इस चिट्ठी में, चर्चा है कि १३ फरवरी को, क्यों साड़ी दिवस होना चाहिये; और
यदि आज काले रंग की साड़ी पहनी जाय, तो क्या बात है।
कुछ समय पहले, कुछ पोस्टों से पता चला कि २१ दिसंबर को साड़ी दिवस मनाया जाता है। लेकिन किसी भी लेख में, इस बात का उल्लेख नहीं मिला कि ऐसा क्यों है। । मेरे विचार से, साड़ी दिवस को १३ फरवरी को मनाना चाहिये, न कि २१ दिसंबर को।
इक़बाल बानो का जन्म १९३५ में दिल्ली में हुआ था। उन्होंने दिल्ली घराने में संगीत की शिक्षा ली। कुछ समय ऑल इंडिया रडियो में भी गाया। १९५२ में, उनकी शादी मुल्तान (पाकिस्तान) में, एक जमींदार परिवार में हुई। वे पति के साथ पाकिस्तान चली गईं।
उनके पति दकियानूसी विचारों के नहीं थे। उन्होंने कभी उन्हें गाने से नहीं रोका, बल्कि उसे प्रोत्साहित और बढ़ावा दिया। वे १९५० के दशक में ही, जानी मानी गायिका बन गयीं और कई पाकिस्तानी फिल्मों में गाने गाये। १९८० में पति की मृत्यु के बाद वे लाहौर चली गईं। उनकी मृत्यु २१ अप्रैल २००९ में हो गयी।
इकबाल बानो के सम्मान में गूगल डूडल |
'उन्मुक्त जी, आप भी अच्छा मज़ाक करते हैं साड़ी दिवस की बात कर, इकबाल बानो की चर्चा करने लगते हैं।'
१९११ में जन्मे, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ प्रसिद्ध शायर थे। साल १९३३ में अंग्रेजी और १९३४ में अरबी भाषा में परा-स्नातक की शिक्षा पूरी कर, कुछ समय अमृतसर में पढ़ाया। सन् १९४१ में, अपना पहला संकलन नक़्श-ए-फ़रियादी नाम से प्रकाशित किया और दिल्ली आ बसे।
वे सेना में भर्ती हुए और कर्नल के पद तक पहुँचे। फिर, विभाजन के समय, पद से इस्तीफ़ा दे दिया और पाकिस्तान चले गये। उनकी नज़मों के कई अलफ़ाज़, हमारी बोल-चाल का हिस्सा हैं शायद सबसे प्रसिद्ध है 'और भी ग़म हैं ज़माने में, मोहब्बत के सिवा'।
ज़िया-उल-हक़ के शासनकाल में पाकिस्तान में गहरे इस्लामीकरण की नीतियां चलीं। उनका शासन दमनकारी था। इस रवैये के खिलाफ, फैज ने अपनी नज़म 'हम देखेंगे ...' लिखी।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - चित्र सौजन्य विकिपीडिया |
वे ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के करीबे रहे। उनके साथ, सरकार के साथ काम भी किया। लेकिन १९७७ में, मुहम्मद ज़िया-उल-हक़ ने भुट्टो तख़्ता पलटकर शासन पर सैनिक क़ब्ज़ा जमा लिया और भुट्टो को फांसी दिलवा दी तब वे पाकिस्तान छोड़ कर, बेरूत चले गये। लेकिन, बाद में, खराब स्वास्थ्य के कारण वापस पाकिस्तान लौट आए। उनकी मृत्यु २० नवंबर १९८४ को हो गयी।
'उन्मुक्त जी, हद है। अब आप फ़ैज़ की चर्चा करने लगे। आपके साथ तो यही मुश्किल है कि आप विषय छोड़ कर, मालुम नहीं कहां कूद जाते हैं।'
अधीर मत होइये, बताता हूं।
ज़िया-उल-हक़ ने न केवल हम देखेंगे...' नज़म को गाने पर रोक लगा दी पर सरकारी/ अर्ध सरकारी समारोहों, राज्य के स्वामित्व वाले टीवी चैनलों के अभिनेताओं/ अभिनेत्रियों के लिए ड्रेस कोड बनाए, जिसमें साड़ियों को पहनने पर रोक लगा दी थी। यह इस लिये किया गया क्योंकि उनके अनुसार साड़ी इस्लामी मानदंडों को पूरा नहीं करती।
फैज़ की मृत्यु के बाद, उनका पहला जन्मदिन १९८५ में पड़ा। इस अवसर पर लाहौर के एक स्टेडियम में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। स्टेडियम पूरा खचाखच भरा हुआ था। लगभग ५०,००० लोग रहे होंगे। इस दिन इकबाल बानो ने फैज़ की नज़म 'हम देखेंगे' गायी। वे जानबूझ कर, साड़ी पहन कर गयी थीं, उसका रंग काला था, और तारीख १३ फरवरी।
यह न केवल प्रतिबंध की अवहेलना दिखाने के लिये था पर साड़ी के महत्व को दर्शाने के लिए भी था। साड़ी न केवल हिन्दू भारतीयों का पहनावा है पर इस महाद्वीप पर, सब धर्मों की महिलाओं का प्रिय पहनावा है।
स्कूल का अन्तिम दिन, त्योहार, शादी, या फिर कोई खास दिन तब महिलायें साड़ी ही पहनती हैं। साड़ी का पहनना, बचपन से बड़े होने का भी प्रतीक है।
१३ फरवरी की तारीख साड़ी के महत्व को बताती है। मेरे विचार से, यही साड़ी दिवस होना चाहिये। उस दिन इकबाल बानो ने काले रंग की साड़ी पहनी थी। इसलिये यदि साड़ी का रंग काला हो, तो क्या बात है।
इकबाल बानो ने 'हम देखेंगे ...' नज़म को कई जगह गाया। हिन्दुस्तान में गायी गयी इस नज़म को आप नीवे सुन सकते हैं। लेकिन, इस बार उन्होंने सफेद रंग की साड़ी पहनी थी। शायद, उस दिन इसी रंग की जरूरत हो।
इस चिट्ठी में कुछ सूचनाये पाकिस्तान से हुसैन रज़ा ने भेजी हैं। इसके लिये मैं, उनका आभारी हूं।
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