हिन्दू मज़हब की एक धारणा के अनुसार, किसी को नहीं मालुम कि सृष्टि की रचना कैसे हुई - शायद यह उसके कर्ता-धर्ता को भी नहीं मालुम है। इस चिट्ठी में, इसी की चर्चा है।
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हिन्दू मज़हब की एक और कथा के अनुसार यह नहीं पता कि यह सब कैसे शुरू हुआ। शायद यह इसके बनाने वाले को भी नहीं पता है। ऋग्वेद के १०वें अध्याय का १२९वां श्लोक यही बताता है। नीचे इस श्लोक एवं इसका अनुवाद का उद्धरण स्वामी दयानन्द सरस्वती के द्वारा किया गया और दयानन्द संस्थान १५९७, हरध्यान सिंह मार्ग नयी दिल्ली-५ के द्वारा प्रकाशित पुस्तक से लिया गया है।
निहारिक सीएल ००२४+१७ गुच्छे (galaxy cluster CL0024+17) के चारो तरफ डार्क मैटर (dark matter) की रिंग - चित्र नासा के इस वेबपेज से
नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत्।
किमाव॑रीव॒: कुह॒ कस्य॒ शर्म॒न्नम्भ॒: किमा॑सी॒द्गह॑नं गभी॒रम्।।१।।
पदार्थ:- (तदानीम्) उस समय सृष्टि रचना से पूर्व (न, असत्+आसीत्) न अभाव था (नोसद् आसीत्) ना ही भाव था (न रज:) न परमाणु (न व्योमो) ना आकाश (यत् पर:) जो सबसे सूक्ष्म है (किम् + आ + वरीय: ) आवरण क्या था ( कुह) कहां (कस्य शर्मन् ) कैसा घर था (किम् ) क्या (गहनम्) गम्भीर कठिनता से जानने योग्य गहरा (अम्भ:) जल था ।।१।।
न मृत्युरा॑सीद॒मृतं॒ न तर्हि॒ न रात्र्या॒ अह्नं॑ आसीत्प्रके॒त:।
आनो॑दवा॒तं स्व॒धया॒ तदेकं॒ तस्मा॑द्धा॒न्यन्न प॒र: किं च॒नास॑।।२।।
पदार्थ: - (तहिं) तब (न मृत्यु: आसीत्) न मौत थी (न अमृतम्) न अमरत्व था अर्थात् जीवन था न मृत्यु (रात्र्या + अह्न:) रात का दिन का (प्रकेत:) चिन्ह (न + आसीत्) नहीं था, सूर्य चन्द्र वा काल विभाग का कोई चिन्ह (आसीत् + अवातम्) बिना वायु अर्थात् बिना प्राण (स्वधया) अपनी शक्ति से तथा अपनों से धारणा की गई सूक्ष्म प्रकृति के साथ (तत्+एकम्) वह एक (आसीत्) था (तस्मात्+अन्यत्) उसके अतिरिक्त और कुछ (पर:) सूक्ष्म (किन्चन न आस) कुछ नहीं था।।२।।
भावर्थ:- प्रथम मन्त्र के प्रश्नों के उत्तर हैं सूक्ष्म प्रकृति सहित एक ईश्वर था, गीता में ईश्वर की दो प्रकृतियाँ बताई हैं भूम्यादि जड़ पदार्थ और जीव अत: ईश्वर,जीव, प्रृति तीन तत्व थे।।२।।
जब सृष्टि का उपादान कारण अव्यक्त रूप में था तो उसे सत् नहीं कहा जा सकता था क्योंकि वह [अलक्ष्मम् प्रमेयम्] था असत इसलिए नहीं कहा जा सकता कि अभाव से भाव नहीं होता। आकाश वह है जिसमें गमनागमन हो, जब गति का व्यवहार ही नहीं था तो क्या कुछ था? क्या वह आच्छादित था तो उसका आच्छादन क्या था? यहां कौन था? क्या कुछ गहन गम्भीर रूप में था? अर्थात् कुछ था अवश्य पर हमारे लिये वह अज्ञेय है अवर्णनीय है।
तम॑ आसी॒त्तम॑सा गूळहमग्रे॑ऽप्रके॒तं सलि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्।
तु॒च्छयेना॒म्वपि॑हितं॒ यदासी॒त्तप॑स॒स्तन्म॑हि॒नाजाय॒तैकम्।।
पदार्थ:- (अग्ने) सृष्टि के व्यक्त रूप में आने से पहले (तमसा गूढ़म्) अन्धकार से ढका हुआ (तम: आसीत्) अन्धकार था (अप्रकेतम्) लक्षण में न आने वाले (सर्वम् +आ+इदम्) यह सब व्यापक हुआ (सलिलम्) गतिशील पदार्थ था (तुच्छ्येन) सूक्ष्म से (आ भु+अपिहितम्) सब ओर ढका हुआ था (तत्) वह (तपस:, महिना) तप ज्ञान के महत्व से (एकम् + अजायत) एक प्रकट हुआ।।३।।
काम॒स्तदग्रे॒ सम॑वर्त॒ताधि॒ मनसो॒ रेत॑: प्रथ॒मं यदासी॑त्।
स॒तो बन्धुमस॑ति॒ निर॑विन्दन्हृ॒दि प्र॒तीष्या॑ क॒वयो॑ मनी॒ष।।४।।
