देवी सरस्वती - चित्र राजा रवि वर्मा |
आज बसंत पंचमी के दिन है। इस चिट्ठी में, इसके महत्व के साथ, मेरे माता-पिता की चर्चा है।
तुम्हारे बिना
।। राजा अकबर ने दिया, 'चौधरी' का ख़िताब।। बलवन्त राजपूत विद्यालय आगरा के पहले प्रधानाचार्य।। मेरे बाबा - राजमाता की ज़बानी।। बाबा, जैसा सुना।। बाबा, जैसा जाना।। मेरे नाना - राज बहादुर सिंह।। बसंत पंचमी - अम्मां, दद्दा की शादी।। अम्मा।। दद्दा (मेरे पिता)।। बसंत पंचमी - अम्मा दद्दा का मिलन।। नैनी सेन्ट्रल जेल और इमरजेन्सी की यादें।। RAJJU BHAIYA AS I KNEW HIM।। रक्षाबन्धन।। जीजी, शादी के पहले - बचपन की यादें । जीजी की बेटी श्वेता की आवाज में पिछली चिट्ठी का पॉडकास्ट।। दिनेश कुमार सिंह उर्फ़ दद्दा - बावर्ची।ऋतुओं में, मैं बसंत हूं - गीता में श्रीकृष्ण
ऋतुओं में सबसे अच्छी बसंत ऋतु। यह नयी सुबह, नयी तरंग लेकर आती है - फूलों में बहार, गेहूं और जौ में बालियां, आम में बौर, और खेतों में सरसों का पीला फूल। इसे मनाने के लिये ही बसंत पंचमी का उत्सव शुरू हुआ और पीले रंग के कपड़े पहनने की परंपरा। हमारी सभ्यता, संस्कृति में यह दिन शुभ माना जाता है और इससे अनेक कथायें जुड़ी हैं।
कहा जाता है कि शिव जी कहने पर, ब्रम्हा जी ने सृष्टि की रचना की पर प्राणियों में आवाज नहीं थी। जिस कारण कुछ अजीब-सूनी सी, शान्ति रहती थी। ब्रम्हा जी ने, विष्णु जी से सहायत मांगी और उनके आव्हान पर, आदिशक्ति ने, बसंत पंचमी के दिन, श्वेत वस्त्र पहने, चार हाथ वाली, कमल पर बैठी, नारी का सृजन किया। उसके एक हाथ में वीणा, एक हाथ में पुस्तक, एक हाथ में माला, और एक वर मुद्रा में है। उन्हें सरस्वती कहा गया और विष्णु जी की पत्नी का दर्जा दिया गया। जब, सरस्वती ने सबसे पहले वीणा बजायी तब सबको वाणी मिली। इसी कारण वे विद्या, संगीत, और कला की देवी कहलायीं। यह सब बसंत पंचमी के दिन हुआ, इसी लिये इसी दिन सरस्वती की पूजा की जाती है।
कथानुसार, बसंत पंचमी का दिन, भगवान राम को शबरी ने मीठे बेर खिलाये थे और गुरू गोविंद सिंह का विवाह भी इसी दिन हुआ था। बसंत पंचमी से, इतिहास की एक घटना जुड़ी है।
राजपूतों में, पृथ्वीराज चौहान, सबसे बहादुर वे विद्या, संगीत, और कला की देवी कहलायीं। यह सब बसंत पंचमी के राजा माने जाते हैं। इसलिये राजपूतों में, चौहान राजपूत सबसे ऊंचे माने गये। 'पृथ्वीराज रासो' हिन्दी का महाकव्य है, जिसे पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और राजकवि चंदबरदाई ने लिखा है। इसमें उनके जीवन, चरित्र, और वीरता का वर्णन है।
मोहम्मद ग़ोरी, भारत को लूटना चाहता था। उसने आक्रमण किया पर पृथ्वीराज ने उसे कम से कम एक बार तो हरा कर, बन्दी बना लिया था। लेकिन दयावश छोड़ दिया। यह इतिहास की सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि, अगली बार ११९२ ईसवीं में, ग़ोरी बड़ी सेना लेकर आया। इस दूसरी लड़ाई में न केवल पृथ्वीराज हार गये पर उनकी मौत भी हो गयी। यदि पहली बार, ग़ोरी न छोड़ा गया होता तब भारत का इतिहास कुछ और होता।
अब चलते हैं उस कथा पर जो ११९२ की बसंत पंचमी से जुड़ी है और हम बचपन से सुनते आये हैं। मैं कह नहीं सकता कि यह सच है कि नहीं।
कथा के अनुसार पृथ्वीराज ने एक बार नहीं पर १६ बार ग़ोरी को पराजित किया पर उदारता दिखाते हुए, छोड़ दिया पर १७वीं बार वे हार गये। उन्हें बन्दी बना कर, अन्धा कर दिया गया। उस समय, उनके बचपन के मित्र और राजकवि चंदबरदाई भी थे। उन्होंने ग़ोरी को बताया कि पृथ्वीराज चौहान शब्दभेदी बाण चला सकते हैं। उन्हें मारने से पहले, ग़ोरी ने यह करिशमा देखना चाहा। चंदबरदाई के कहने पर, ग़ोरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट कर, ध्वनि का संकेत दिया। कहते हैं कि तब चंदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान दोहा सुनाया,
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ताऊ पर सुल्तान है, मत चूको चौहान॥
