंजिला मकान बनाया। जिसकी मजिंलो को एक लम्बी सीढ़ी जोड़ती है जो नीचे से ऊपर तक एक साथ देखी जा सकती है। इस घर में प्रवेश करने पर सबसे पहले दिखती है , इसलिये इस मकान का नाम उन्होंने सोपान रखा।

इस भाग में, बच्चन जी ने इलाहाबाद से निकल कर जो जीवन बिताया, उसका वर्णन है। जाहिर है, इसमें उनके विदेश मंत्रालय से सम्बन्धित संस्मरण, दिल्ली की राजनैतिक गतिविधियां (जिसमें इमरजेंसी भी है), अमिताभ बच्चन का सिनेमा जगत में उदय और करोड़ों लोगों का चहेता अभिनेता बनने की कहानी है। यह उनके जीवन का सबसे खुशहाल समय भी रहा। इन क्षणों में वे इलाहाबाद की अच्छी बातों को याद करते हैं और कहीं न कहीं उसका अहसान मन्द भी दीखते हैं।

अमिताभ बच्चन ने‍ जिन ऊंचाइयों को छुआ, वह किसी भी पिता के लिये एक हर्ष की बात हो सकती है और इस भाग में वे बहुत कुछ अमिताभ बच्चन के बारे में है। अमिताभ के अभिनय की क्षमता के बारे में कहते हैं कि,
'मुझे याद है १९४२ के "भारत छोड़ो" आंदोलन के समय जब इमर्जेसी लगा दी गई थी, और युनिवर्सिटी दो-तीन महीने के लिए बंद करा दी गई थी तो हम दोनों घर पर शेक्सपियर के नाटकों की प्ले-रीडिंग किया करते थे। अमित पेट में था। अब हमसे लोग पूछते हैं कि अमिताभ में अभिनय की प्रतिभा कहॉं से आई। मैं उन दिनों की याद कर एक प्रति-प्रश्न उछाल देता हूँ, "अभिमन्‍यु ने चक्रव्‍यूह भेदने की क्रिया कहॉं से सीखी?”

अमिताभ बच्चन शुरू में इलाहाबाद में ब्यॉज हाई स्कूल में पढ़े और फिर शेरवुड, नैनीताल पढ़ने के लिए चले गये। वे, स्कूल के नाटकों में भाग लेते थे और पर जीवन में वे इंजीनियर बनना चाहते थे। बी.एस.सी. के बाद उनका यह सपना टूट गया और वे कलकत्ता नौकरी करने चले गये। इसका बात को वे कुछ इस प्रकार से बताते हैं,
'अमिताभ अपने इंजीनियर बनने का सपना से रहे थे।
तीन वर्ष बाद कम्पार्टमेन्टल से उन्होंने बी.एस.सी. की।
इंजीनियर बनने का सपना पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था।
...
अमिताभ ने अपने स्नातकीय डिग्री के लिए विज्ञान लेकर अपनी मूल प्रवृत्ति को पहचानने में भूल की थी; परीक्षा-परिणाम संतोषजनक नहीं हुआ। विज्ञान लेकर आगे पढ़ने का रास्ता अब बंद हो गया था।'

मैंने सुना था कि अमिताभ बच्चन ने ऑल इन्डिया रेडियो पर समाचार पढ़ने के लिये आवेदन पत्र दिया था जो कि स्वीकर नहीं हुआ था - उनकी आवाज ठीक नहीं पायी गयी थी। मुझे इस पर कभी विश्वास नही होता था, पर यह सव है। बच्चन जी लिखते हैं कि,
'आल इंडिया रेडियो में कुछ समाचार पढ़ने वाले लिए जाने वाले थे। अमित ने प्रार्थना पत्र भेज दिया। उन्हें आवाज-परीक्षण के लिए बुलाया गया, पर उनकी आवाज ना-काबिल पाई गई। पता नहीं रेडियों वालों के पास अच्छी आवाज का मापदंड क्या था। आज तो अमिताभ के अभिनय में आवाज उनका खास आकर्षण माना जाता है। पर अच्छा हुआ वे रेडियो में नहीं लिए गए। वहॉं चरमोत्कर्ष पर भी पहुँच कर वे क्या बनते? - “मूस मोटाई लोढ़ा होई।" हमारी असफलता और नैराश्य में भी कभी-कभी हमारा सौभाग्य छिपा रहता है।'

अमिताभ बच्चन की बात हो और जया भादुड़ी का जिक्र न आये - यह तो हो ही नहीं सकता। बच्चन जी पर उसकी पहली छाप के बारे में तो उन्ही से सुनना ठीक रहेगा,
'जया कद में नाटी, शरीर से न पतली, न मोटी, रंग से गेहुँआ; उसकी गणना सुंदरियों में तो न की जा सकती थी, पर उसमें अपना एक आकर्षण था, विशेषकर उसके दीर्घ-दीप्त नेत्रों का, और उसके सुस्पष्ट मधुर कंठ का। एक अभाव भी उसमें साफ था—समान अवस्था की लड़कियों की सहज सुलभ लज्जा का, पर फिल्म में काम करने वाली लड़की से उसकी प्रत्याशा भी न की जा सकती थी।'

इस भाग को पढ़ने के बाद, मुझे अमिताभ बच्चन की दो बातें बहुत अच्छी लगीं। पहली यह कि उन्होने अपने माता-पिता को हमेशा सम्मान दिया। अक्सर लोग अपने वृद्ध माता-पिता को भूल जाते हैं।

