सन १९७० में बाबा और पिता - इलाहाबाद के घर में |
बाबा बहुत अच्छे सिविल के वकील थे। वे मुझसे बताते थे कि उन्होंने भारतीय साक्षय अधिनयम पर सरकार द्वारा लिखित टीका, पांच बार पूरी पढ़ी है। बहुत जल्दी ही उनकी ख्याति, न केवल बांदा में, पर पूरे बुंदेलखंड में, बेहतरीन सिविल वकील के रूप में जानी जाती थी। वे एमएलसी भी रहे एमएलए भी रहे।
पुस्तक 'यू पी लेजिस्लेटिव कौंसिल (सन 1930 से 1935)' से |
बांदा में, सबसे पहली कार, बाबा ने ही खरीदी। यह एक शेवह्रले (Chevrolet) थी।
बांदा में, बाबा पहले किराये के मकान में रहे। परिवार भी बड़ा हो रहा था। शिवराज सिंह के सारे वशंज बांदा में रहते ही थे। साथ में, रक्षपाल सिंह और धनराज सिंह के भी सारे वशंज, बांदा में रह कर पढ़ाई की। यह खर्च भी बाबा ने उठाया। बहुत जल्द ही उन्हें बड़े घर की जरूरत पड़ी।
सिविल लाइन्स में, रोडवेज़ बस स्टेशन के सामने एक चर्च है। उसके पादरी बगल की जमीन और घर में रहते थे। वे १९२६ में, लखनउ जाने लगे तब घर और १० बीघा (लगभग ४.५ एकड़) जमीन बेचना चाहा। उनको, उसके ३,००० रुपये मिल रहे थे। वे उसके ३५०० रुपये चाह रहे थे। बाबा को यह पैसा कम लगा। उन्होंने घर और जमीन का मूल्यांकन कराया, जो कि १०,००० रुपये बताया गया। उन्होंने पादरी को १०,००० रुपये देने की बात की। पादरी को आश्चर्य हुआ। उसने बाबा से कहा,
' कि वह तो इसे ३५०० रुपये में बेच देता, लेकिन आप इसके १०,००० रुपये क्यों दे रहे हैं?'
बाबा ने कहा,
'मैंने इसका दाम पता लगवाया। इसका यही दाम बताया गया। मैं आपकी संपत्ति पूर दाम में लेना चाहता हुं। केवल इसलिये कि आप जा रहे हैं इसलिये कम पैसे दे कर नहीं खरीदना चाहता।'
संस्कार, व्यवहार से आते हैं न कि उपदेश या बताने से। बाबा के ऐसे व्यवहार ने हमें यही संस्कार दिये। हमने वही अपनाये।
बाबा ने जिस समय खरीदा था। उस समय, मकान की दीवालें तो पक्की थीं लेकिन छत घास-फूस की थी। बाबा को लगा कि छत पक्की होनी चाहिये। उस समय, बांदा में सारी छतें महराब (arch) की होती थीं। बांदा में न कोई सपाट छत के घर थे, न ही कोई इमारत, न ही कोई कारीगर था जो ऐसी सपाट छत बना सके।
बाबा को विज्ञान और इंजीनियरिंग का अच्छा ज्ञान था। वे सारी माप लेकर लखनऊ गये। वहां से समझ कर आये कि सपाट छत कैसे बनायी जाय, उसमें क्या मसाला डाला जाय, कैसे पत्थर लगायें जाय। छत तो ढल गयी पर कारीगर ने ढोला खोलने मना कर दिया। उसे डर थी कि छत रुकेगी नहीं। बाबा ढोले के नीचे खड़े हो गये और कारीगर से कहा कि
'ढोला खोलो, मरूंगा तो सबसे पहले, मैं ही मरूगा।'यह कहने के बाद, कारीगर ने ढोला खोला। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि छत नहीं गिरी।
बाबा का बनवाया घर |
यमुना नदी, बांदा और फतेहपुर जिले की सीमा है। चिल्ला गांव बांदा में है और ललौली फतेहपुर में। चिल्ला कुछ ऊंचे और ललौली कुछ नीचे है। ललौली गांव, चिल्ला से दिखायी पड़ता है। एक बार १९३० के दशक में, यनुना नदी में भयंकर बाढ़ आयी। शाम तक तो ललौली गांव दिखायी पड़ा पर अगले दिन सुबह, ललौली गांव दिखना बंद हो गया। लोगों और कलेक्टर को लगा कि ललौली डूब गया है। कलेक्टर ने, मल्लाहों से भरी, कुछ नावों को, दूसरी तरफ वहां सहायता के लिये भेजा। लेकिन, आधी दूर जाने पर गांव ललौली दिखने लगा। नावें वापस आ गयीं। लोगों और कलेक्टर को यह नहीं समझ में आया कि यह कैसे हो गया कि चिल्ला से तो ललौली दिखायी नहीं दे रहा पर नदी पर आधी दूर जाने पर दिखायी पड़ने लगता है। बाबा ने स्पष्ट किया,
'पृथ्वी गोल है। बाढ़ के कारण, यमुना का पाट चौड़ा हो गया है। जिसके कारण बीच का हिस्सा ऊपर उठ गया है, इसलिये ललौली दिखना बंद हो गया। लेकिन नदी के बीच का हिस्सा उठा हुआ है। इसलिये वहां से दिखायी पड़ता है।'
