Sunday, November 21, 2021

अदब के सिर पर, मुकुट है इलाहाबाद

 


इस चिट्ठी में, ममता कालिया के इलाहाबाद की यादों पर, लिखी  पुस्तक 'जीते जी इलाहाबाद' की समीक्षा है।

 

इलाहाबाद की रूह  के किसी कोने में, कहीं अक्खड़-अलबेलापन है, तो कहीं अल्हाद, अवसाद, कहीं सुस्ती-फांकेमस्ती की ठसक है, तो कहीं गंगा-जमुनी तहज़ीब की सुगंध, कहीं हिन्दी के नगाड़े की धुन तो कहीं अंग्रेजी का वायलन और न जाने क्या-क्या। 

इलाहाबादी महसूस तो करते हैं पर शायद समझ नहीं पाते, कि ऐसा क्यों है। क्या यह इसलिये है कि यहां हर दूसरा व्यक्ति अपने आप को, 

  • जवाहर लाल नेहरू, इन्द्रा गांधी राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर  का करीबी समझता है; या फिर
  • सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, फिराक का वारिस मानता है; या फिर
  • वाहिद उस्मानी, आनन्द शुक्ला, सुरेश गोयल का दूसरा रूप समझता है; या फिर
  • हरीशचन्द्र जैसा गणितज्ञ, गोविन्द स्वरूप, एसके जोशी जैसा वैज्ञानिक की तरह देखता है; या फिर 
  • अमरनाथ झा जैसा कुलपति, रज्जू भैइया, बनवारी लाल शर्मा जैसा टीचर, समाज सुधारक होना चाहता है;  या फिर 
  • अमिताभ बच्चन, सईद जाफरी जैसा कलाकार के सपने देखता है; या फिर
  • भारत का अगला मुख्य न्यायाधीश, कैबिनेट सेक्रेटरी, न्यायाधीश सईद महमूद जैसा जज, तेज बहादुर सप्रू, कन्हैया लाल मिश्रा जैसा वकील बनना चाहता है; या फिर मालुम नहीं कुछ और। 

लेकिन, किसी को यह समझ में नहीं आता कि, इस 'लद्धड़ और अवसर विहीन शहर' में ऐसा है क्या, जो इलाहाबाद को  इलाहाबाद, सबसे अलग, सबसे अनूठा बनाता है। 

शायद यही समझाने के लिये - 
२ नवम्बर १९४० के दिन, वृंदावन, मथुरा में जन्मी;  
इन्दौर, नागपुर, पुणे, दिल्ली, बम्बई में पढ़ते, पढ़ाते;
ममता कालिया को १९७३ में, महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज इलाहाबाद में पढाने आना, प्राचार्या का पद संभालना;
३० साल इलाहाबाद की आबोहवा में जीना;
निरुपायता के चलते इलाहाबद से विदा लेना; फिर
२०२१ में, उसी की याद में  'जीते जी इलाहाबाद' (राज कमल प्रकाशन) लिखना पड़ता है। यह पुस्तक उन तीस साल का लेखा-जोखा है।

