यह चिट्ठी बदलते परिवेश, बदलते मूल्यों को समझने की कोशिश है।
परिवार के साथ समय व्यतीत करना सबसे सुखद रहता है। हमारे पिछले कुछ दिन इसी तरह से बीते। मुन्ना और बिटिया रानी भारत यात्रा पर थे। बिटिया रानी, वास्तव में, मेरी बहुरानी है और मैं उससे की गयी ई-पाती, अक्सर पोस्ट करता हूं। मैं उन दोनो को लेने दिल्ली गया था।
मेरा दिल्ली जाना, सबसे पहले १९६० में हुआ था। १९७० के बाद लगभग हर साल कम से कम एक बार दिल्ली जाना होता है – पिछले कुछ सालों में, साल में कई बार।
मेरा पसन्दीदा शौक है - पुस्तकों की दुकान पर जाना। मुझे दिल्ली में कनॉट प्लेस पर स्थित बुकवर्म पुस्तक की दुकान सबसे अच्छी लगती है। इसमें न केवल मेरे पसन्द की पुस्तकें रहती हैं पर इसका मालिक भी मुझे जानकार व्यक्ति लगता है। उसे न केवल पुरानी पुस्तकों पर नयी पुस्तकों के बारे में अच्छी जानकारी रहती है। मेरे विचार से वह पुस्तकों की दुकान या पुस्तकालय के लिये उपयुक्त व्यक्ति है। मैं १९७० के दशक से उसके दुकान का नियमित ग्राहक हूं।
दिल्ली में, मुन्ने ने पूछा,
'पापा, क्या हम लोग बुकवर्म नहीं चलेंगे?'मैंने कहा कि हम जरूर चलेंगे। हम जब बुकवर्म गये तो मैंने बाहर सेल का बोर्ड लगा देखा, मन में खटका हुआ। दुकान के अन्दर मैंने बिटिया रानी से कहा इस अलमारी में समान्य विज्ञान की पुस्तकों का सबसे अच्छा संग्रह रहता है। उसका मालिक बोला अब नहीं। मेरे पूछने पर उसने बताया,
'हम यह व्यापार बन्द कर रहे हैं।'मैंने कहा,
'मेरे विचार से आपकी दुकान, पुस्तकों की बेहतरीन दुकानों में से है। मैं जब दिल्ली रहता हूं यहां एक चक्कर जरूर लगाता हूं। आप इसे क्यों बन्द कर रहे हैं।'उसने सिर झुका कर कहा,
'हमारी दुकान के अच्छे शब्दों का प्रयोग करने के लिये धन्यवाद, पर निर्णय ले लिया गया है हम इसे बन्द कर रहे हैं।'वह हमसे इस बारे में बहस नहीं करना चाहता था। शायद यह फैसला उसके मन का न हो और परिस्थिति-वश लिया गया हो।
पुस्तकों की दुकान में प्यार भी हो सकता है।
यह चित्र नॉटिंग हिल (Notting Hill) फिल्म से है। यह बेहतरीन रोमानी फिल्म है जो प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री (जूलिआ रॉबर्टस् Julia Roberts) और पुस्तक दुकान मालिक (हग ग्रांट Hugh Grant) की प्रेम कहानी है। यह शुरू होती है पुस्तक की दुकान पर जहां जूलिआ पुस्तक लेने जाती हैं।
यदि आपने इसे नहीं देखा है, तो अवश्य देखें।
मुन्ना और बिटिया रानी जब वापस जाने लगे तो मैं फिर दिल्ली उन्हें छोड़ने गया। मुझे लगा कि दिल्ली में अब दूसरी दुकान ढ़ूढ़नी चाहिये। मैं सालों पहले साउथ एक्सटेंशन में टेकस्न नामक दुकान पर गया था और मुझे लगा कि मुझे इस पर जा कर पुनः देखना चाहिये।