दूसरा उनका अपने पुराने सहयोगियों तथा कर्मचारियों के साथ व्यवहार। अक्सर लोग जब बड़े आदमी हो जाते हैं तो अपने मुश्किल समय के लोगों को भूल जाते हैं, अमिताभ बच्‍चन ने ऐसा नहीं किया। यह बात बच्चन जी को भी बहुत अच्छी लगी। एक बार कलकत्ता में पिक्चर शूटिंग के दौरान उनके व्यवहार के बारे में बच्चन जी लिखते हैं,
'एक शाम को उन्होंने याद कर-करके बर्ड और ब्‍लैकर्स के अपने पूर्व सहयोगियों को चाय पर आमंत्रित किया और एक-एक से ऐसे मिले जैसे अब भी उनके बीच ही काम कर रहे हों। वे लोग भी अमिताभ की इस भंगिमा से बहुत प्रसन्न हुए। कई तो अपने बच्चों को साथ लाए जो अमिताभ के फैन हो गए थे और जिनकी आँखें यह विश्वास न कर पाती थीं कि यही व्यक्ति उनके पापा या डैडी के साथ बरसों काम कर चुका है। कभी उनके दफ्तर के पुराने चपरासी आदि भी आते तो वे उनको बुला लेते, खुशी से मिलते; और वे तो अपना भाग्य सराहते विदा लेते। अमिताभ की इस मानवीयता ने उनके कलाकार को कितना उठाया है शायद स्वयं उन्हें भी अभी इसका अंदाजा नहीं है।'

इस भाग को पढ़ने से यह भी पता लगा कि अमिताभ को अभिनेता के मार्ग में प्रोत्साहित करने में सबसे बड़ा हाथ उनके छोटे भाई अजिताभ का था। बच्चन जी को कई बार रूस जाने का मौका मिला। एक बार अजिताभ ने उनसे एक खास तरह का कैमरा मंगवाया जो बहुत ही मंहगा था। उस समय, यह उनकी समझ में नहीं आया कि वह क्यों इतना महंगा कैमरा मगंवा रहा है। इसका भेद तो बाद में खुला। उसने कैमरे से अमिताभ बच्चन की खास फोटो लेकर फिल्म जगत के लोगों को दिया ताकि अमिताभ बच्चन का फिल्म जगत में रास्ता खुल सके।

इस भाग में बच्चन जी की रूस यात्रा और वहां के कई शहरों का भी वर्णन है। मैं कभी वहां नहीं गया पर मुन्ने की मां गयी है। वह भी उन शहरो में गयी, जहां बच्चन जी गये थे। इस सीरिस का अगला भाग रूस यात्रा के बारे में, मुन्ने की मां से, उसी के चिट्ठे पर, उसी के द्वारा।


अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Thursday, November 16, 2006

On Balance

मैंने अपनी पोस्ट 'मां को दिल की बात कैसे पता चली' पर यह जिक्र किया था कि मैं न्यायमूर्ति लीला सेठ की आत्म कथा On Balance के बारे में ज्लदी ही चर्चा करूंगा। यह रही वह चर्चा।
वकालत का पेशा पुरुष प्रधान है। इस पेशे में महिलाओं के लिये पग-पग पर मुश्किलें हैं। इस क्षेत्र में ऊंचा उठना, या जज बनना, किसी भी महिला के लिये मुश्किल की बात है। यदि कोई महिला अच्छा वकील, या जज बन बन पाती है तो यह बहुत सम्मान की बात है और उसके आत्मविश्वास की द्योतक है। न्यायमूर्ति लीला सेठ ने वकालत पटना में शुरु की। पटना उच्च न्यायालय में कितनी मुश्किलें थीं, इसका अन्दाजा आप उनके इस बात से लगा सकते हैं,
'There was, unfortunately, no proper women’s toilet. A musty storeroom, a good distance away, had been allotted for this purpose. It was kept locked and the key was with Dharamshila Lal. After my arrival, it was decided that the key should be kept with the librarian, Khadim, a gentle and quiet man... The most awful part of it all was that this room was infested with bats. I was just terrified to go inside. Having heard stories that bats clung to your hair, I used to cover my head with the end of my sari, clinging to it while using the toilet. The room was dark and full of old, discarded files and every time the door squeaked open, the bats started flying about in great agitation.'
न्यायमूर्ति लीला सेठ जब इस बारे में एक अन्य महिला वकील सुश्री धर्मशीला से बात की तो उसने आश्चर्यचकित हो कर कहा कि,
‘How do you intend to practice and do well in Bihar if you are afraid of bats?'
शायद यह बात सब जगह सच हो। अपने प्रतिद्वन्दी के लिये अफ़वाह फैला देना तो समय बिताने का सबसे प्रिय तरीका है - वकील इससे अलग नहीं हैं। न्यायमूर्ति लीला सेठ इसका जिक्र इन शब्दों में करती हैं,
'It made me unhappy when I realized that however hard I worked, the younger male lawyers kept spreading the rumour that I was not serious, and that, being a woman, I could not run around alike them and get things done. Further, I was a fashionable and frivolous woman who, because she had no need for money, would quit a case without notice.'

