इस चिट्ठी में - राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल वन्यजीव अभयारण्य (National Chambal Gharial Wildlife Sanctuary) और 'मेला कोठी, द चंबल सफारी लॉज', जहां हम ठहरे थे - का वर्णन है।
राष्ट्रीय चम्बल अभयारण्य
राष्ट्रीय चम्बल अभयारण्य और मेला कोठी।। मगर दिखे पर घड़ियाल नहीं।। स्वच्छ भारत अभियान - बिना हमारी भागीदारी के नाकामयाब है।।
चंबल नदी की कथा बहुत पुरानी है। महाभारत में वर्णन है। राजा रंतिदेव ने यज्ञों में, हजारों गायों की बलि चढ़ा दी थी। गायों के खून से, चंबल नदी की उत्पत्ति हुई, इसलिये इसे अपवित्र माना गया। मृत गायों का चमड़ा भी वहीं सुखाया गया, इसलिये इसे चर्मण्वती कहा गया। बाद में, यह चंबल हो गया।
कुछ लोककथाओं के अनुसार, चंबल क्षेत्र, शकुनि के राज्य गंधार का हिस्सा था। इसी के तट पर चौसर खेली गयी थी और द्रौपदी का चीर-हरण हुआ। उसके श्राप के कारण, जो भी व्यक्ति इसका पानी पीता था, वह अभिशप्त हो जाता था। नदी के दोनो तरफ बीहड़ है जिस पर डाकुओं ने बसेरा बना लिया या शायद पानी पीने के कारण अभिशप्त हो गये। इसी कारण यह जगह अछूती रही और प्रदूषण से बच गयी। यह पर्यावरण और वन्य जीवन के लिये वरदान साबित हुई। यहां तरह तरह के पक्षी और पानी के जानवर मिलते हैं।
१९७० में, एक अमेरिकी घड़ियाल का चित्र लेकर भारत आया। उसने कई जंगल विभाग के अधिकारियों से पूछ कि क्या घड़ियाल कहीं देखा जा सकता है। उनका जवाब था कि यह लुप्त हो चुका है। फिर उसकी मुलाकात, चंबल नदी के पास रहने वाले एक व्यक्ति से हुई। उसने बताया कि घड़ियाल चंबल नदी में दिखायी देता है। इसके बाद भारत सरकार को घड़ियाल के जीवित होने का पता चला और इनके संरक्षण की बात चली।
सरकार ने, चंबल नदी के साथ, २ से ६ किलोमीटर की चौड़ाई लेकर (जिससे इसका बगल का बीहड़ भी शामिल हो जाय), नदी की लम्बाई को, लगभग ५,४०० वर्ग किलो मीटर जगह को संरक्षित कर दिया। यह भाग तीन राज्यों - मध्यप्रदेश, राजस्थान, और उत्तर प्रदेश - में है और उन्होंने इसे अलग-अलग अधिसूचना के द्वारा, १९७८-७९ में संरक्षित किया। यह मुख्य रूप से, घड़ियाल, लालमुकुट कछुआ, और विलुप्तप्राय गंगा सूंस (Dolphin) की रक्षा के लिए बनायी गयी है।
इस जाड़े की छुट्टी में, हमने चम्बल अभयारण्य घूमने का प्रोग्राम बनाया। आगरा जिले के, बाह तहसील में, जरार नाम का गांव है। वहां के जमींदार ने अपनी कोठी को होटेल में बना दिया है। यह 'मेला कोठी, द चंबल सफारी लॉज' के नाम से जाना जाता है। यह कोठी लगभग १५० साल पुरानी है। इसके घुड़साल को भोजन कक्ष बना लिया गया है।
हम यहां दो दिन ठहरे। यहां के कमरे, साफ सफाई, खाना बहुत अच्छा था। दिन के समय, बाहर लॉन में बैठ कर खाना, रात को अलाव के चारो तरफ बैठ कर, सूप, कॉफी का सेवन करते हुऐ, तारों को देखना, गप्प मारना, सुखद अनुभव था। यहां बार भी है। कुछ इच्छुक लोग व्हिस्की, वाइन, बीयर का भी आनन्द ले रहे थे।
यह लॉज लगभग ३५ एकड़ जमीन पर फैला है। इसके बहुत बड़े भाग में पेड़ लगे हैं जिसमें तरह-तरह के पक्षी और जानवर थे। एक दिन हमने इसका चक्कर लगा कर इसका भी आन्नद लिया। वहां, मैं पुनः जाना चहूंगा पर अपने मित्रों के साथ।
यह लॉज लगभग ३५ एकड़ जमीन पर फैला है। इसके बहुत बड़े भाग में पेड़ लगे हैं जिसमें तरह-तरह के पक्षी और जानवर थे। एक दिन हमने इसका चक्कर लगा कर इसका भी आन्नद लिया। वहां, मैं पुनः जाना चहूंगा पर अपने मित्रों के साथ।
चंबल अभयारण्य का गेट, इस लॉज से १९ किलोमीटर दूर है। वहां लॉज की दो मोटरबोट हैं, जिसमें वे नदी की सैर कराते हैं। एक दिन हम लोग वहां भी गये थे। वहां हमने क्या देखा और किस बात ने हमें दुखी किया - इसकी चर्चा अगली बार।
मेला कोठी सफारी लॉज के बारे में, आप इनकी वेबसाईट से अधिक जानकारी ले सकते हैं और अपनी बुकिंग करा सकते हैं।
इस चिट्ठी का पहला चित्र मेरा लिया हुआ है यह चंबल नदी का है। बाकी दोनो मेला कोठी की वेबसाइट से, उन्ही के सौजन्य से हैं।
सांकेतिक शब्द
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