मैं जब पहले गया था तो टेकस्न दुकान ग्राउंड फ्लोर पर थी अब नीचे तहकाने में हो गयी है। यहां भी, मेरी पसन्द की पुस्तकों का अच्छा संग्रह था। मुझे लगा कि दिल्ली में ठौर यहीं रहेगी। लेकिन कुछ देर में वहां पर जोर जोर से महिलाओं और लड़कियों की बात सुनायी पड़ने लग गयीं। मैंने देखा कि काउंटर पर बैठी महिला वहीं पर लड़कियों से जोर जोर से बात कर रही थी। वे किताबों बारे में नहीं बात कर रही थी, वे रोज़मर्रा की बात चीत कर रहीं थीं, जिसकी वहां कोई जरूरत नहीं थी। वहां पर कुछ पुरुष भी थे। वे देख रहे थे कि दुकान से कोई चोरी न करे। वे समझ गये कि महिला और लड़कियों से क्या गलती हो रही है। उनमें से एक ने तुरन्त महिला से बात करने को मना किया। वह कुछ देर तो चुप रही और फिर शुरू हो गयी।
मुझे तो लगा कि इन लोगों को किसी किताबों की दुकान पर न काम करके किसी रेस्ट्राँ में काम करना चाहिये था। पुस्तकों की दुकानों पर शान्ति रहनी चाहिये या हल्का सा संगीत होना चाहिये। बात करनी भी हो तो पुस्तकों की - रोज मर्रा की बातें तो कॉफी हाउस में ही की जाती हैं।
वे भाग्यशाली हैं जो उस जगह पर हैं, जहां वे रहना चाहते हैं और वह कर रहे हैं जो उन्हें मन-पसन्द है। शायद हम सब गलत जगह पर हैं।
मैं संशय में पड़ गया हूं कि अगली बार टेक्सन जाऊं या नहीं - पुस्तकें तो मन पसन्द है पर माहौल ... मुझे हैदराबाद में भी कुछ इस तरह को अनुभव हुआ था जिसके बारे में मैंने 'आप किस बात पर सबसे ज्यादा झुंझलाते हैं' नाम की चिट्ठी लिखी थी। लगता है कि झुंझलाना जारी रहेगा।
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(सुनने के लिये चिन्ह शीर्षक के बाद लगे चिन्ह ► पर चटका लगायें यह आपको इस फाइल के पेज पर ले जायगा। उसके बाद जहां Download और उसके बाद फाइल का नाम अंग्रेजी में लिखा है वहां चटका लगायें।: Click on the symbol ► after the heading. This will take you to the page where file is. Click where 'Download' and there after name of the file is written.)यह ऑडियो फइलें ogg फॉरमैट में है। इस फॉरमैट की फाईलों को आप -
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yeh post badalte privesh, badalte moolyon ko smjhne kee koshish hai. yeh hindi (devnagree) mein hai. ise aap roman ya kisee aur bhaarateey lipi me padh sakate hain. isake liye daahine taraf, oopar ke widget ko dekhen. This post is an effort to understan changing times, changing values. It is in Hindi (Devnaagaree script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script. |
सांकेतिक शब्द
ओह।।
ReplyDeleteआपको हुई इस वेदना के लिए मैं अपने शहर दिल्ली की ओर से आपसे क्षमा मांगता हूँ। शहरों को वही संस्कृति मिलती है जिसके कि वे लायक होते हैं। हम अपनी किताब की दुकानों, अपने रंगमंचों, पुस्तकालयों को पर्याप्त्ा समर्थन नहीं दे पा रहे हैं इसका अफसोस है।
दिल्ली में अच्छे पुस्तकालय कम ही हैं, और मेरे शौक की पुस्तकें (science fiction) नहीं मिलती, वे तो मिलती हैं सिर्फ रविवार को नेताजी सुभाष मार्ग पर लगने वाले लंबे पटरी बाज़ार पर. क्या आप कभी वहां गये हैं?