यह हाल जब पटना उच्च न्यायालय का है तो आप समझ सकते हैं कि निचली अदालतों का क्या हाल होगा। On Balance पुस्तक सरल भाषा में लिखी है और पढ़ने योग्य है। 

मैं इस किताब के बारे में यह कहना चाहता था कि यह किताब क्यों न अच्छी लिखी हो, आखिरकार न्यायमूर्ति लीला सेठ, विक्रम सेठ की मां हैं: अच्छा तो लिखेंगी ही। पर मैंने इसे लिखा नहीं, क्योंकि इस पर मुझको यह किस्सा याद आता है। बीसवीं शताब्दी में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में आईज़ेक एसीमोव (नीचे नोट-१ देखें) का बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने जितना इस क्षेत्र में कार्य किया उतना किसी और ने नहीं। उनके द्वारा विज्ञान पर कल्पित ( fiction) या अकल्पित (non-fiction) पुस्तकें पढ़ने योग्य हैं। 

आईज़ेक एसीमोव के माता पिता यहूदी थे और रूस में रहते थे। आईज़ेक का जन्म रूस में १९२० में हुआ था। इनके माता पिता अच्छे जीवन की तलाश में १९२३ में अमेरिका आ गये। इन दोनो को अंग्रेजी नहीं आती थी। ये लोग रूस में यह खाते-पीते परिवार के थे पर अमेरिका में सब कुछ नये सिरे से करना पड़ा - काफी मुश्किलों का सामना किया। आईज़ेक के पिता छोटे-मोटे काम करते थे और इनकी मां मिठाई (candy) का स्टोर चलाती थीं। वृद्धावस्था में उन्होंने यह कार्य करना छोड़ दिया और सोचा कि क्यों न अंग्रेजी सीख ली जाय। वे बहुत तेजी से अंग्रेजी सीखने लगीं। इस पर उनके अध्यापक ने पूंछा,

’क्या वे आईज़ेक एसीमोव की रिश्तेदार हैं ?‘
उन्होंने इसका उत्तर हां में दिया और बताया,
'मैं उसकी की मां हूं।‘
इस पर अध्यापक ने कहा,
‘कोई आश्चर्य नहीं कि आप अंग्रेजी सीखने में इतनी तेज हैं।‘
इस पर आईज़ेक एसीमोव की मां ने अध्यापक की आंखों में आंखे तरेर कर कहा,
‘आश्चर्य नहीं, कि आईज़ेक एसीमोव की अंग्रेजी इतनी अच्छी है।'
न्यायमूर्ति लीला सेठ अच्छा इसलिये नहीं लिखती हैं कि वे विक्रम सेठ की मां हैं पर विक्रम सेठ इसलिये अच्छा लिखते हैं क्योंकि वे न्यायमूर्ति लीला सेठ के पुत्र हैं।

नोट-१: आईजेक एसीमोव मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं। मेरे पास इनकी लगभग सारी किताबें हैं जिन्हे मैंने कम से कम एक बार पढ़ा है। मैं इनके बारे में चर्चा करूंगा - पर यहां केवल इतना ही। शायद चर्चा करने को इतनी बातें हैं कि इनका नम्बर ही नहीं आ पा रहा है।

सांकेतिक शब्द
book, book, books, Books, books, book review, book review, book review, Hindi, kitaab, pustak, Review, Reviews, किताबखाना, किताबखाना, किताबनामा, किताबमाला, किताब कोना, किताबी कोना, किताबी दुनिया, किताबें, किताबें, पुस्तक, पुस्तक चर्चा, पुस्तकमाला, पुस्तक समीक्षा, समीक्षा,

Sunday, November 12, 2006

विषुव अयन (precession of equinoxes) - हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ: ... टोने टुटके

ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके
पहली पोस्ट: भूमिका
दूसरी पोस्ट: तारे और ग्रह
तीसरी पोस्ट: प्राचीन भारत में खगोल शास्त्र
चौथी पोस्ट: यूरोप में खगोल शास्त्र
पांचवीं पोस्ट: Hair Musical हेर संगीत नाटक
छटी पोस्ट: पृथ्वी की गतियां
सातवीं पोस्ट: राशियां Signs of Zodiac
यह पोस्ट: विषुव अयन (precession of equinoxes): हेयर संगीत नाटक के शीर्ष गीत का अर्थ
अगली पोस्ट: ज्योतिष

हम पृथ्वी की तीसरी गति के बारे में छटी पोस्ट पर चर्चा कर चुके हैं। यही कारण है विषुव अयन का और राशि चक्र के मेष राशि से शुरू होने का।

साल के शुरु होते समय (जनवरी माह में) सूरज दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है और वहां से उत्तरी गोलार्द्ध जाता है। साल के समाप्त होने (दिसम्बर माह) तक सूरज उत्तरी गोलार्द्ध से होकर पुनः दक्षिणी गोलार्द्ध पहुचं जाता है। इस तरह से सूरज साल में दो बार भू-मध्य रेखा के ऊपर से गुजरता है। इस समय को विषुव (equinox) कहते हैं। यह इसलिये कि, तब दिन और रात बराबर होते हैं। यह सिद्धानतः है पर वास्तविकता में नहीं, पर इस बात को यहीं पर छोड़ देते हैं। आजकल यह समय लगभग 20मार्च तथा 23 सितम्बर को आता है। जब यह मार्च में आता है तो हम (उत्तरी गोलार्द्ध में रहने वाले) इसे महा/बसंत विषुव (Vernal/Spring Equinox) कहते हैं तथा जब सितम्बर में आता है तो इसे जल/शरद विषुव (fall/Autumnal Equinox) कहते हैं। यह उत्तरी गोलार्द्ध में इन ऋतुओं के आने की सूचना देता है।

