आज शिवरात्रि है। एक सौ तीस साल पहले, शिवरात्रि के दिन, मेरे बाबा (जन्म ८-९ मार्च १८९१, मृत्यु १९ जून १९७३), इस दुनिया में आये थे। वह अनूठे व्यक्ति थे, अपने समय से, कम से कम, सौ साल आगे। उन्होंने अपनी बहुओं को पर्दा नहीं करने दिया, बहुओं के साथ घूमना, उन्हें नदी में तैरना सिखवाना, उन्हें बाहर जाने की आजादी देना, और शादी के बाद उन सब को पढ़ाना - यह पिछली शताब्दि के पहले भाग में, बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाके की, पिछड़ी जगह बांदा में सोचना भी असंभव लगता है। मेरी मां की पढ़ाई की चर्चा तो यहां है।
हम लोग, राजमाता विजयाराजे सिंधिया के पिता को, डिप्टी साहब के नाम से जानते थे। उनका और बाबा का घनिष्ट संबन्ध था। अम्मां के नहीं रहने पर, राजमाता शोक-संवेदना देने घर आयीं थीं। काफी समय, हम लोगों के साथ रहीं। जाते समय मुझसे बोली,
'आज मैं, जो भी मैं हूं, तुम्हारे बाबा की वजह से हूं।'
प्रभात प्रकाशन दिल्ली ने, राजमाता सिंधिया की आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' प्रकाशित की है। इसमें बाबा की चर्चा की है। इससे आप कुछ उनके बारे में समझ सकते हैं। नीचे का उद्धरण वहीं से है।
'राजपथ से लोकपथ पर' पेज ४७-४९
'सन १९३७ में, पहली बार मैंने [राजमाता सिंधिया] पिता के घर [झांसी] में कदम रखा ... पिताजी ने शायद मेरे शीघ्र विवाह का निश्चय कर लिया था। झाँसी पहुचने के आठ-दस दिनो बाद ही वह मुझे बांदा ले गए। इन दोनो नगरो के बीच की दूरी लगभग एक सौ बीस मील है बांदा के चौधरी साहब [मेरे बाबा], मेरे पिताजी के विध्यार्थी जीवन के दिनो से ही मित्र थे।
चौधरी जी के घर में, मेरे अल्प दिनों के प्रवास ने, मेरे जीवन की दिशा को एक नया मोड़ दे दिया। मैं तब तक सर्वथा एक भिन्न संस्कृति में पली थी। चौधरीजी के घर का वातावारण उन्मुक्त और भिन्न था। यहां आकर मुझे पहली बार जमाने के करवट बदलने की आहट मिली। मेरे मन में भी, एक संकल्प जागा कि मुझे भी रुढ़िगत पुरानी धारणाओं को तिलांजलि देकर परिवर्तन के नए युग के स्वागत के लिए तैयार रहना चाहिए। महिलाओं और पुरुषों को समान दर्जा औेर प्रतिष्ठा देनेवाले चौधरी साहब के परिवार से, मिलन का मेरा पहला ही अवसर था। मैं यह देखकर प्रभावित हुई थी कि चौधरी जी के घर में, नेपाल पैलेस [राजमाता के नाना का सागर में घर] जैसा कर्मकांड और पूजा-पाठ का बाह्माडंबर नही था; किंन्तु संस्कारो के अनुरूप आचरण करने की प्रामाणित अवश्य थी, जो मुझे सुखद लगी। उनकी तुलना में मेरे पिता कुछ मात्रा में प्रतिगामी थे। पिता सरकारी नौकरी को ही अपना सब कुछ मानते थे। जबकि चौधरी परिवार में न तो राणा परिवार की तरह अंग्रेजियत के प्रति कोई दुराग्रह था और न ही किसी प्रकार की रूढ़िवादिता। अनेक परंपरागत रूढ़ियों और रीति-रिवाजों का, चौधरी परिवार ने विचारपूर्वक और दृढ़ता के साथ त्याग कर दिया था।
चौधरी जी, लड़के और लड़कियो को पढाने-लिखाने के समान रूप से पक्षधर थे। अतः उन्होंने आग्रहपूर्वक सलाह दी कि मुझे कॉलेज मे दाखिला लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। इस विषय में उन्होने मेरे पिताजी से भी बातचीत की। चौधरी साहब, थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका एनी बेसेंट के प्रशंसक थे। उन्होंने पिताजी से वचन ले लिया कि मुझे एनी बेसेंट द्वारा, बनारस में संचालित महिला कॉलेज में, दाखिला दिलवाएंगे। इसके लिए, उन्होंने कॉलेज की प्राचार्या को पत्र लिखकर नामांकन के लिए सामाग्री भी मंगवा ली और भरकर भिजवा भी दिया।
बांदा से झांसी लौटने पर, मेरे जीवन का अग्रपथ तय होना निश्चित था। मेरा दृढ़ मत था कि लड़कियों को स्कूल और कॉलेज भेजने की विरोधी मेरी नानी को, मेरे द्वारा कॉलेज में दाखिला लेना कतई रास नहीं आएगा। इसलिए पिताजी ने तय किया कि नया सत्र प्रारंभ होने तक, मैं झांसी में ही रहूं और वहीं से बनारस चली जाऊं। कॉलेज जाना या न जाना अब मेरे मैट्रिक के रिज़ल्ट पर निर्भर था।