पदार्थ :- (अग्ने) प्रथम (काम:) संकल्प (सम+अवर्तन) वर्तमान हुआ जो (मनस:, अधि) मन में (प्रथमम् रेत:) प्रथम वीर्य (तत्+आसीत्) वह था (कवय:, मनीषा) क्रान्तिदर्शी विद्वानों ने (हृदि) हृदय में (प्रतीष्य) विचार कर (असति) अभाव में (सती बंधुम) भाव को बांधने वाले सत् को (निरविन्दन्) जाना।।४।।
भवार्थ:- फिर ईश्वर का संकल्प सृष्टि रचना का हुआ और अन्यक्त जगत् व्यक्त रूप में आ गया।।४।।
ति॒रश्र्चनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒ध: स्वि॑दा॒सी३ दु॒परि॑ स्विदासी३त्।
रे॒तो॒धा आ॑सन्महि॒मान॑ आसन्त्स्व॒धा अ॒वस्ता॒त्प्रय॑ति: प॒रस्ता॑त्।।५।।
पदार्थ:- (एषाम् रश्मि:) इन पदार्थों की किरणें (तिरश्चीन: वितत:) तिरछी फैली (अध: स्वित्+आसीत्) कदाचित् नीचे (उपरिस्वित्) कभी ऊपर (असीत्) थी (रेतोधा: आसन् महिमान: आसन्) वीर्य धारण करने वाला ईश्वर था और उसकी महिमायें थी (स्वधा अवस्तात्) प्रकृति छोटी थी (प्रयति: परस्तात्) रचना का पयत्न बड़ा था।।५।।
भावार्थ:- अब ये पदार्थ प्रकट रूप में आने लगे तब भी प्रकृति सीमित थी और बम्हा का रचना गुण महान था।।५।।
को अ॒द्घा वे॑द॒ क इ॒ह प्र वो॑च॒त्कुत॒ आजा॑ता कुत॑ इ॒यं विसृ॑ष्टि:।
अ॒र्वाग्दे॒वा अ॒स्य वि॒सर्ज॑ने॒नाथा॒ को वे॑द॒ यत॑ आब॒भूव॑।।६।।
पदार्थ :- (क: अद्घा वेद) ठीक-ठीक कौन जानता है (इहक: प्रवोचत्) इस विषय में कौन कह सकता है (कुत: आजाता:) कहां से उत्पन्न हुए (कुत: इयं विसृष्टि:) कहाँ से यह विशेष रूप वाली सृष्टि हुई (अस्य विसर्जनेन) इस सृष्टि रचना की तुलना में (देवा: अर्वाक्) विद्वान बाद के हैं (अथ) और (कोवेद) कौन जानता है (यत: आबभूव) जहां से संसार प्रकट हुआ।।६।।
भावार्थ:- सृष्टि रचना प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, अनुमान और शब्द प्रमाण ही इसमें प्रधान है यह कितना उदार विचार वेद ने दिया है।।६।।
इ॒यं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि वा॒ न।
यो अ॒स्याध्य॑क्ष: पर॒मे व्यो॑म॒न्त्सो अ॒ङ्ग वे॑द॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑।।७।।
पदार्थ :- (इयम् विसृष्टि:) यह विशेष रचना (यत: आवभूव) जहां से प्रकट हुई (यद् वा दधे) वा जो इसे धारण करता है (यदि वा न) अथवा नहीं धारण करता है (योऽस्माध्यक्ष:) जो इस सृष्टि का स्वामी है (हे अङ्ग) हे मित्र जिज्ञासु (स:) वह (वेद) जानता है (यदि वा न वेद) क्या नहीं जानता हैं? अर्थात (अपश्यत्) जानता है ।।७।।
भवार्थ:- सृष्टि का मर्म जानने की अपेक्षा ब्रह्मा को जानो "तस्मिन् ह विज्ञाने सर्वमिदं विज्ञान भवति" उपनिषद् कहता है उसके जान लेने पर सबका ज्ञान हो जायेगा। इस सूक्त में दर्शन के मौलिक विचार भगवान् ने मनुष्य को दिये हैं, उनका विकास मनुष्य नाना रूप में करता रहा है। दर्शन का मूल रूप तो सृष्टि और उसकी रचना का विचार ही है ।।७।।
चित्रकार की कल्पना से बाईनरी तारा समूह एच डी ११३७६६ (binary-star system HD 113766) जहां पृथ्वी की तरह ग्रह बनने की आशंका है - चित्र नासा के इस इस वेबपेज से
कई साल पहले दूरदर्शन में, जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (Discovery of India) पर आधारित एक सीरियल आया था। इसके शीर्षक का गीत, इस श्लोक का अनुवाद था। मेरे विचार से यह गीत, इस श्लोक के भाव को जितनी बेहतर तरीके से, जितनी आसान रूप में बताता है वैसी किसी और ने इसकी व्याख्या नहीं की है। गीत के शब्द इस प्रकार हैं:
सृष्टि से पहले,शायद यही सच है।
सत नहीं था,
असत भी नही,
अंतरिक्ष भी नहीं,
आकाश भी नहीं था।
छिपा था क्या, कहां ,
किसने ढ़का था
उस पल तो अगम,
असल जल भी कहां था।
सृष्टि का कौन है कर्ता
कर्ता है वह अकर्ता
ऊचें आकाश में रहता
सदा अदृश्य बना रहता
वही सचमुच में जानता
क्या नहीं है जानता ,
है किसी को नहीं पता, नहीं पता
नहीं है पता, नहीं है पता।
(इस गीत को आप मेरे उपर बताये मेरे पॉडकास्ट में सुन सकते हैं।)
साइंस ब्लॉगरस् एसोसियेशन में भी सृष्टि व जीवन की उत्पत्ति के बारे वैदिक विज्ञान के मत की चर्चा की जा रही है। वह चर्चा हिन्दू मज़हब के बारे में, मेरे द्वारा की गयी चर्चा से कुछ अलग है। मैं न तो संस्कृत का और न ही हिन्दू धर्म का ज्ञाता हूं। मैं नहीं जानता कि मेरे द्वारा अथवा साइंस ब्लॉगरस् पर की जा रही चर्चा ठीक है। मैं इतना अवश्य जानता हूं कि शब्दों के कई अर्थ होते हैं। अक्सर लोग उसके अलग, अलग अर्थ अपनी सुविधानुसार लगा लेते हैं।
मेरे विचार से यह कहना गलत है कि सृजनवाद हिन्दू मज़हब में नहीं है। यह यहां भी है। सच में, सृजनवाद हर मज़हब में है। शायद, यह इसलिए कि पुराने समय में प्राणियों की उत्पत्ति समझाने के लिए सृजनवाद सबसे आसान तरीका था। सृजनवाद के अनुसार मनुष्यों की उत्पत्ति किसी विकासवाद से नहीं, पर किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा सृजन किये जाने पर हुई है। हांलाकि अलग अलग मज़हबों में इस अदृश्य शक्ति का नाम, रूप अलग है।
सर्पिल निहारिका एनजीसी १५१२ (Spiral galaxy NGC 1512) में तारे बनते देखे जा सकते हैं - चित्र नासा की इस वेबपेज से
सृजनवाद केवल प्राणियों की उत्पत्ति तक ही नहीं सीमित हैं पर सृजनवादी यह भी कहते हैं कि यह सौर मंडल , यह ब्रह्माण्ड एक अदृश्य शक्ति के द्वारा सृजित है न कि उस प्रकार जैसे विज्ञान में बताया जाता है। इनके द्वारा इस तरह की डीवीडी भी बाज़ार में बेची जाती है।
अगली बार चर्चा करेंगे, १८ जून १८५८ में डार्विन को मिले पत्र की, किसका था वह किस लिये लिखा गया था। क्यों उसने डार्विन के विचार बदल दिये। कछ चर्चा करेंगे डार्विन के व्यक्तित्व की, वह क्यों ने केवल महानतम वैज्ञानिक थे पर उससे बेहतर इन्सान थे।
इस चिट्ठी के सारे चित्र नासा वेबसाइट से हैं। वे जिस वेबपज से हैं उनका लिंक वहीं दिया है। आप यदि उन चित्रों के बारे में जानना चाहें तो नासा के उस वेब पेज पर चटका लगा कर उसका बड़ा चित्र एवं वर्णन पढ़ सकते हैं। आप भी, नासा के चित्र प्रयोग कर सकते हैं। इस की शर्तें यहां लिखी है।
डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े
भूमिका।। डार्विन की समुद्र यात्रा।। डार्विन का विश्वास, बाईबिल से, क्यों डगमगाया।। सेब, गेहूं खाने की सजा।। भगवान, हमारे सपने हैं।। ब्रह्मा के दो भाग: आधे से पुरूष और आधे से स्त्री।। सृष्टि के कर्ता-धर्ता को भी नहीं मालुम इसकी शुरुवात का रहस्य।।सांकेतिक चिन्ह
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लौकिक और पारलौकिक ज्ञान को समेटे हुये पोस्ट, वैसे एक बात कहना चाहूँगा कि जहाँ विज्ञान खत्म होता है वही सं आध्यत्म की शुरूवात होती है।
ReplyDeleteउन्मुक्त जी, आपने इस लेख को तैयार करने में बड़ी मेहनत कि है लेकिन मैं चाहूँगा कि आप केवल शुद्ध विज्ञान आधारित पोस्ट ही प्रकाशित करें. यह theosophical metaphysics मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ती.