विषुव का समय भी बदल रहे है। इसको विषुव अयन (Precession of Equinox) कहा जाता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर २४ घन्टे में एक बार घूमती है। इस कारण दिन और रात होते हैं। पृथ्वी की धुरी भी घूम रही है और यह धुरी २५,७०० साल में एक बार घूमती है। यदि आप किसी लट्टू को नाचते हुये उस समय देखें जब वह धीमा हो रहा हो, तो आप देख सकते हैं कि वह अपनी धुरी पर भी घूम रहा है और उसकी धुरी भी नाच रही है। विषुव का समय धुरी के घूमने के कारण बदल रहा है। इसी लिये pole star भी बदल रहा है। आजकल ध्रुव तारा पृथ्वी की धुरी पर है और दूसरे तारों की तरह नहीं घूमता। इसी लिये pole star कहलाता है। समय के साथ यह बदल जायगा और तब कोई और तारा pole star बन जायगा।

पृथ्वी अपनी धुरी पर लगभग २५,७०० साल में एक बार घूमती है। वह १/१२वें हिस्से को २१४१ या लगभग २१५० साल में तय करती है। वसंत विषुव के समय सूरज मीन राशि में ईसा के 500 साल बाद (500 AD) में आया। इसके पहले वह मेष राशि में २१५० साल से था - यानि कि ईसा से १६५० साल पहले (1650 BC) से, ईसा के ५०० साल बाद (500 AD) तक सूरज, पृथ्वी के सापेक्ष, मेष राशि में रहा। अलग अलग सभ्यताओं में, इसी समय खगोलशास्त्र या ज्योतिष का जन्म हुआ। इसी लिये राशिफल मेष से शुरु हुआ। पर अब ऐसा नहीं है। इस समय सूरज वसंत विषुव के समय पृथ्वी के सापेक्ष मीन राशि में होता है। यह अजीब बात है कि विषुव के बदल जाने पर भी हम राशिफल मेष से ही शुरु कर रहें है - तर्क के हिसाब से अब राशिफल मीन से शुरु होने चाहिये, क्योंकि अब विषुव के समय सूरज, मेष राशि में न होकर मीन राशि में है।

ईसा के ५०० साल (500 AD) के २१५० साल बाद तक यानि कि २७वीं शताब्दी (2650 AD) तक, वसंत विषुव के समय सूरज पृथ्वी के सापेक्ष मीन राशि में रहेगा। उसके बाद वसंत विषुव के समय सूरज, पृथ्वी के सापेक्ष, कुम्भ राशि में चला जायगा। यानि कि तब शुरु होगा कुम्भ का समय। अब आप हेयर संगीत नाटक के शीर्षक गीत Aquarius की पंक्ति 'This is the dawning age of Aquarius' (पांचवीं पोस्ट) का अर्थ समझ गये होंगे। मेरे मित्र इस गाने को सुनते थे, गाते थे, इस संगीत नाटक की बात करते थे, पर अर्थ नहीं समझते थे - ज्योतिष में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। यह अगली बार।


इस बात को यदि आप देख कर समझना चाहें तो नीचे देखें




अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Friday, November 10, 2006

खेलो, कूदो और सीखो ... time to think?

रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन के बारे में पोस्ट यहां देखें
पहली पोस्ट: Don’t you have time to think?
दूसरी पोस्ट: पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा
तीसरी पोस्ट: गायब
चौथी पोस्ट: मानद उपाधि
यह पोस्ट: खेलो, कूदो और सीखो

जीवन में हमें वह करना चाहिये जो हमें पसन्द हो - चाहे उसका कोई महत्व हो अथवा नहीं। महत्व अपने आप निकल आता है। मैंने फाइनमेन के बारे में लिखते समय वह किस्सा बताया था जब वे कौरनल विश्विद्यालय के अल्पाहार गृह में बैठे थे। वहां एक विद्यार्थी ने एक प्लेट को फेंका। प्लेट सफेद रंग की थी और उसमें बीच में कौरनल का लाल रंग का चिन्ह था। प्लेट डगमगा भी रही थी और घूम भी रही थी। यह अजीब नज़ारा था। फाइनमेन इसके डगमगाने और घूमने और के बीच में सम्बन्ध ढ़ूढ़ने लगे। इसमे काफी मुश्किल गणित के समीकरण लगते थे। इसमे उनका बहुत समय लगा। उन्होंने पाया कि दोनो मे २:१ का सम्बन्ध है। उनके साथियों ने उनसे कहा कि वह इसमे समय क्यों बेकार कर रहे हैं। उनका जवाब था,
'इसका कोई महत्व नहीं है मैं यह सब मौज मस्ती के लिये कर रहा हूं।'
लेकिन जब वे एलेक्ट्रौन के घूमने के बारे में शोध करने लगे तो उन्हें कौरनल की डगमगाती और घूमती प्लेट में लगी गणित फिर से याद आने लगी। उस काम का महत्व हो गया। उसी ने उस सिद्धान्त को जन्म दिया जिसके कारण उन्हें नोबेल पुरूस्कार मिला।

