हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवादभाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं
भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलनचौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम
भाग-३: बसेरे से दूर
दसवीं पोस्ट: इलाहाबाद से दूरभाग -४ दशद्वार से सोपान तक
ग्यारवीं पोस्ट: अमिताभ बच्चनबारवीं पोस्ट: रूस यात्रा
तेरवीं पोस्ट: नारी मन
चौदवीं पोस्ट: ईमरजेंसी और रुडिआड किपलिंग की कविता का जिक्र
यह पोस्ट: अनुवाद नीति, हिन्दी की दुर्दशा
कुछ दिन पहले हिन्दी चिट्ठजगत में अनुवाद सम्बन्धी नीति की चर्चा रही। यहां पर कुछ लिखा भी गया। बच्चन जी दिल्ली में विदेश मंत्रालय में अनुवाद करने का कार्य करते थे। वे अनुवाद की नीति के बारे में कहते हैं,
'भाषा सरल-सुबोध होगी
पर बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं
लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को
सही भी होना है।
और मेरा दावा है कि लिखित हिन्दी अंग्रेजी के ऊंचे से ऊंचे स्तर को छूने की क्षमता आज भी रखती है।'
वे भाषा के प्रथम आयोग के परिणामो के बारे में दुख प्रगट करते हुऐ कहते हैं कि,
'सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था कि १५ वर्ष तक यानी १९६५ तक अंग्रेजी की जगह पर हिंदी लाना न आवश्यक है, न संभव; सिद्धान्तत: हिंदी राजभाषा मानी जायगी, अंग्रेजी सहचरी भाषा; (व्यवहार में उसके विपरीत: अंग्रेजी राजभाषा, हिंदी सहचरी - अधिक उपयुक्त होगा कहना ‘अनुचरी’)। सरकारी प्रयास हिंदी के विभिन्न पक्षों को विकसित करने का होगा - प्रयोग करने का नहीं - जिसमें कितने ही १५ वर्ष लग सकते हैं। मेरी समझ में प्रयोग से विकास के सिद्धान्त की उपेक्षा कर बड़ी भारी गलती की गई; अंततोगत्वा जिसका परिणाम यह होना है कि हिंदी तैयारी ही करती रहेगी और प्रयोग में शायद ही कभी आए - “डासत ही सब निशा बीत गई, कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो"।'
मुझे बच्चन जी की यह बात ठीक लगती है। हिन्दी की दुर्दशा का यह भी एक कारण है।
अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।
प्रिय बन्धु,
ReplyDeleteआप ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है।
मुझे लगता है कि तत्कालीन सरकारें तो हिन्दी को लाना भी चाहती थी। परन्तु इच्छा शक्ति में कमी व जनता की ओर से तटस्थता के कारण वें ऐसा कर न सकीं। अब तो हिन्दी की वर्तमान दुर्दशा से बाहर आने का एकमेव मार्ग गैर राजनैतिक आन्दोलन ही हो सकता है।