धर्म की पाती, अनुगूंज के नाम।
बताती है अपना धाम,
इसी के साथ अपना काम।
यही है, उन्मुक्त के जीवन का धर्म,
यही है, उन्मुक्त के जीवन में इसका महत्व।
बताती है अपना धाम,
इसी के साथ अपना काम।
यही है, उन्मुक्त के जीवन का धर्म,
यही है, उन्मुक्त के जीवन में इसका महत्व।
नहीं बसता मैं किसी मन्दिर या मस्जिद में,
न ही रहता हूं किसी गिरिजाघर या गुरुद्वारे में,
न ही बसता हूं किसी पूजा घर में।
यह तो है केवल अपना दिल बहलाना,
मैं तो हूं तुम्हारे आशियाना।
मैं नहीं पाया जाता पुरी, रामेश्वर में,
न ही मक्का, मदीना में,
जेरूसलम या कोई अन्य पवित्र स्थल भी नहीं है मेरे ठिकाने।
यह सब तो है लोगों के अफसाने,
तरीके दिल बहलाने के,
क्योंकि मैं तो वास करता हूं, तुम्हारे मन मानस में।
मुझे, न बता सकते हैं कोई महात्मा, योगी,
न ही कोई बाबा सांई,
न ही मेरी व्याख्या कर सके फकीर, पादरी।
यह तो सब हैं लोगों के फसाने,
तरीके खुद को फुसलाने के।
मैं नहीं सीमित गीता या रामायण में,
न ही हूं बंधा बाईबल या कुरान में।
यह तो थे अपने समय के उचित आचरण,
मैं तो हूं ऊपर इनसे।
मैं नहीं बंधता समय से,
मैं हूं स्वयं समय,
क्या करूंगा, खुद से लड़ कर।
जो परम्परा समय के साथ नहीं बदलती,
वह कहलाती रूढ़िवादिता।
मैं नहीं हूं, रूढ़िवादिता,
न ही, जकड़ा जा सकता किसी परम्परा से।
मैं नही बन्धता इनसे,
मैं तो हूं उन्मुक्त, इन बन्धनों से परे।
मैं न तो हूं राम, न ही कृष्ण,
न ही अल्लाह, न ही पैगमबर,
न ही हूं मैं ईसा मसीह,
या पूजा किये जाने वाले कोई और नाम।
यह तो हैं तरीके, लोगों को समझाने के,
मैं तो हूं ऊपर इन सबके।
नही हूं मैं दकियानूसी,
न ही हूं, अन्धी आधुनिकता।
मैं तो हूं केवल एक आचरण।
मैं नही वह आचरण, जो तोड़े दूसरों के पूजा स्थल।
मैं तो हूं वह आचरण,
जो जवानी के मदहोश दिवानो से, रात में अकेली अबला चाहे;
अभिलाशे दंगे में फंसा इन्सान, आवेश में अधें दंगाइयों से।
मैं नहीं धरोवर केवल हिन्दुवों की,
न ही केवल मुस्लिम, सिख, ईसाई की।
मैं तो हूं वह आचरण,
जो पाया जाये, सब मज़हब में।
मैं नही हूं विचारों का टकराव।
मैं तो हूं दूसरे के विचारों का समझाव।
मैं करता विचारों का आदर, समझता दूसरों का पक्ष।
मैं तो हूं अलग अलग विचारों का सगंम,
जो लाता जीवन में कभी खुशी कभी गम।
मैं हूं वह आचरण—
जो आप अपने लियें चाहें, दूसरे से;
या आप लें, अपने ईमान से।
जो मेरे मर्म को जाने,
नहीं जरूरत उसे किसी पूजा स्थल की।
न ही किसी इष्ट देव की,
शान्ति रहे हमेशा, उससे चिपकी।1
जो चले मेरे रस्ते
न भटके वह,
किसी महात्मा, फकीर के बस्ते।
क्योंकि मैं हूं हमेशा संग उसके।
जो मेरे महत्व को समझे
करे कर्म का वह सेवन,
कर्म ही पूजा, कर्म ही उसका जीवन।
उसका मन, मानस चले संग।
आओ ढूढ़ो, पहचानो मुझको,
मैं हूं खड़ा तुम्हारे अन्दर।
मैं तो हूं केवल,
जी हां, केवल
अन्त:मन से लिया गया विवेकशील आचरण।
1इसका एक पहलू अगली बार
बहुत ही बढ़िया लिखा है। सुलझे विचाल और वह भी पद्य रूप में अभिव्यक्त। मान गए।
ReplyDeleteएकाध शब्दों में अनुस्वार सही स्थान पर नहीं लगा है, उसे सही कर लें। जैसे बधंता, फसां, सगं, उमुंक्त।
धन्यवाद| आपकी नजर बहुत पैनी है|
ReplyDeleteमैं भी अपनी टिप्पणी में तुतला गया ("विचाल")। आप ने फुटनोट (1) का प्रयोग भी बहुत अच्छा किया है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति है। सटीक और तर्कपूर्ण।
ReplyDeleteप्रेमलता
उन्मुक्त जी, मैने आपकी कई सारी पुरानी पोस्ट पढी थी, लेकिन ये नही पढ पाई थी, मुझे ये पन्क्तियाँ खास पसँद आईं -( वैसे सभी पन्क्तियाँ बहुत अच्छी हैं!!)
ReplyDeleteनही हूं मैं दकियानूसी,
न ही हूं, अन्धी आधुनिकता|
मैं तो हूं केवल एक आचरण|
मैं हूं वह आचरण—
जो आप अपने लियें चाहें, दूसरे से;
या आप लें, अपने ईमान से|
बेहद खूबसूरत भाव जो आज के समय की माँग है... काश हम सब इसी आचरण को अपना सकें !
ReplyDeleteखुदाई समीकरण, बहुत खूब!
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