बाबा को हर विषय का बहुत अच्छा ज्ञान था। एक बार हम लोग बाग में घूम रहे थे। पतझड़ का मौसम था। एक पेड़ की डाल, पतझड़ के पहले टूट गयी थी। उसके पत्ते लगे रहे लेकिन पेड़ के पत्ते गिर गये थे। यह कुछ अजीब लगा। हमें समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों है। बाबा ने समझाया,
'हर साल पेड़ के तने पर एक परत चढ़ती है जिसे गिन कर उसकी उम्र बतायी जा सकती है। यह काम अन्त में पतझड़ के समय होता है। इसलिये पेड़ उस समय उनसे पोषक समग्री को तनो और जड़ में ले जाता है। लेकिन जो डाल टूट चुकी है उनसे पेड़ का संबंध पहले टूट चुका है इसलिये उन्से वह पोषक तत्वों को वापस नहीं ले पाता।'
बाबा को खगोलशास्त्र का भी बहुत अच्छा ज्ञान था। मेरे बचपन तक, बांदा में शाम को अक्सर बिजली नहीं रहती थी। इसलिये रोशनी नहीं रहती थी और यदि बादल न रहे तथा चन्द्रमा न हुआ, तो आकाश का नज़ारा अलग ही रहता था। बिना किसी पुस्तक को देखे, तारामंडलों, तारों के बारे में बताना, कैसे उन्हें ढूढना, ध्रुव तारा क्यों अटल है - यह सब जैसे उनके ज़हन में ही हों।
मैं भी मुन्ने के साथ, रात में, महीने में एक बार जरूर नदी के किनारे जाता था। कई बार तो अगस्त के महीने लियोनिद उल्का बौछार (Leonid Meteor Shower) देखने गया हूं। इनकी चर्चा, रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन के पत्रों को संकलित करके लिखी पुस्तक 'Don’t you have time to think?' की समीक्षा करते समय यहां लिखी है। शायद, मैंने यह प्रेम, उन्हीं से पाया है।
बांदा में, कोई पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज तो क्या, डिग्री कॉलेज भी नहीं था। बांदा के कलेक्टर घर के बगल की जमीन बाबा की थी। बाबा ने, ५ एकड़ जमीन पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज बनाने के लिये, इस शर्त पर दान में दी कि कॉलेज में उनका या उनके परिवार के सदस्यों का नाम या चित्र नहीं लगेगा। इसलिये, इस महाविद्यालय का नाम जवाहर लाल नेहरू महाविद्यालय रखा गया। बाबा के मृत्यु के बाद, अब इसकी वेब-साइट पर नाम डाला गया। यह पहले कानपुर विश्वविद्यालय से और अब बुन्देलखंड विश्विद्यालय से संबद्ध है।
चित्र कॉलेज की वेबसाइट से |
बाबा नये विचारों के थे। महिला अधिकारों की समानता, उनकी शिक्षा के पक्षधर थे। वे कहते थे, कि जब एक बेटी पढ़ती हैं तो पूरा परिवार पढ़ता है। यही कारण है कि मेरी मां और चाचियों ने अपनी शिक्षा, शादी के बाद पूरी की। मेरी मां ने कानून की शिक्षा, एक चाची ने डाक्टरी, और बाकियों ने स्नातकोत्तर की शिक्षा शादी के बाद ही की। दो चाचियां अध्यापक भी रहीं। हमारे परिवार आगे बढ़ा, इसका कारण, बाबा के दिये संस्कार और महिलाओं को समानता और शिक्षा को जाता है। इसी की चर्चा राजमाता ने अपनी जीवनी 'राजपथ से लोकपथ पर' की की है। इसके बारे में, मैंने 'मेरे बाबा - राजमाता की ज़बानी' नाम की चिट्ठी में लिखा है।
कुछ समय पहले तब सिलवासा के एक ग्रुप के स्कूल, कॉलेजों में वार्षिकोत्सव में रहने का मौका मिला। वहां के प्रधानाचार्य जी ने, अपने भाषण में एक महत्वपूर्ण बात कही,
'जब आप एक बेटी को पढ़ाते हैं, तब एक देश पढ़ता है।'बाबा भी यही बात कहते थे। मैंने अपने भाषण में, वहां दो किस्से सुनाने को सोचा था - पहला वाला तो सुनाया पर दूसरा छोड़ कर, अपनी मां की बात करने लगा, उनके क्या सपने थे, कैसे बाबा ने उन्हें पूरा करने दिया। यदि आप वह भाषण सुनना चाहें तो नीचे विज़िट पर चटका लगा कर सुन सकते हैं।
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