हर साल १४ फरवरी को वेलेंटाईन के दिन पर हमारे देश में तरह तरह के विरोध होते हैं। दुकानो तथा होटलों में तोड़ फोड़ होती है। यदी कोई लड़का या लड़की साथ दिखायी पड़ जाय तो उनकी शामत ही समझिये। मुझे यह सब बेईमानी लगता है।
हमने ग्लोबलीकरण स्वीकार किया है, केबल टीवी आता ही है, पिक्चरों में यही सभ्यता दिखायी जाती है: जब उसे हम मना नहीं कर पा रहे तो उस स्भयता को मना कर पाना मुशकिल है। यह शायद सम्भव नहीं कि हम ग्लोबीकरण तथा केबल टीवी को तो स्वीकार कर लें पर उसमें दिखायी जाने वाली सभ्यता को नहीं। इन दोनो में बीच का रास्ता नहीं है: कम से कम आसान या व्यवहारिक तो नहीं लगता। एक को स्वीकार करना तथा दूसरे पर तोड़-फोड़, अभद्रता: है। यह मेरी समझ से बाहर है।
इसका एक पहलू और भी है यदि लड़की तथा लड़के या उनके माता पिता को कोई आपत्ति न हो तो तीसरे को बोलने का क्या अधिकार।
उन्मुक्त जी, आप का ब्लॉग की दुनिया में स्वागत है। तीन बातें कहना चाहूँगा -
ReplyDelete१. आप के उन्मुक्त विचार पढ़ कर अच्छा लगा, हालाँकि मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि बीच का रास्ता नहीं निकाला जा सकता। यह ज़रूरी नहीं है कि हम पश्चिम की सभ्यता या टीवी और फिल्मों की सभ्यता को शत प्रतिशत अपनाएँ। बीच का रास्ता यही है कि जो अपना बुरा है वह छोड़ें, और जो उन का अच्छा है वह अपनाएँ। मैं वेलेंटाइन्स डे के हिंसापूर्ण विरोध को ग़लत मानता हूँ, पर उस में अपनाने वाली भी कोई बात नहीं दिखती मुझे।
२. आप "इ" की मात्रा ग़लत लगा रहे हैं। यदि आप उसे अक्षर से पहले लिखने के बदले बाद में लिखें तो सही दिखेगी।
३. नए चिट्ठाकारों का स्वागत पृष्ठ ज़रूर पढ़ें।