उन्होने इस बात को न केवल अपने जीवन में उतारा पर यही सलाह औरों को भी दी। एक बार सोलह साल के लड़के ने उन्हें पत्र लिख कर यह सलाह मांगी कि वह क्या करे। उनका जवाब था कि,
'It is wonderful if you can find something you love to do in your youth which is big enough to sustain your interest through all your adult life. Because, whatever it is, if you do it well enough (and you will, if you truly love it) people will pay you to do what you want to do anyway.'
उनके मुताबिक,
  • बहुत ज्यादा पढ़ना; या
  • किताबी कीड़ा बना रहना; या
  • अपने उम्र से ज्यादा पढ़ाई करना,
ठीक नहीं।

वे देखने और सीखने में विश्वास करते थे। एक बार , एक भारतीय बच्चे ने उन्हें एक पत्र परमाणु विज्ञान के बारे में लिखा। उनकी सलाह थी,
'Your discussion of atomic forces shows that you have read entirely too much beyond your understanding. What we are talking about is real and at hand: Nature. Learn by trying to understand simple things in terms of other ideas—always honestly and directly. What keeps the clouds up, why can’t I see stars in the day time, why do colors appear on oily water, what makes the lines on the surface of water being poured from a pitcher, why does a hanging lamp swing back and forth - and all the innumerable little things you see all around you. Then when you have learn to explain simpler things, so you have learn what an explanation really is, you can then go on to more subtle questions.
Do not read so much, look about you and think what you see there.'

बचपन में बड़े, बूढ़ों से सुना करता था,
'खेलो कूदोगे तो होगे बर्बाद,
पढ़ोगे लिखोगे तो होगे नवाब।'
शायद इसे इस तरह से कहना चाहिये,
'खेल, कूद कर सीखोगे,
केवल तब ही बनोगे, नवाब।'

Wednesday, November 08, 2006

निज़ाम के गहने और जैकब हीरा

एक बार हैदराबाद ट्रिप पर मालुम चला कि सलारजंग संग्रहालय में निज़ाम के गहनों की प्रदर्शनी चल रही है। बस, मैं और शुभा भी देखने पहुंच गए। गहने तो इतने भारी, तड़क भड़क वाले थे कि मन में कुछ अनिच्छा सी हो गयी। मैंने कहा
‘क्या इन्हें कोई भी पहन सकता है’
बगल में एक विवाहित महिला अपने परिवार के साथ थी मुझे और शुभा को देख कर कुछ मुस्करायी और बोली,
‘आप लोगों को देखकर लगता है कि कोई आप तो किसी प्रकार के गहने नहीं पहन सकते।‘
मैं न तो कोई अंगूठी और न ही कफ-लिंक वगैरह पहनता हूं। यही हाल शुभा का है - वह तो फैशन से बहुत दूर रहती है। उसे गहनो से लगाव नहीं। यहां तक कि न चूड़ी, न बिन्दी न सिन्दूर।

निज़ाम के गहनों की प्रदर्शनी में जैकब हीरा भी रखा था। यह रोचक लगा - कुछ इसके बारे में।

जैकब हीरा सवा सौ साल पहले अफ्रीका की किसी खान में कच्चे रूप में मिला था। वहां से इसे एक व्यवसाय संघ द्वारा ऐमस्टरडैम लाया गया और कटवा कर इसे नया रूप दिया गया। कहते हैं कि, यह दुनियां के सबसे बड़े हीरे में से एक है इसका वजन कोई १८४.७५ कैरेट (३६.९ ग्राम) है। यदि आप इसकी तुलना कोहिनूर हीरे से करें तो पायेंगे कि कोहिनूर हीरे का वजन पहले लगभग १८६.०६ कैरेट (३७.२ ग्राम) था। अंग्रेजी हुकूमत ने कोहिनूर हीरे की चमक बढ़ाने के लिये इसे तरशवाया और अब इसका वजन १०६.०६ कैरेट (२१.६ ग्राम) हो गया है।

जैकब हीरे को भारत लाने का श्रेय अलैक्जेंडर मालकन जैकब को जाता है। जैकब रहस्यमयी व्यक्ति था पर भारतीय राजाओं के विश्वास पात्र था। कहते हैं कि वह इटली में एक रोमन कैथोलिक परिवार में पैदा हुआ था। किपलिंग के उपन्यास किम में ब्रितानी गुप्त सेवा के लगन साहब का व्यक्तित्व जैकब पर आधारित है।

१८९० में जैकब ने, इस हीरे को बेचने की बात, छठे निज़ाम महबू‍ब अली पाशा से की। उस समय इसका दाम १ करोड़ २० लाख रूपये आंका गया पर बात बनी ४६ लाख में। निजाम ने २० लाख रूपये उसे हिन्दुस्तान में लाने के लिये दिये, फिर लेने से मना कर दिया क्योंकि British Resident ने इस पर आपत्ति कर दी। निज़ाम ने जब पैसे वापस मांगे तो जैकब उसे वापस नहीं कर पाया। इस पर कलकत्ता हाईकोर्ट में मुकदमा चला और सुलह के बाद यह हीरा निज़ाम को मिल गया।

महबूब अली पाशा ने जैकब हीरे पर कोई खास ध्यान नहीं दिया और इसे भी अन्य हीरों की तरह अपने संग्रह में यूं ही रखे रखा। उनके सुपुत्र और अंतिम निज़ाम उस्मान अली खान को यह उनके पिता की मृत्यु के कई सालों बाद में उनकी चप्पल के अगले हिस्से में मिला। उन्होने अपने जीवन में इसका प्रयोग पेपरवेट की तरह किया।

