किसी व्यक्ति के लिये दूसरी जगह, दूसरी संस्कृति में,
- जीवन यापन के लिये जाना; या
- उन लोगों से उन बातों की महारत हासिल करने के लिये जाना जिसमे वे दक्ष हों; या
- बेहतर जीवन के लिये जाना; या
- अपनी संस्कृति का दूसरी जगह प्रचार करने के लिये जाना;
पर किसी भी व्यक्ति का दो अलग अलग संस्कृतियों को अपने आप मे आत्मसात कर लेना आसान नहीं है| यह कुछ बिरले ही कर पाते हैं| ऐसे लोगों के, क्या गुण होते हैं; क्या खासियत है - शायद वही बता सके जिसने दो अलग अलग संस्कृतियों में जीवन जिया है मेरे जैसा नहीं जो एक ही जगह एक ही संस्कृति में रहा हो| फिर भी कल्पना के घोड़े दौड़ाने में तो कोई मनाही नहीं है| मेरे विचार से ऐसे व्यक्ति को,
- दूसरे कि बात सुनने तथा समझने की क्षमता होनी चाहिये|
- इस बात को स्वीकारने का बड़प्पन होना चाहिये कि हो सकता है कि उसकी संस्कृति में कुछ कमी है जो दूसरी संस्कृति में नहीं है|
- यदि दूसरी संस्कृति में कुछ अच्छाई है तो उसे अपनाने की शक्ति होनी चाहिये|
Sahi kaha aapne. Doosri sanskriti mein apne aap ko dhalne ke liye ek doosre ke vicharon ko nirpeksha bhav se samajhne ki aavshyakta hai. sirf apni cheez sahi thahrane wale aise vatavaran mein apne ko dhal pane mein aksham sidhdh hote hain.
ReplyDeleteउन्मुक्त जी,
ReplyDeleteआपका धन्यवाद कि आपने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
आपने बिल्कुल ठीक कहा "दूसरे कि बात सुनने तथा समझने की क्षमता होनी चाहिये", यह बात संभवतः हर उस व्यक्ति पर लागू होती है जो कुछ सीखने की इच्छा रखता है।
अभिनव
उन्मुक्त जी,
ReplyDeleteआपका धन्यवाद कि आपने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
आपने बिल्कुल ठीक कहा "दूसरे कि बात सुनने तथा समझने की क्षमता होनी चाहिये", यह बात संभवतः हर उस व्यक्ति पर लागू होती है जो कुछ सीखने की इच्छा रखता है।
अभिनव