ReplyDeleteनयी किताबें मैं ज्यादातर बुक कॉफे नाम के पुस्तकालय से खरीदता हूं. मेरा वाला नौयडा के शापरिक्स मॉल में है. वैसे इसकी कई शाखायें हैं. लेकिन सारी छोटी होती हैं. इनके पास अच्छी नई किताबें होती हैं, और आप जो किताब चाहें ये मंगवा देते हैं. मैंने इसके क्लब की मेम्बरशिप ली, अब मुझे 10 प्रतिशत की छूट मिलती है.
अब किताब पढ़ने का चलन बंद हो रहा है. शायद टीवी और इंटरनेट के कारण. जब मैं 20-24 साल का था तब कम्पयुटर तकनीक की किताबें बहुत खरीदता था. हर साल 25-30. लेकिन अब एक भी नहीं खरीदता. सारी जानकारी इंटरनेट से ही लेता हूं.
नेट से पढ़ाई की एक नई क्रांति की शुरुआत है, शायद ये एक अच्छी बात है.
अच्छी चीज़ें चाहें नेट पर पढ़ें या किताब में. बात तो एक ही है न?
शायद टिप्पणी कुछ ज़्यादा लंबी हो गई. :)
बुकवर्म का बन्द होना एक त्रासदी से कम नहीं लगता. मेरी भी अनगिनत यादें इस से जुड़ी हुईं है.
ReplyDeleteलेकिन आजकल किताबें नहीं बिकतीं. जिस प्रकाशन की पुस्तकें 5100 छपा करतीं थीं अब सिर्फ 2100 या 1100 छपतीं हैं. हिन्दी के पब्लिशरों का तो बहुत बुरा हाल है. ढेर सारी किताबों की दुकानें बन्द हो रहीं है. 2016 तक अंग्रेजी के लगभग सभी प्रमुख अखबार बन्द हो जायेंगे. बस हिन्दी के थोड़े से अखबार बचे रहेंगे.
किताबें छापना जोखिम का काम है. प्रेस के रेट दुगुने से भी अधिक हो गये हैं. कागज ढाई गुना हो गया है. पोस्टेज के रेट भी अनाप शनाप बढ़ गये हैं इस पर तुर्रा ये कि डाकघर किताबें भेजने में रोड़े अटकाते हैं. कुछ इक्का दुक्का किताबें हिट होती है तो उनके पायरेटेड संस्करण चौराहों पर आ धमकते हैं. किताब की दुकानों की इतनी बुरी हालत है कि वे महींनों अपनी देनदारी नहीं चुका पाते. यहां तक कि समय पर अपने स्टाफ को वेतन भी नहीं दे पाते. एसे समय में कुशल स्टाफ कैसे रख पायें?
कागज पर छपी किताबें बस कुछ ही सालों की मेहमान हैं.
लेकिन विचारों का अस्तित्व तो रहेगा. अब विचार कागज के ऊपर न रहकर किन्डेल या अपने ई-फार्म में रहेगीं. इनके छपने में पेड़ नहीं काटने पड़ेंगे.
बात तो एक ही है न अच्छी चीज़ें नेट पर पढ़ें या किताब में.
ReplyDeleteहम तो कभी गये नहीं टेक्सन मगर खान मार्केट की किताब की बड़ी दुकान में गये थे सीन ऐसा ही था मगर हिन्दी की किताब मांगने पर अजीब सा मूँह बना दिया था सेल्स वाले ने. :)
ReplyDeleteकिताबों की दुकानें बंद होने पर बहुत दुख होता है। हमारे समय में स्कूल कॉलेज पुरुस्कार के तौर पर किसी किताबों की दुकान के कूपन देते थे और हम अपनी मनपसन्द किताबें खरीदकर स्कूल कॉलेज को दे देते थे और फिर वे किताबें वार्षिक उत्सव के दिन हमें मिल जाती थीं। आज भी ऐसा ही होना चाहिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
mujhe to net mein padhne mein wo maza nahi aata jo kitaab padhne mein aata hai...ek achchi dukaan ka is tarah band hona dukhad hai!