इस हीरे का दाम इस समय ४०० कड़ोड़ रुपये है। प्रर्दशनी के बाहर इस हीरे के नकल का क्रिस्टल ४०० रुपये में बिक रहा था। मैंने इसे खरीद लिया। कम से कम इसे तो मैं पेपरवेट की तरह प्रयोग कर सकता हूं।

मुन्ने की मां को गहनो से लगाव न रहने के कारण मुझे इस तरह के खर्चे नहीं करने पड़ते। इस कारण मेरे पैसे तो बचते हैं पर कभी कभी इस तरह का उपहार न दे पाने की टीस रहती है।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Monday, November 06, 2006

मानद उपाधि: ... time to think?

रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन के बारे में पोस्ट यहां देखें
पहली पोस्ट: Don’t you have time to think?
दूसरी पोस्ट: पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा
तीसरी पोस्ट: गायब
यह पोस्ट: मानद उपाधि

आजकल मानद उपाधि का जमाना है। जिस विश्व विद्यालय को देखो वही दे रहा है और सब इसे स्वीकार कर रहें हैं। फाइनमेन को दुनिया के हर देश के विश्वविद्यालय मानद उपाधि से विभूषित करना चाहते थे। १९६७ में, सबसे पहले शिकागो विश्व विद्यालय ने उन्हें मानद उपाधि से विभूषित करने की बात की। उन्होने इसे अपने लिये सम्मान की बात बतायी, पर स्वीकारा नहीं। उनका कहना था कि,
'I remember the work I did to get a real degree at Princeton and the guys on the same platform receiving honorary degrees without work — and felt an “honorary degree” was a debasement of the idea of a “degree which confirms certain work has been accomplished.” It is like giving an “honorary electrician license”. I swore then that if by chance I was ever offered one I would not accept it.'
जब कभी कोई उन्हे मानद उपाधी देने की बात करता, तो हमेशा उनका यही जवाब रहता था।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Saturday, November 04, 2006

राशियां Signs of Zodiac: ... टोने टुटके

ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके की इस चिट्ठी मे, राशियों के बारे में चर्चा है। 

चित्र विकिपीडिया से

Tuesday, October 31, 2006

मां को दिल की बात कैसे पता चली

कुछ दिन पहले मैंने छुटपुट चिट्टे पर 'मां को दिल की बात कैसे बतायें' चिट्ठी पोस्ट की। इस पर दो प्रतिक्रियायें आयीं। पहले में अतुल जी ने चिट्ठा चर्चा करते समय कहा,
'उन्मुक्त की रचना अछूते विषय पर उड़ती सी नजर डाल गयी दिखी। सच में, इससे ज्यादा की उम्मीद थी उन्मुक्त आपसे। वैसे आपने विषय बहुत हृदयस्पर्शी चुना है।'
मैंने भी 'आईने, आईने यह तो बता - दुनिया में सबसे सुन्दर कौन' चिट्ठी लिखते समय यह बात पूछी थी कि क्या इस बारे में विस्तार में पढ़ना पसन्द करेंगे। कुछ टिप्पणियां भी आयीं जिसमें पाठक गण ने इसे पढ़ने में रुचि जतायी। मेरे छुटपुट चिट्ठे पर सर्च कर सबसे ज्यादा लोग इसी चिट्ठी पर आते हैं पर यह विषय कुछ लम्बा , मुश्किल, एवं विवदास्पद है। कुछ आत्मविश्वास की भी कमी लगती है - लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे - फिर भी लिखने का प्रयत्न करूंगा।

दूसरी प्रतिक्रियाया क्षितिज जी की है। वे अपनी समस्या इस प्रकार से बता रहें हैं,
'आज सुबह उन्मुक्त की रचना मां को कैसे बतायें पढ़ी। हालांकि वे सिर्फ अन्य लोगों के विचार प्रस्तुत कर के चुप हो गए, मेरे लिए यह एक गंभीर समस्या है, और तब तक रहेगी जब तक मैं स्वयं अपनी मां (और पिता) को नहीं बता पा रहा।'
मुझे कुछ जिज्ञासा हुई कि विक्रम सेठ की मां, न्यायमूर्ति लीला सेठ, को यह बात कैसे पता चली।

न्यायमूर्ति लीला सेठ ने पटना में वकालत शुरु की। उसके बाद उन्होने वकालत दिल्ली में की और वहीं पर न्यायधीश बनी। वे हिमाचल प्रदेश की मुख्य न्यायधीश नियुक्त हुईं और वहीं से अवकाश ग्रहण किया। उन्होने अपनी जीवनी लिखी है इसका नाम है
'On Balance'। इसे Penguins India प्रकाशित किया है। इसमें इस बात का कुछ जिक्र है।