निश्चित समय पर परिक्षाफल घोषित हुआ। उत्तीर्ण हो चुकी थी। बेसेंट महिला कॉलेज मे प्रवेश पाने के लिए कोई अड़चन शेष नहीं बची थी। इतनी सावधानी बरती गई कि मेरे सागर न जाकर, बनारस जाने की भनक तक, मेरी नौकरानी और दोनो नौकरों को न लगे; अन्यथा वे नानी को सूचित कर देते। मेरे पास काले रंग का एक बड़ा संदूक था। मैंने सभी आवश्यक कपड़े उसमें रख लिये और बनारस के लिए रवाना हो गई। मेरे छोटे चाचा साथ में थे।
पिताजी मुझे विदा करने स्टेशन तक आए। घर लौटकर उन्होने नौकरो को बताया कि मै उच्च शिक्षा के लिए बनारस रवाना हो चुकी हूँ। अब आप लोग सागर वापस लौट सकते हैं। लेकिन नौकरों को पिताजी के कथनी पर विश्वास नहीं हुआ। वे सोच रहे थे कि हो न हो, बांदा ले जाकर मेरी शादी कर दी गई और नानाजी को खबर न हो, इसलिए पिताजी ने चुपचाप मुझे ससुराल भेज दिया। उन्होंने नौकरों को समझाने की कोशिश की, कि वह जो कुछ कह रहे हैं, वही सच है।
नौकर, नानी के क्रोध से परिचित थे। वे घबराए, कौन सा मुंह लेकर, उनके सामने जाएं। किन्तु सागर लौटना आवश्यक था। उन्होने नानी के पैर पकड़ लिये और गिड़गिड़ाते हुए, झांसी में जो कुछ बीता, उसका हाल कह सुनाया। नानी, पिताजी से नाराज थीं ही। इस घटना ने आग में घी का काम किया। नानी को लगा कि बेटी की संपत्ति पर निगाह लगाए मेरे पिता ने, सचमुच मेरी शादी कर दी। उन्होंने नातिन को फुसलाने और भगा ले जाने के आरोप में पिताजी पर मुकदमा करने का मन बना लिया। तभी बनारस से भेजा मेरा पत्र, उन्हें मिला। तब कहीं जाकर हकीकत, उनकी समझ में आई। पत्र के आरंभ में ही मैंने नानी से क्षमा याचना की थी।
अपने पत्र में बड़ी मिन्नत से, मैंने नानी को समझाने का यत्न किया था कि काॉलेज में दाखिला लेने का निर्णय मेरा अपना था। इसमे पिताजी या अन्य किसी का कोई दोष नहीं था। मैंने जानबूझ कर पत्र में, बेंसेट महिला कॉलेज के छात्रावास, उसके पारिवारिक परिवेश और साथी छात्राओं के स्नेहपूर्ण व्यावहार का अद्योपांत वर्णन किया था; क्योंकि मैं जानती थी कि मेरे सुख से रहने और मेरी सुव्यवस्थित देखभाल की जानकारी पाकर नानी का गुस्सा उफनते दूध की तरह शांत हो जाएगा, यही हुआ।'
हम सब ने जीवन में अच्छा किया। मैं समझता हूं इसका सारा श्रेय मेरे बाबा को जाता है। यह उनसे मिले संस्कार के कारण है, जिसमें महिलाओं को समानता देना, उन्हें पढ़ाना, स्वतंत्रता देना, मुख्य रूप से शामिल था।
अगली कुछ और चिट्ठियों में बाबा के बारे में, उनसे मिले संस्कारों की चर्चा करूंगा।
About this post in Hindi-Roman and English
#BookReview
शत् शत् नमन
ReplyDeleteEven at that time such a progressive approach..my salutations
ReplyDeleteWonderful article, Yati Dada! I’ve learnt so much more about Babaji and also about Rajmata. Vivek and I read it together. We marvelled at how progressive Babaji’ s thinking and attitudes were. He was truly ahead of his time. 🙏
ReplyDeleteThis article provided important knowledge about Baba. Baba used to take great care of his family members, when I was a year old, my mother and father met Baba in Allahabad and received his blessings. After that, when I was about 10 years old, my Grandmother took me with her. Baba used to ask and worry about the whole family, giving guidance to the people of the family to succeed. He was truly a great man.
ReplyDeleteइस पोस्ट से प्रेरित होकर मैंने संदर्भित पुस्तक को मंगाकर पढ़ना शुरू किया है. दिलचस्प किताब है.
ReplyDeleteदुख ये है कि आपके बाबा जैसे लोग गिनती के ही होते हैं, जबकि समाज में ऐसे लोगों की सर्वाधिक आवश्यकता है.
मेरे नाना, कवयत्रि सुभद्रा कुमारी चौहान के सगे बड़े भाई थे। उन्होंने न केवल उन्हें, पर अपनी तीन अन्य सगी बहनों वा एक चचेरी बहन को पिछली शताब्दि के शुरू में पढ़ने भेजा। वे भी अनोखे व्यक्ति थे। इनकी चर्चा सुभद्रा जी के बेटी, मेरेी मौसी, सुधा चौहान, ने सुभद्रा जी की आत्मकथा 'मिला तेज से तेज' लिखते समय किया है। इसकी चर्चा मैंने मेरे नाना - राज बहादुर सिंह नामक शीर्षक से की है। शायद आप यह पुस्तक भी पढ़ना चाहें।
Deleteनमन
ReplyDelete