Tuesday, October 17, 2006

हरिवंश राय बच्चन: नियम

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
यह पोस्ट: नियम
अगली पोस्ट: भाग-३: बसेरे से दूर

कुछ दिन पहले नारद में हुई घटनाओं के कारण जीतेन्द्र जी ने परिचर्चा पर 'नारद पर हिन्दी चिट्टों के लिये नियमावली' नामक एक चर्चा शुरु की। जब उन्हे सही जवाब नहीं मिल सके तो कुछ सवाल रख कर उन पर विचार मागें। यह सवाल निम्न थे,
  1. क्या नारद पर ब्लॉग अपने आप शामिल किए जाए, अथवा जब ब्लॉग लेखक उन्हे शामिल करने के लिए कहे तभी करे?
  2. शामिल करते समय क्या हम ब्लॉग लेखक से एक नियमावली पर सहमति कराए, जिसमे हम उन्हे ब्लॉग को नारद पर शामिल होने और निकाले जाने की शर्तो को उल्लेख करें?
  3. यदि किसी ब्लॉग मे हिन्दी और अंग्रेजी का मिश्रण होता है तो उस स्थिति मे क्या डिसीजन लें? (कई लोग अंग्रेजी मे लिखना शुरु करते है धीरे धीरे हिन्दी पर नियमित रुप से लिखने लगते है।)
  4. अश्ललीलता, गाली गलौच,वर्जित विषय, सामाजिक द्वेष, नफ़रत फैलाने वाले अथवा अन्य समाज विरोधी ब्लॉग्स का क्या करें?
  5. ब्लॉग को नारद के फीड से अलग करने के लिये क्या क्या नियम रखें?
  6. कुछ लोग अपने ब्लॉग मे लगातार बदलाव करके नारद के प्रथम पृष्ठ पर आने की कोशिश करते है, उस स्थिति मे क्या करें?
  7. कुछ ब्लॉग दूसरों के ब्लॉग से कन्टेन्ट चोरी करके अपने ब्लॉग पर लिखते है, उनका क्या करें?
  8. कुछ अपने प्रोडक्ट की तारीफ़ के लिये ब्लॉग लिखते है (डायरेक्ट मार्केटिंग) उनका क्या करे?
मेरे विचार में नियम कम से कम होने चाहिये। इन सवालों के मेरे जवाब यह थे,
  1. हिन्दी का ब्लौग हो तो बिना पूछे शामिल कर लेना चाहिये। वेब में लिखने का अर्थ है कि लिखने वाले की सहमति है जब तक वह स्वयं स्पष्ट रूप से न मना करे। सच तो यह है कि यदि वह मना करता है तो उसे वेब में लिखना नहीं चाहिये।
  2. नियमावली में सहमति करवाने की कोई जरूरत नहीं है।
  3. नारद की केवल एक शर्त होनी चाहिये कि मुख्यत: हिन्दी में चिट्ठा हो यदि अंग्रेजी में कोई चिट्ठी लिख दी तो कोई बात नहीं। यदि मिश्रित भाषा है तो भी कोई बात नहीं, उसे लेना चाहिये।
  4. हर व्यक्ति अपना conscience keeper है। इन सब बातों के अर्थ अलग अलग लोगों के लिये अलग है। देश विरोधी या समप्रदायिक बात कर रहा है तो सरकार उस चिट्ठे को हटाने के लिये सक्षम है। उसे नारद द्वारा हटाना ठीक नहीं।
  5. उत्तर के लिये जवाब २, ३ देखें।
  6. जहां तक में समझता हूं कि नारद में समय के अनुसार प्रथम पेज पर पोस्ट आती है प्रथम पेज पर आने के लिये नयी पोस्ट करनी पड़ेगी। यह कभी कभी करनी पड़ती है उसके कई कारण होसकते हैं, ब्लौगर ठीक नहीं चलता है; कभी कभी तकनीक का अच्छा ज्ञान नहीं होता है; और कभी इन्टरनेट कि अच्छी सुविधा नहीं होती है। यदि कोई व्यक्ति नारद के प्रथम पेज पर रोज रहे लेकिन कूड़ा लिखता हो तो कोई भी उसे खुद नहीं पढ़ेगा। नारद को कुछ करने कि जरूरत नहीं है। यदि वह अच्छा लिखता हो तो वह यदि महीने में एक भी चिट्ठी लिखेगा तो भी सब पढ़ेंगे और उसका इन्तजार करेंगे। नारद उसे हटा भी देगा तो भी लोग उसे पढ़ेंगे। मेरे विचार से उसे चलने देना चाहिये। गलतफहमी में नयी पोस्ट को पुरानी पोस्ट समझ कर गलती हो सकती है।
  7. कब चोरी है कब नहीं, यह तय करना थोड़ा मुश्किल कार्य है। यह, जिसने चोरी की है तथा जिसकी चोरी हुई है, उनके बीच में छोड़ देना चाहिये। नारद को इसमे नहीं पड़ना चाहिये। नारद को कोई न कोई manage करता है परन्तु नारद को, उस व्यक्ति से पृथक होना चाहिये। मुझे तो सुनील जी कि बात अच्छी लगती है, जो उन्होने अपने चिट्ठे पर लिखी है।
  8. आजकल तो official bloggers भी होते हैं। यदि कोई लिखता है तो लिखे। उसे इस पर हटाने कि जरूरत नहीं।'

बच्चन जी भी नियम और सिद्धान्त से बंधना नहीं चाहते थे इसलिये किसी क्लब या कला सदस्य के सदस्य नहीं रहे पर यदि निमंत्रण होता तो अवश्य जाते थे। इसके बारे में कहते हैं कि,
’मेरा कार्य युनिवर्सिटी में पढ़ाने और अपने अध्ययन-कक्ष में पढ़ने-लिखने तक सीमित हो गया। मैं कभी किसी क्लब वगैरह का सदस्य नहीं बना, किसी कला-साहित्य संस्था का भी नहीं। अलबत्ता अगर कोई मुझे निमन्त्रित करती तो मैं उसमें सहर्ष भाग लेता। संस्थाऍ किसी-न-किसी सिद्धान्त से बंधती हैं- मैं अपने को किसी सिद्धान्त से बांधना नहीं चाहता था। मैं अब भी समझता हूं कि मुक्त दृष्टि कलाकार की पहली आवश्यकता है। और यह भी कि बौद्धिक विकास और सृजन, समूह में नहीं, एकान्त में ही सम्भव हैं। संस्था अगर उसे कह सकें तो एक छोटी-सी मैंने अपने घर पर ही खोल दी थी। इसका नाम मैंने ‘निशान्त’ रख दिया था। इसके न कोई नियम थे, न सदस्यता की कोई फीस थी। कुछ लोग जिनमें अधिकतर युनिवर्सिटी के नाते मेरे विद्यार्थी थे - महीने के अन्तिम शनिवार को 10 बजे रात से बैठते थे। और काव्‍य-पाठ, साहित्य चर्चा में रात बिताते थे। एक या दो बजे रात को हमीं लोग मिल-मिलाकर कॉफी अथवा कोई ताजी-गरम खाने की चीज बनाते, खाते-पीते, और तारों की महफिल के उठने तक हम अपनी बैठक जमाए रहते। दूसरे दिन इतवार होता और लोग दिन को सोकर रात की नींद पूरी कर लेते।'


अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

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