विक्रम सेठ ने कुछ समय चीन में बिताया। न्यायमूर्ति लीला सेठ और उनके पति चीन घूमने और उससे मिलने गये थे। वहां का वर्णन करते समय वे इस बात का आभास, इन शब्दों में देती हैं,
'The night before his thirtieth birthday, he [Vikram Seth] suddenly asked me where Gabrielle [Vikram's friend] would stay if she came to India. I [Justice Seth] said she would share a room with Aradhana [Vikram's sister]. He replied, ‘But she is my friend. Why shouldn’t she share the room with me? Before I could answer, he asked, ‘If I had a male friend visiting me, where would he stay? I replied, ‘He would share the room with you.’ ‘Vikram responded: ‘So you are driving me arms of men.’ I was a bit taken aback by his remark and the annoyed and sarcastic way in which he said it, but tried to remain calm and explained that in Indian society that was how things were done. I asked him what the staff would think if it were done any other way; even my colleagues, if they got to know, would be horrified. He declared aggressively, ‘You are more concerned with the opinion of others than the happiness of your children.’ I was upset by the remark, but told him, ‘When you come to our home, you must observe our rules, and when we stay in your house we will abide by yours.’ He retorted, ‘I thought that the house in Delhi was my house too.’ I found the situation was getting tense, and I didn’t want to get into a heated argument. I decided to go to bed quietly and ignore the subject for the rest of the trip.'
वे आगे कहती हैं कि,
'At the time I didn’t realise that Vikram was bisexual. This understanding came to me later and I found it hard to come to terms with his homosexuality. Premo [Vikram's father] found it even afraid that someone might try to exploit him because of it. It is only now that I realize that many creative persons share this propensity and that it gives them a special nurturing and emotional dimension.'

यह किताब कैसी है, इसमें क्या है - यह सब अगली बार।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Sunday, October 29, 2006

गायब ... Don’t you have time to think?

रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन के बारे में पोस्ट यहां देखें
पहली पोस्ट: Don’t you have time to think?
दूसरी पोस्ट: पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा
यह पोस्ट: गायब

मैंने कुछ दिन पहले दो चिट्ठियां 'अदृश्य हो जाने का वरदान', और 'अदृश्य हो जाने का अभिशाप' शीर्षक से छुटपुट चिट्ठे पर लिखीं। इसमें यह बताया कि अदृश्य हो जाना अभिशाप है क्योंकि ऐसा व्यक्ति अन्धा हो जायेगा। इन चिट्ठियों में मैंने यह नहीं बताया था कि क्या कोई तरीका है जिससे अदृश्य हुआ जा सकता है कि नहीं। लोग, अन्धे हो जाने वाली बात न समझते हुऐ, अदृश्य हो जाने कि इच्छा रखते हैं और इसके लिये तरीका ढूढते रहते हैं। नेवा नामक व्यक्ति ने एक बार फाइनमेन से यह सवाल पूछा कि क्या कोई तरीका है जिसके द्वाारा अदृश्य हुआ जा सकता है। इसका उत्तर देते समय फाइनमेन अगस्त १९७५ लिखते हैं कि,
'I would suggest that the best way to get a good answer to your question is to ask a first-rate professional magician. I do not mean this answer to be facetious or humorous, I am serious. A magician is very good at his making things appear in an unusual way without violating any physical laws, by arranging matter in a suitable way. I know of no physical phenomenon such as X-rays, etc., which will create invisibility as you want, therefore, if it is possible at all it will be in accordance with familiar physical phenomenon. That is what a first-rate magician is good for, to create apparently impossible effect from “ordinary” causes.'
इसका अर्थ तो यह हुआ कि असंभ्व है।

यह पत्र आज भी उतना सही है जितना कि तब, जब यह लिखा गया।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

Saturday, October 28, 2006

हरिवंश राय बच्चन: इलाहाबाद

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम
भाग-३: बसेरे से दूर
यह पोस्ट: इलाहाबाद से दूर
अगली पोस्ट: भाग -४ दशद्वार से सोपान तक

बसेरे से दूर, बच्चन जी की आत्म कथा का तीसरा भाग है यह तब लिखी गयी जब वह इलाहाबाद से दूर चले गये। यह भाग के बारे में कुछ लोग विवाद करते हैं मेरे कई मित्र इलाहाबाद के पुराने बाशिन्दे रहे हैं। उनके पिताओं से कभी कभी मुलाकात होती है। एक बार जब मैंने इस भाग कि कुछ घटनाओं, खास कर तेजी जी के साथ घटित घटना, की बात की तो उनका कहना था कि यह सही तरह से वर्णित नहीं है और वास्तविकता कुछ और है। मैं नहीं जानता कि क्या सच है पर लगा कि इस बारे में कुछ विवाद अवश्य है।

इस भाग में बच्चन जी के इलाहाबाद से जुड़े खट्टे मीठे अनुभव हैं - ज्यादातर तो खट्टे ही हैं। यदि आप इलाहाबाद प्रेमी हैं, तो शायद यह भाग आपको न अच्छा लगे, पर एक जगह बच्चन जी इलाहाबाद के बारे में यह भी कहते हैं। ‘
इलाहाबाद भी क्या अजीबोगरीब शहर है । यह इसी शहर में सम्भव था कि एक तरु तो यहां ऐसी नई कविता लिखी जाय जिस पर योरोप और अमरीका को रश्क हो और दूसरी तरु यहां से एक ऐसी पत्रिका प्रकाशित हो जिसका आधुनिकता से कोई संबंध न हो - संपादकीय को छोडकर। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी "सरस्वती" को द्विवेदी युग से भी पीछे ले जाकर जिलाए जा रहे थे, आश्चर्य इस पर था।‘
तो दूसरी जगह यह भी कहते हैं,
‘इलाहाबाद की मिटटी में एक खसूसियत है – बाहर से आकर उस पर जमने वालों के लिये वह बहुत अनुकूल पडती है । इलाहाबाद में जितने जाने-माने, नामी-गिरामी लोग हैं, उनमें से ९९% आपको ऐसे मिलेंगे जो बाहर से आकर इलाहाबाद में बस गए, खासकर उसकी सिविल लाइन में - स्यूडो इलाहाबादी । और हां, एक बात और गौर करने के काबिल है कि इलाहाबाद का पौधा तभी पलुहाता है, जब वह इलाहाबाद छोड दे ।‘