ReplyDelete
ReplyDeleteवे भाग्यशाली हैं जो उस जगह पर हैं, जहां वे रहना चाहते हैं और वह कर रहे हैं जो उन्हें मन-पसन्द है। शायद हम सब गलत जगह पर हैं।
सही बात कही आपने। किताबों क दुकाने बन्द होना वाकई दुखद है।
यह सारा परिदृश्य व्यथित करता है -उन्मुक्त जी ,लगता है कि पुस्तक प्रेमियों की प्रजाति अब लुप्त हो रही है -आप सरीखे पुस्तक प्रेमी एक मिट चली परंम्परा के कुछ आख़िरी नुमायिन्दों में से हैं -
ReplyDeleteपुस्तक प्रेम मानवी व्यसनों की एक सुन्दरतम अभिव्यक्ति है -मगर लगता है कि अब सुंदर -सुकोमल मानवीय वृत्तियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं -ऐसी अभिरुचियों के लोग आउटडेटेड हो चले हैं .
क्या ग़लत है क्या सही यह भी कह पाना अब मुश्किल हो चला है -पुस्तकों का कारोबार सिमट चला है तो दोष किसका है -पाठक ही नहीं हैं तो पुस्तके ही कहां रहेंगीं ?
जब देश की राजधानी दिल्ली में यह हालत हैं तो पूरे देश का अंदाजा मिल ही जाता है -कमोबेस यही स्थिति पूरे देश में हैं -
व्यथित कराने वाली पोस्ट -आज सुबह सुबह ही यह वृत्तांत पढ़ कर मन दुखी हो गया -पर घनेरे बादलों में बिजली की एक कौंध दिख तो रही है -यह नेट तो हैं ना .........
बुकवर्म के बन्द होने के विषय में इण्टरनेट पर ही पढ़ा था - शायद रिडिफ पर। और तब बहुत अफसोस हुआ था। आज आपने उसे ताजा कर दिया।
ReplyDeleteबुकवर्म बंद? रियली? सचमुच अवसादी समय है.
ReplyDeleteकहाँ-कहाँ झुंझलाएँ? हर तरफ़ यही मंज़र है।-प्रेमलता
ReplyDeleteउन्मुक्तजी... बड़े बेटे में दीवानगी की हद तक दुनियाभर की किताबें पढ़ने ज़ुनून है,,धीरे धीरे अब छोटा बेटा भी उस हद तक जाने लगा है लेकिन फिर भी बड़े भाई को पक्का हिन्दुस्तानी आदमी कह कर चिढ़ाता है जब वह नाश्ते के वक्त अखबार पढते हुए चाय पीता है...
ReplyDeleteजबसे मै कोलकता से कोटा आयी हूँ एक भी ढंग की किताब नही मिली, कई दफ़ा ऑर्डर देकर मंगाया है पर हफ़्तो तक इंतजार के बाद भी शायद ही मिलती हो, इस परेशानी से बचने के लिये अब इन्टरनेट पर ही अपनी पसन्द खोज लेती हूँ या फ़िर किसी मित्र से बोलना पडता है। अब बार बार मुड खराब करने और दुकानदार से लडने की अपेक्षा ये तरीका ज्यादा अच्छा लगा।
ReplyDeleteअब समझ में आया कि आप पुस्तक की दुकान में क्यों जाते हैं। कहीं यह सोच कर तो नहीं कि नॉटिंग हिल की कहानी वहां दुहरा जाए?
ReplyDeleteपूर्वी को किताबें बहुत पसंद थी..उसे पास पडोस के लोग या रिश्तेदार उसी तरह याद करते हैं..उसके हाथ मे हरदम पढने के लिये कोइ पुस्तक या अखबार या पत्रिका होती..
ReplyDeleteआजकल छोटी बेटी भी पढने लगी है..