'जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।'
मैं १९७५ की जून में कश्मीर गया था। मुन्ने की मां कभी नहीं गयी। हम लोगों ने कई बार कश्मीर जाने का प्रोग्राम बनाया पर बस जा न सके। हमारे सारे दायित्व समाप्त हैं। इसलिये मन पक्का कर, इस गर्मी में हम लोगो कश्मीर के लिये चल दिये।
दिल्ली से श्रीनगर के लिये हवाई जहाज पकड़ा। रास्ते में भोजन मिला। प्लेट में एक प्याला भी था पर चाय नहीं मिली पर जब प्लेट वापस जाने लगी। तो मैने परिचायिका से पूछा कि यदि काफी या चाय नहीं देनी थी तो प्लेट में कप क्यों रखा था। वह मुस्कराई और बोली,
'आज फ्लाईट में बहुत भीड़ है। यह केवल एक घन्टे की है इतनी देर में सबको चाय या कौफी दे कर सर्विस समाप्त करना मुश्किल था। इसलिये नहीं दी, पर लौटते समय जरूर मिलेगी।'परिचायिका का मुख्य काम तो अच्छी तरह से बात करना होता है। लौटती समय कौन मिलता है।
हवाई जहाज से उतरते ही टैक्सी पकड़कर हम पहलगांव के लिए चल दिये। उसके बारे में अगली बार।
बस्स!
ReplyDeleteदूसरी या तीसरी कक्षा मे कश्मीर के बारे मे पढा़ था, याद ताजा हो आयी, किताब मे शायद पहलगाम लिखा था।
ReplyDeleteकहीं वो पुरानी किताब मिले तो उसमे छपी तस्वीरें देखने की इच्छा है।
भाई सूर्यास्त का चित्र सुन्दर लगा
ReplyDeleteउसी किताब से:-
ReplyDeleteजहाँगीर ने कहा था
گر فِردؤس برُویے زمین اَست، ہمین اَستو، ہمین اَستو ہمین اَست
गर फ़िरदौस बरूये ज़मीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो हमीं अस्त।
कश्मीर घूम आने की बधाई. अब इन्तजार रहेगा यात्रा वृतांत सुनने का. :)
ReplyDeleteआगे की कहानी का इंतजार रहेगा... फ़ोटो सहित.
ReplyDeleteये बतायें कि लौटते में चाय मिली कि नहीं।
ReplyDeleteसुंदर चित्र, अगली किश्त की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteअगले कड़ी की प्रतीक्षा।
ReplyDeleteमिश्र जी, जहांगीर ने वही कहा था जो आपने लिखा है। यह बहुत कठिन है इसलिये मैंने उसका आसान रूप लिखा है।
ReplyDeleteरास्ते में मील के पत्थर और बोर्डों पर पहलगांव लिखा था वहां पर सब लोग इसे पहलगांव ही कह रहे थे इसलिये यह शब्द प्रयोग किया।
अनूप जी लौटते समय चाय मिली।