इसमें कुछ तो सच है। नेहरू, सप्रू, काटजू, बैनर्जी वगैरह तो इलाहाबाद में बाहर से आये और फूले फले। नेहरू की सन्तानें और आगे तब बढ़ी जब वे इलाहाबाद से बाहर गयीं। यह बात हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चन पर भी लागू होती है - वे तभी फूले फले जब पहुंचे बौलीवुड।

यहां पर गौर करने की बात है कि ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में बच्चन जी इलाहाबाद का जिक्र करते हुये कहा था कि,
‘इलाहाबाद बड़े विचित्र ढंग से बसा है, या बसा था। मैं आज से तीस बरस पहले के इलाहाबाद की बात कर रहा हूँ जिसे मैंने अपने लड़कपन से जाना था। मुख्य भाग था उसका दक्षिणी भाग-मुहल्लों, गली, कूचों का। उत्तर का भाग कटरा कहलाता था-दक्षिण से बिलकुल कटा, या जुड़ा तो लम्बे कम्पनी बाग से। इलाहाबाद के प्राचीन, मूल बाशिंदे इन्हीं दो भागों में बसे थे। कम्पनी बाग के पश्छिम का भाग सिविल लाइंस कहलाता था, जिसमें प्राय: अंग्रेज, ऐंग्लो-इंडियनस पारसी और कश्मीरी रहते थे। पूर्व का भाग जार्ज टाउन, जिसमें प्राय: बाहर से आए सम्भ्रांत उत्तर भारतीय लोग थे। सिविल लाइंस और जार्ज टाउन दोनों में मकान बंगले-नुमा थे, तो जार्ज टाउन में सिविल लाइंस की बनिस्बत अंग्रेजी या योरोपीय वातावरण कम था। सिविल लाइंस का प्रतिनिधि आप सर तेज बहादुर सप्रू को कह सकते थे तो जार्ज टाउन का डॉ. गंगानाथ झा को। पंडित मदन मोहन मालवीय मुहल्लों, गली, कूचों वाले ठेठ इलाहाबाद के प्रतिनिधि माने जा सकते थे। इलाहाबाद वालों को अपने बाप-दादों की पुश्तैनी जमीन से बड़ा लगाव है। ऐसे परिवार उँगलियों पर गिने जा सकते हैं जो अपनी समृद्धि में अपने मुहल्लों की जमीन छोड़कर सिविल लाइंस या जार्ज टाउन में जा बसे हों।‘

मेरे इलाहाबादी मित्र कहते हैं कि
'इलाहाबाद शहर अपने मैं अनूठा है - न ही किसी शहर ने देश को इतने प्रधान मन्त्री दिये, न ही साहित्यकार, न ही इतने सरकारी अफसर, न ही इतने वैज्ञनिक, और न ही न्यायविद। इससे सम्बन्धित लोग दुनिया में फैले हैं।'
वे लोग यह भी कहते हैं कि,
'जहां तक साहित्यकारों की बात है जब तक वे इलाहाबाद में रहे सरस्वती उनके साथ रहीं, जब उन्होने इलाहाबाद छोड़ा लक्षमी तो मिली, पर सरस्वती ने साथ छोड़ दिया। उन्हें प्रसिद्धि उस काम के लिये मिली जो उन्होने इलाहाबाद में किया - चाहें वे हरिवंश राय बच्चन हों या धर्मवीर भारती। हरिवंश राय बच्चन माने या न माने उन्होने अपनी सबसे अच्छी कृति (मधुशाला) उनके इलाहाबाद रहने के दौरान लिखी गयी। उन्हें जो भी प्रसिद्धि मिली वह उन कृतियों के लिये मिली, जो उन्होने इलाहाबाद में लिखी। 'सुमित्रा नन्दन पन्त, या महादेवी वर्मा, या राम कुमार वर्मा इस लिये लिख पाये क्योंकि वे इलाहाबाद में ही रहे।'
मैं साहित्य का ज्ञाता नहीं हूं। मैं नहीं कह सकता कि यह सच है कि नहीं और न ही कुछ टिप्पणी करने का सार्मथ्य रखता हूं - फिर भी कुछ सवाल मन में उठते हैं,
  • क्या इलाहाबाद की मिट्टी कुछ अलग है?
  • क्या इलाहाबाद वासी अपने शहर के लिये एहसान फरामोश हैं?
  • क्या कुछ हादसों पर किसी शहर को आंकना ठीक है?
  • क्या आने वाले समय में इलाहाबद शहर गुमनामी में खो जायगा?
मालुम नहीं - इलाहाबाद वासी या उसके एहसान फरामोशी ही जाने।

इस भाग में भी मुझे वह बात (बच्चन-पन्त विवाद) की चर्चा नहीं मिली, जिसके लिये मैंने बच्चन जी की जीवनी पढ़ना शुरु किया - शायद चौथे और अन्तिम भाग में हो।