वे कहती हैं कि,

“मैं इलाहाबाद में ३० साल से ज्यादा समय तक रही हूं. मैंने वहीं नौकरी की, वहीं जमकर लिखा, मेरी अधिकांश किताबें इलाहाबाद में लिखी गई हैं, मुझे उस शहर से लगाव है.
मैं आज भी मानती हूं कि एक ऐसा शहर जहां साहित्य की पूछ होती है और जहां आम आदमी की कद्र होती है, तो वह इलाहाबाद है।"
इलाहाबाद तो वह शहर है, जहां के न्यायाधीश किसी हटाये गये मुख्य मंत्री को वापस गद्दी में बैठाने का भी माद्दा रखते हैं। यह वह शहर भी है जिसका एक न्यायाधीश इलाहाबाद की ही बेटी को, प्रधान मंत्री के पद से पद-विहीन कर देने की हिम्मत रखता है तो एक साहित्यकार, एक न्यायाधीश को, डांट कर मंच-विहीन कर सकता है। ममता जी के शब्दों में,
"हिन्दुस्तानी अकादमी की एक गोष्ठी में मार्कण्डेय काटजू अध्यक्षता कर रहे थे। वे जाने-माने न्यायमूर्ति थे और शहर में उनका दबदबा था।
अध्यक्षीय भाषण में उन्होने कहा, 'वैसे देखा जाए तो प्रेमचन्द इतने बड़े कथाकार नही थे कि...'
भैरव जी हॉल में चिंघाड़े, 'आप प्रेमचन्द के बारे में क्या जानते हो। किसने आपको जज बना दिया। भागो यहां से।'
भैरव जी उन्हे मंच से धकेलने के लिए लपके तो मार्कण्डेय काटजू तपाक से कूद कर मंच से उतरे और नंगे पैरों बाहर भागे। उनका अर्दली उनके जूते हाथ में उठाकर पीछे-पीछे दौड़ा।"।"
यह, वह शहर है, जहां विश्विद्यालय के अंग्रेजी विभाग के, जाने माने अध्यापक, सुमित्रानन्दन पंत की पुस्तक के लोकार्पण में, यह कहने की हिमाक़त कर सकते है कि,
"न मैंने 'लोकायतन' पढ़ा है न पढूंगा।"  
पंत जी, उनसे शालीनता की चुटकी के साथ कह सकते हैं,
"आप पढ़ें या न पढ़े, आने वाली पीढियां मुझे पढेंगी।"
इलाहाबाद की गलियों कूचों में, भारतीय साहित्य और साहित्यकारों का इतिहास  समाया हुआ है। जहां भी जाओ, हिन्दी के इतिहास का कोई पन्ना दिख ही जाता है। यह वह शहर है, जो न केवल साहित्यकारों को पनाह देता है पर सुभद्रा कुमारी चौहान जैसों को अंकुरित भी करता है।

इलाहाबाद में, 'कल्याणी देवी' एक मोहल्ला है। यहां अधिकतर खत्री ही रहते हैं। सुनते हैं कि विक्रम सेठ 'अ सूटेबल बॉय' लिखने के पहले, कुछ समय यहां रह कर खत्रियों के रहन-सहन को समझा, फिर अपनी पुस्तक लिखी।
'जीते जी इलाहाबाद ' इसी कल्याणी देवी मोहल्ले से गुजरती हुई; अहियापुर की शब्दावली 'कस गुरू', 'का गुरू', सरऊ के नाती', ‘चकाचक' से गूंजती हुई; लोकनाथ की गलियों की मिठाईयों के साथ-साथ, हरि के समोसे, खस्ता और दमआलू का स्वाद लेते हु़ए; चौक की गलियों से, सिविल लाइन्स की कॉफी हाउस, मुरारी स्वीट हाउस, और चुन्नी लाल के ढाबे  का छोले चावल का भी स्वाद दिलाती हु़ई; इंडियन प्रेस, मित्र प्रकाशन, लोकभारती, नीलाभ प्रकाशन की भी सैर कराती है। 