ReplyDeleteयह श्रंखला बहुत उपयोगी है। इस से पता लगता है कि इस विश्व के अस्तित्व में आने के बारे में विचारों का विकास किस तरह हुआ। नासदीय सूक्त आरंभिक विचारों को बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त करता है।
ReplyDeleteउन्मुक्त जी साईंस ब्लॉगर अस्सोसियेशन पर हुयी चर्चा से यह चर्चा सहज ही बुद्धिगम्य है -आपकी प्रस्तुति हमेशा ही काबिले तारीफ़ होती है !
ReplyDeleteयह नासदीय सूत्र /सूक्ति ऋग्वेद का क्रिएशन हायिम -सृजन मन्त्र -ऋचा है -आदि पुरुष स्तब्ध हो कर श्रृष्टि के रचयिता के बारे में खुद से ही तमाम तरह की जिज्ञासाएं कर रहा है और जवाब देने की कोशिश /उधेड़बुन में है !
लेकिन वह इस तार्किक मर्म तक पहुँच ही जाता है -नासदो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतह -मतलब असत से सत नहीं हो सकता और सत्य में अविद्या का अभाव ही नहीं है -मतलब कुछ से ही कुछ उत्पन्न हो सकता है -शून्य से नहीं -जादूगर हवा में से रूमाल या जीव जंतु नहीं उत्पन्न करता -वह पहले से ही वहां मौजूद रहता है
इस तथ्य की अनुभूति तो पुरुष पुरातन ने जब हजारो हजारो साल वर्ष पहले ही कर लिया था तो आज लोग क्यों नहीं समझ पाते !
बहरहाल सृष्टि ऋचा को सुनाने पढाने के लिए कोटिशः धन्यवाद !
बहुत ही उत्कृष्ट प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteis adhyatmik srishty srijan ke gyanvardhak lekh ko padh kar bahut achhalagaa mera manana hai ki kuch baaten keval anubhav ki jaatee haiN use kisee rark ki kasauti par kasa nahin jaa sakata apki post bahut utkrishthh aur saarthak hai badhaai
ReplyDeleteकोई भी जिज्ञासा - चाहे वह सृजन को जन्म देती हो या विकास को; पूज्य है।
ReplyDeleteमेहनत करके लिखी गई पोस्ट है !
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट... इन पुस्तकों को बिना पढ़े ही काम की जानकारियाँ मिल जा रही हैं !
ReplyDeleteविज्ञान कहीं पर खत्म नहीं होता, सृष्टि की शुरूआत कैसे हुई वैज्ञानिक पता लगा चुके हैं.जिज्ञासा का भी कहीं कोई अंत है?
ReplyDeleteये लीजिए, पहली ही टिप्पणी झन्नाटेदार।
ReplyDeleteअब क्या कहेंगे।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आपकी कर्मनि्ष्ठा को नमन बहुत अच्छी पोस्ट है आभार्
ReplyDeleteआप ब्लॉग पर जितना कार्य करते है वो वाकई सराहनीय है!
ReplyDeleteaapka blog vakayee me bahut badiya hain. vignanaur bhagwan ki koj ke baare mein bahut acha lekh diya hain. thank u
ReplyDeleteविचार लिखने के साथ अपना आधार कार्ड भी पोस्ट कर देते तो दया हो जाती।
ReplyDeleteहर धर्मों का स्वर्णिम नियम है - आप दूसरों से क्या कामना करते हैं, पहले आप स्वयं पर लागू करें।
Deleteमेरे विनम्र विचार में, यदि कोई किसी की बात से असहमत होता है तो उसे अपनी बातों से, विचारों से काटना से चाहिये न कि उसका मज़ाक बना कर या उस पर व्यक्तिगत आक्षेप कर। फिर भी आप स्वयं ज्ञानी हैं अपने बारे में स्वयं निर्णय लें।
जहां तक मेरे परिचय की बात है वह यहां है और यह तब से है, जब से इस चिट्ठे को, लगभग १४ साल पहले सन २००६ में लिखना शुरू किया।
आप मेरे चिट्ठे पर आये, टिप्पणी करने लायक समझा, समय दिया, इसके लिये आपको धन्यवाद।