जयंत विष्णु नार्लीकर इलाहाबाद तारामंडल में बोलते हुऐ - चित्र प्रमोद पांडे के सौजन्य से
चार नगरोंं की मेरी दुनिया - जयंत विष्णु नार्लीकर
भूमिका।।
जयन्त विष्णु नार्लीकर जाने-माने खगोलशास्त्री हैं। इनका जन्म १९ जुलाई, १९३८ में कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में हुआ। इनके माता-पिता दोनो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक थे - पिता गणित में और मां संस्कृत में। बनारस में प्रारंभिक शिक्षा और १९५७ में, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक की परीक्षा पास कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, लंदन से आगे पढ़ने के लिये चले गये।
उन्होंने, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में शिक्षा ली और गणित में ‘सीनियर रैंग्लर’ रहे, जहां उनके पिता, विष्णु वासुदेव नार्लीकर भी ‘रैंग्लर’ थे। फिर वहीं से, फ़्रेड हॉयल के नीचे शोद्ध कर डॉक्टरेट हासिल की।
इस समय ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के दो सिद्धान्त हैं - पहला बिग बैंग और दूसरा स्टैडी-स्टेट।
फ़्रेड हॉयल स्टैडी-स्टेट सिद्धान्त के जनक हैं। जयन्त नार्लीकर ने, उनके साथ मिलकर, स्टैडी-स्टेट सिद्धान्त पर काम किया। इसके साथ-साथ, दोनों ने, आइंस्टीन के आपेक्षिकता सिद्धान्त और माक सिद्धान्त को मिलाते हुए हॉयल-नार्लीकर सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
कैम्ब्रिज में, पढ़ने के बाद, वहां कुछ साल वहां पढ़ाया भी। फिर १५ साल, कैम्ब्रिज में रह कर वापस भारतवर्ष आकर, ‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च’ (TIFR) (टीएफआईआर) में कार्यत रहे। लेकिन जब १९८८ में इंटर युनिवर्सिटी अस्ट्रानमी एण्ड ऐस्ट्रोफिज़िक्स‘ {(IUCAA) अथवा आयुका} की पूना में स्थापना हुई, तब उसका संस्थापक-संचालक पद संभालने के लिये पूना चले गये।
जयन्त नार्लीकर को टाइसन पदक, एडम पुरस्कार, फ्रेंच एटॉनॉमिकल सोसायटी का प्रिक्स जॉनसन, शान्तिस्वरूप भटनागर पुरस्कार, एम.पी. बिड़ला पुरस्कार, भारतीय साहित्य विज्ञान अकादमी का इन्दिरा पुरस्कार, कलिंग पुरस्कार, उनके वाइरस उपन्यास पर महाराष्ट्र सरकार का पुरस्कार मिला है।
इसके साथ-साथ, वे भारत सरकार के द्वारा पद्मभूषण और पद्म विभूषण सम्मानित हैं।
वे अपने शोद्ध, प्रशासनिक दायित्वों के साथ-साथ विज्ञान को लोकप्रिय भाषण भी देते है। १९९४ में, मुझे उनका 'ब्लैक क्लाउड से ब्लैक होल तक' भाषण सुनने का मौका मिला। यह बेहतरीन भाषण था। उन्होंने बहुत आसान भाषा में, इसे समझाया। मुझे वे मिलनसार, इतनी उंचाइयां छू लेने के बाद भी, घमन्ड न करने वाले व्यक्ति लगे।
उनका जीवन चार शहरों - बनारस, कैम्ब्रिज, बम्बई और पूना में बीता, इसलिये मराठी में उनकी लिखी आत्मकथा का नाम 'चार नगरातले माझे विश्व' है। २०१४ में, इसे मराठी भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। इसका हिन्दी में अनुवाद सुनीता परांजपे ने 'चार नगरोंं की मेरी दुनिया' नाम से किया है।
आने वाली चिट्ठियों में, इस पुस्तक की समीक्षा के साथ, उनके विचारों की चर्चा करूंगा।
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