इलाहाबाद का खांका खींचते, ममता जी लिखती हैं,

"दरअसल, इलाहाबाद के माहौल में हिन्दी, इर्दू, अवधी और अंग्रजी का मिला-जुला नूर है। ... [उर्दू के लेखक] हिन्दी गोष्ठियों में भी शिरकत करते हैं और हिन्दी के लेखक उर्दू साहित्य की बैठकों में शामिल होते हैं। जो अंग्रेजी में लिखते हैं, ... वे भी हिन्दी बोलने से परहेज नही करते, बल्कि उनकी दोस्तियां हिन्दीवालों से हैं। इस शहर में संगम केवल नदियों के मिलन में नही वरन् भाषाओं की मझधार में भी हैं। इसी से यहां की गंगा-जमुनी संस्कृति बनी हैं। शहर की भूमिका यही हैं कि वह हमें स्पन्दित रखता हैं, विचलन के इतने विकल्प प्रस्तुत नहीं करता कि हम बिखर जाएं। प्रतिभा के कद्रदां यहां हैं तो आलोचक भी यहीं। अपने शहर की खासियत यही हैं कि हमें मुश्किल से कबूल करता है, खराद पर चढ़ाता है, गढता, छीलता छांटता है और एक दिन, दुनिया की हवाओं में उछाल देता है, फुटबॉल कि तरह।
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इस शहर का यही मिज़ाज ... है न तकल्लुफ करता है न बरदाश्त करता है। फकीरी के ठाठ हैं यहां पर। इसीलिए इलाहाबादी इन्सान जितना अच्छा मेज़बान होता है उतना मेहमान नहीं उससे किसी समयसारिणी के पालन की उम्मीद न रखिए। अपनी शानदार फाकामस्ती में  वह कभी नीरज की अगवानी करे तो कभी नामवर सिंह की समझौते किसी के साथ न करता।
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इलाहाबाद बुध्दिजीवियों का शहर है। यहां उनका मन लगाने को बतकही, बैठक पुस्तके़ं और गोष्ठियां है। इन चारों नियामतों का खुलकर स्वागत किया जाता है। हर एक जगह गोष्ठी नहीं  जमती लेकिन कुछ स्थल हैं जहां बात-बात में बहस छिड़ जाती और विचारोत्तजक शाम में बदल जाती।  युनिवर्सिेटी के छात्र अगर लल्ला चुंगी पर वाद विवाद में रमते, तो कटरा निवासी युवा, लक्षमी टॉकीज़ की मैगज़ीन की दुकान पर। पुराने लेखक कॉफी हॉउस घेर कर बैठते और उभरते छात्र लेखक हमारे घर पर।
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इलाहाबाद में यह रवैया अक्सर देखने में आता कि स्थापित लेखक नवोदित लेखकों को बढावा देने की बजाय धक्का देना सही समझते।
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इलाहाबाद दुखान्त प्रेम कहानियों का प्रिय स्थल रहा है। धर्मवीर भारती-कान्ता भारती, दूधनाथ सिंह निर्मला ठाकुर लक्ष्मी मालवीय-इन्दु ये सब उच्च शिक्षित दम्पती थे जो प्रेम का निर्वाह नही कर पाए।
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इलाहाबाद का मित्र और चरित्र न जाने कितने बुध्दिजीवियों, कलाकारों और विद्वानों से बुना गया है। कभी इलाहाबाद को कैनवस पर चित्रों में उतारा जाए तो कई किलोमिटर लम्बी कलाकृति बने।
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असली और खालिस इलाहाबादी वह है जो शहर छोड़ जाए मगर शहर उसे न छोड़े। काली कमली सा उस पर लिपटा रहे। मिश्री-माखन सा उसके मुंह पर पुता रहे, मेहंदी सा हथेली पर रचा रहे। ऐसा इन्सान, जहां भी जाए शीशी में भर कर थोड़ा सा प्रयाग का गंगाजल साथ ले जाए, थोड़ी लूकरगंज की हरियाली आंखो में आंज ले और जब कहीं देस-परदेस में कोई इलाहाबादी दिखे उसे अंकवार में ले ले।"

इलाहाबाद तो अपने ही, प्रसिद्ध मीठे अमरूद की तरह है - स्वाद तो चख कर, वहां रह कर, ही पता चलेगा। इसलिये, रूचि भल्ला लिखती हैं,

"जो नाम लेती हूं इलाहाबाद,
पत्थर का वह शहर,
एक शख्श हो आता है।
शहर नहीं रह जाता,
फिर धड़कने लगता है उसका सीना।
जब तक जीती हूं इलाहाबाद हुई जाती हूं
जब नहीं रहूंगी,
इलाहाबाद हो जाऊंगी मैं।"
लेकिन, इलाहाबाद बदल गया, अब प्रयागराज हो गया है।  संदीप तिवारी कहते हैं,
"जो इलाहाबाद छोड़ कर गया है।
लौटेगा, तो इलाहाबाद लौटेगा।
प्रयागराज तो एक ट्रेन का नाम है,
अब प्रयागराज एक जंक्शन का नाम हो जायगा
...
पर सुबह जब ट्रेन पहुंचेगी जंक्शन,
बगल बैठा मुसाफिर उठाएगा और
बढ जाएगा इतना कहते हुए,
'जग जा भाई, आ गया इलाहाबाद'”

