Friday, March 30, 2007

संविधान, कानूनी प्राविधान और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज: आज की दुर्गा

हमारे संविधान का अनुच्छेद १५(१), लिंग के आधार पर भेदभाव करना प्रतिबन्धित करता है पर अनुच्छेद १५ (२) महिलाओं और बच्चों के लिये अलग नियम बनाने की अनुमति देता है। यहीं कारण है कि महिलाओं और बच्चों को हमेशा वरीयता दी जा सकती है।

संविधान में ७३वें और ७४वें संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों को स्वायत्तशासी मान्यता दी गयी । इसमें यह भी बताया गया कि इन निकायों का किस किस प्रकार से गठन किया जायेगा। संविधान के अनुच्छेद २४३-डी और २४३-टी के अंतर्गत, इन निकायों के सदस्यों एवं उनके प्रमुखों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित की गयीं हैं। यह सच है कि इस समय इसमें चुनी महिलाओं का काम, अक्सर उनके पति ही करते हैं पर शायद एक दशक बाद यह दृश्य बदल जाय।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम है। हमारे देश में इसका प्रयोग उस तरह से नही किया जा रहा है जिस तरह से किया जाना चाहिये। अभी उपभोक्ताओं में और जागरूकता चाहिये। इसके अन्दर हर जिले में उपभोक्ता मंच (District Consumer Forum) का गठन किया गया है। इसमें कम से कम एक महिला सदस्य होना अनिवार्य है {(धारा १०(१)(सी), १६(१)(बी) और २०(१)(बी)}।

परिवार न्यायालय अधिनियम के अन्दर परिवार न्यायालय का गठन किया गया है। पारिवारिक विवाद के मुकदमें इसी न्यायालय के अन्दर चलते हैं। इस अधिनियम की धारा ४(४)(बी) के अंतर्गत, न्यायालय में न्यायगण की नियुक्ति करते समय, महिलाओं को वरीयता दी गयी है।

अंर्तरार्ष्टीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज Convention of Elimination of Discrimination Against Women (CEDAW) (सीडॉ) है। सन १९७९ में, संयुक्त राष्ट्र ने इसकी पुष्टि की। हमने भी इसके अनुच्छेद ५(क), १६(१), १६(२), और २९ को छोड़, बाकी सारे अनुच्छेद को स्वीकार कर लिया है। संविधान के अनुच्छेद ५१ के अंतर्गत न्यायालय अपना फैसला देते समय या विधायिका कानून बनाते समय, अंतर्राष्ट्रीय संधि (Treaty) का सहारा ले सकते हैं। इस लेख में आगे कुछ उन फैसलों और कानूनों की चर्चा रहेगी जिसमें सीडॉ का सहारा लिया गया है।

क्या महिलायें व्यक्ति होती हैं? आप कहेंगे कि यह क्या बेवफूकी का सवाल है। पुरुष और महिला दोनो ही व्यक्ति होते हैं। जरुर होती होंगी पर क्या कानून की दृष्टि में ऐसा होता है। फिर वही बेवकूफी की बात। उन्मुक्त जी आप अच्छा मजाक कर लेते हैं। मजाक खत्म करें, नहीं तो मैं दूसरा चिट्ठा पढ़ने जा रहा हूं।

कानून में महिलाओं को व्यक्ति का दर्जा मिलने में महिलाओं को ६० साल की लड़ाई लड़नी पड़ी। उन्हें सबसे पहले सफलता मिली अपने देश में। जी हां भारत वर्ष वह भी अपने देश के उच्च न्यायालय में।

तो अगली कुछ चिट्ठियों में इस ६० साल की लड़ाई के बारे में बात करेंगे। बात करेंगे फैसलों के बारे में, देखेंगे कि उनमें क्या कहा गया है। हम चलेंगे दुनिया के न्यायालयों की सैर करने जहां पर यह मुकदमें चले। तो अगली बार मिलेंगे इस ६० साल की लड़ाई की भूमिका के बारे में।

यदि आप, इस चिट्ठी को पढ़ने के बजाय, सुनना पसन्द करें तो इसे मेरी 'बकबक' पर यहां क्लिक करके सुन सकते हैं।


बकबक पर सारी ऑडियो क्लिपें, ogg फॉरमैट में है। ogg फॉरमैट की फाईलों को आप,
  • Windows पर कम से कम Audacity एवं Winamp में;
  • Linux पर लगभग सभी प्रोग्रामो में; और
  • Mac-OX पर कम से कम Audacity में,
सुन सकते हैं। मैने इसे ogg फॉरमैट क्यों रखा है यह जानने के लिये आप मेरी शून्य, जीरो, और बूरबाकी की चिट्ठी पर पढ़ सकते हैं।

आज की दुर्गा
महिला दिवस|| लैंगिक न्याय - Gender Justice|| संविधान, कानूनी प्राविधान और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज

1 comment:

  1. मैं भी व्यक्ति हूँ जानकर दिल गदगद हो गया। अच्छी जानकारी दे रहें हैं आप।
    धन्यवाद।
    घुघूती बासूती

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