बच्चन जी के जीवन में आइरिस नाम की एक लड़की आयी पर उसने उनका प्रेम निवेदन स्वीकार नहीं किया। वे अकेले हो गये और जीवन में नारी को ढूढ़ने लगे। वे अपने मित्र प्रकाश के पास बरेली थे वहां पर उनकी मुलाकात तेजी जी से हुई जो कि लाहौर में साइकोलोजी पढ़ाती थीं। प्रथम मुलाकात के अनुभव को बच्चन जी इस प्रकार से वर्णित करते हैं।
'आज प्रेमा ने अपनी सहेली का परिचय मुझसे कराया है, और बारह वर्ष पहले लिखी अपनी एक तुकबन्दी मेरे कानों में बार-बार गूँजती रही -रात्रि में कविता पाठ पर उनका तेजी जी से भावात्मक - और उसका वर्णन इस प्रकार है,
इसीलिये सौन्दर्य देखकरपर अदृशय देख रहा था कि जाल बिछ चुका था और करूणा अवसाद के जाल में फँस चुकी थी या अवसाद ने करूणा को अपने पाश-अपने बाहुपाश- में बाँध लिया था ! यह तो मैं दूसरे दिन कह सकता था, लेकिन उस दिन मैं उस सौन्दर्य से असंपृक्त, उदासीन, दूर, डरा-डरा रहा- ‘भय बिनु होइ न प्रीति’ का क्या कोई रहस्यपूर्ण अर्थ है?'
शंका यह उठती तत्काल,
कहीं फँसाने को तो मेरे
नहीं बिछाया जाता जाल
'न जाने मेरे स्वर में कहाँ की वेदना भर गयी कि पहले पद पर ही सब लोग बहुत गम्भीर हो गए। जैसे ही मैंने यह पंक्ति पूरी कीशादी का प्रण लिया, सगाई वहीं हुई। कुछ दिनो बाद शादी इलाहाबाद में।
उस नयन में बह सकी कबकि देखता हूँ कि मिस [तेजी] सूरी की ऑंखें डबडबाती हैं और टप-टप उनके ऑँसू की बूँदें प्रकाश के कंधे पर गिर रही हैं, और यह देखकर मेरा कंठ भर आता है—मेरा गला रूंध जाता है—मेरे भी आँसू नहीं रूक रहे हैं। --- और अब मिस सूरी की आँखों से गंगा -जमुना बह चली है --- मेरी आँखों से जैसे सरस्वती --- कुछ पता नहीं कब प्रकाश, प्रेमा, आदित्य और उमा कमरे से निकल गये र्हैं और हम दोनों एक-दूसरे से लिपटकर रो रहे हैं और आँसुओं के उस संगम से हमने एक-दूसरे से कितना कह डाला है, एक-दूसरे को कितना सुन लिया है, उन आँसुओं से कितने कूल-किनारे टूट-गिर गए हैं, कितने बांध ढह-बह गए हैं, हम दोनों के कितने शाप-ताप घुल गए हैं, कितना हम बरस-बरस कर हल्के हुए हैं, कितना भीग-भीगकर भारी कोई प्रेमी ही इस विरोध को समझेगा – कितना हमने एक-दूसरे को पा लिया है, कितना हम एक-दूसरे में खो गए हैं। हम क्या थे और हम आँसुओं के जादुई चश्मों में नहाकर क्या हो गए हैं। हम पहले से बिल्कुल बदल गए हैं पर हम एक-दूसरे को पहले से कहीं ज्यादा पहचान रहे हैं-क्योंकि एक-दूसरे के सामने हम अपने असली रूप में हैं। चौबीस घंटे पहले हमने इस कमरे में अजनबी की तरह प्रवेश किया था, और चौबीस घंटे बाद हम उसी कमरे से जीवन-साथी (पति-पत्नी नहीं) बनकर निकल रहे हैं- यह नए वर्ष का नव प्रभात है जिसका स्वागत करने को हम बाहर आए हैं।'
इस नयन की अश्रुधरा
पहली पोस्ट: हरिवंश राय बच्चन – विवाद
दूसरी पोस्ट: हरिवंश राय बच्चन - क्या भूलूं क्या याद करूं
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आप्के इस सुन्दर प्रयास के लिए मै आप्को धन्यवाद देति हु,
ReplyDeleteहिन्दि साहित्य मै रुचि होने के कार्ण ये जीव्नि य जीव्नि का कुछ भाग पढ कर हि मुझे सागर मै से कुछ बुन्दो के मिल जाने क अनुभव हुआ और जिसे हिन्दि साहित्य के सागर मै डुब जाने कि इच्छा हो उस्के लिये ये बुन्दे भि मोति के समान है, जिन्हे सागर मै से ढुंढा गया है।
पुनः ध्न्यवाद
आभारि
मुक्ता खेर