इससे पृथ्वीराज को दूरी का अंदाजा लगा। पृथ्वीराज ने, जो तीर चलाया, वह ग़ोरी को लगा और उसकी मौत हो गयी। इसके बाद, चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने, एक दूसरे का जीवन, छुरा मार कर समाप्त कर दिया। कहा जाता है कि यह घटना, ११९२ की बसंत पंचमी को हुई थी।
हमारा परिवार, न तो पूजा-पाठ में विश्वास करता है, न ही इसके आडम्बर पर।राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' नाम से लिखी है। इसमें वे हमारे परिवार की चर्चा करती हुई लिखती हैं,
'चौधरीजी [मेरे बाबा] के घर का वातावारण उन्मुक्त और भिन्न था। ... [वहां] नेपाल पैलेस जैसा कर्मकांड और पूजा-पाठ का बाह्माडंबर नही था; किंन्तु संस्कारो के अनुरूप आचरण करने की प्रामाणित अवश्य थी, जो मुझे सुखद लगी।'
हम कर्म में विश्वास करते हैं और कर्म से, दुर्गा या लक्षमी के उपासक न हो कर, सरस्वती के उपासक हैं। इस लिये, हमारे लिये बसंत पंचमी शुभ भी है, और महत्पूर्ण भी।
बचपन से सुनते थे कि अम्मा का जन्म और विवाह बसंत पंचमी के दिन हुआ था। जब अपने नाना के बारे में लिखने लगा तब उनकी डायरी के कुछ पन्ने देखने को मिले। जिससे पता चला कि अम्मा ९ फरवरी, १९२२ को पैदा हुईं थीं। उस साल, बसन्त पंचमी २ फरवरी को थी। इसलिये पहली बात तो सही नहीं लगती। लेकिन अम्मा की शादी, २५ जनवरी १९३९ में हुई थी और उस दिन बसन्त पंचमी थी। बाद में, मेरे बेटे की भी शादी बसंत पंचमी के दिन, २३ जनवरी, २००७ को हुई।
कहते हैं कि बांदा में दो टोलियां रहती थी - एक बाबा के घर की और दूसरी नाना के घर की। इसमें हर बात में होड़ रहती थी - खेल, पढ़ाई, वाद-विवाद, नाटक, या फिर कुछ भी और। बाबा की टोली के कप्तान मेरे पिता थे और नाना की टोली की कप्तान अम्मां। साथ खेलना, प्रतिस्पर्धा करना - क्या प्रेम अंकुरित हो गया और बाद में शादी में बदल गया - कह नहीं सकता।
हांलाकि, राजमाता सिंधिया तो सितंबर १९९० के, 'सावी' पत्रिका के अंक में यही कहती हैं। मैं इस बारे में, अम्मा से कभी पूछ नहीं पाया। वे तो इसके पहले ही इस दुनिया से जा चुकी थीं। पिता से न तो कभी इतना खुला था कि पूछ सकूं, न कभी हिम्मत पड़ी।
कभी-कभी, अम्मां हंसती हुई, उस समय का जिक्र करती थीं, जब वे शादी के बाद बनारस हिन्दू हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहीं थी। बताती हैं कि, मेरे पिता मिलने आते थे तब उनकी सहेलियां छिप कर उनकी बातें सुनने की कोशिश करती थीं। लेकिन, मेरे पिता तो अम्मा को लोनी की डाइनैमिक्स और स्टैटिक्स समझा रहे होते थे।
मैंने अपने माता-पिता को कभी बात करते नहीं देखा। वे दोनो अकेले कभी भी बाहर नहीं गये, न कभी कोई फिल्म देखी। अम्मां हमेशा पहले जीजी के साथ, उसकी शादी हो जाने के बाद, मेरे साथ फिल्में देखने गयी। वे बाहर भी, मेरे साथ ही घूमने जाती थीं। अम्मा अक्सर, मेरे पिता से सहमत नहीं होती थीं। हम वहां पढ़ने गये, जहां मेरे पिता चाहते थे। लेकिन घर में बड़े हुऐ, जैसे अम्मां चाहती थीं।
हांलाकि, कहीं न कहीं, दोनो के तार जुड़े थे, जिसे मैं नहीं समझ पाया। उनका रिश्ता, आज के रिश्तों से कहीं ज्यादा गहरा, कहीं ज्यादा मज़बूत, एक दूसरे को, पूरी तरह समझने वाला था। वे एक-दूसरे को अच्छी तरह से समझते थे, जानते थे कि दूसरा क्या चाहता है।
मालुम नहीं कैसे, अम्मा, पिता के मन की बात जान लेती थीं - उन्हें क्या चाहिये, क्या पसन्द है, वैसा ही करती थीं, वैसे ही, खुद को रखती थीं। घर का खान-पान वैसा था, जैसा मेरे पिता चाहते थे। मालुम नहीं, ऐसा क्यों हमारे समय में नहीं होता। पता नहीं क्यों मेरी पत्नी, मेरा मन नहीं जान पाती। वह मुझसे, हमेशा कहती है,
'तुम्हें क्या चाहिये, क्या परेशानी है, बताते क्यों नहीं। मन में क्यों रखे रहते हो। जब तक बताओगे नहीं, मैं कैसे जानूंगी।'
हांलाकि, यह भी सच है कि मैं भी पत्नी का मन नहीं जान पाता हूं। हां, साथ-साथ ४३ बसंत देखने के बाद, मैं उससे, पहले से अधिक कह पाता हूं। लेकिन, कह सकता कि वह सब कह पाती है या नहीं। शायद, मेरे माता-पिता किसी और मिट्टी के बने थे, या फिर वह समय ही कुछ और था।
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