ममता जी लिखती हैं कि,

"होते आज फिराक तो कहते,
‘यह क्या बदतमीज़ी है, शहर के नाम कमीजों की तरह नही बदलें जाते।'”

मैं भी, अपने आप को, इस फिराक के पास पाता हूं। प्रयागराज में वह कहां, जो इलाहाबाद में है। ममता जी आगे लिखती हैं, 

"बेधड़क बोलने वालों से ही शहर का कलेजा नापा जाता है। इसे हम इलाहाबाद का आधार स्वर भी मान सकते हैं। सामान्यता का स्वाभिमान, स्वाधीनता की पहचान और साहित्य का सम्मान। दिल्ली की तरह यहां कोई किसी का रास्ता नहीं काटता। अपना महल खड़ा करने को किसी की झोंपङी नहीं ढहाता। हमारे इलाहाबाद में अतिक्रमण की दुर्घटना कम-से-कम होती है। वक्त की चोटों में इसका कुछ चमत्कार कम हुआ होगा फिर भी यह अभी खुशगवार है। तभी तो तुषार कह उठते हैं। 'अदब के सिर पर मुकुट सा है इलाहाबाद।'” 

मुझे दुख है कि मैं इनसे या इनके शौहर रवीन्द्र कालिया, जो स्वयं एक नामी साहित्यकार थे, मिल नहीं पाया। शायद इनसे, कभी मुलाकात हो सके। वे भूमिका में समां बांधती हैं,

"शहर-पुड़िया में बांध कर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन कर वह हमारे स्नायुतंत्र में, हूक बन कर हमारे ह्रदयतंत्र में औेर दृश्य बन कर हमारी आंखो के छविगृह में चलता-फिरता नजर आता है। इस लिहाज से जितने भी लोग वहां जिएंगे, सबके पास-अपना-अपना इलाहाबाद होगा।" 

मेरा भी, अपना इलाहाबाद है। इसकी चर्चा, मैंने यहीं इसी चिट्ठे की अलग-अलग चिट्ठियों पर की है।  लेकिन, मेरा इलाहाबाद, इनके इलाहाबाद से एकदम अलग है। पुस्तक पढ़ कर, ऐसे इलाहाबाद से परिचय हुआ, जिससे मैं अनजान था। लेकिन, क्या मेरा इलाहाबाद, उनके  इलाहाबाद से, कम प्यारा, कम खूबसूरत है - हरगिज़ नहीं। 

यदि आपका इलाहाबाद शहर से, या फिर साहित्य से कोई भी संबन्ध रहा हो तो यह पुस्तक आपके लिये है। यदि आपका कोई मित्र या रिश्तेदार इलाहाबाद से ताल्लुकात रखता हो, तो भी यह पुस्तक आपके लिये है। आप इसे पढ़ कर उसे बेहतर समझ सकेंगे। 

एक बार पुस्तक उठा कर, फिर छोड़ने का मन नहीं करता। अवश्य पढ़ें।

About this post in Hindi-Roman and English

is chitthi mein, mamta kalia kee allahabad kee yadon ke baare mein likhee pustak 'jeete ji allahabad' kee sameeksha hai.  ise aap roman ya kisee aur bhaarateey lipi mein  padh sakate hain. isake liye daahine taraf, oopar ke widget ko dekhen.

This post in Hindi (Devanagari script) is review of  Mamta Kalia's 'Jeete Ji Allahabad', her memoirs about Allahabad. You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.

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1 comment:

  1. इलाहाबाद की मिट्टी में दम है, यहां कि मिट्टी हमेशा चुंबक की तरह खींचती हैं

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