मेरे जीवन में बहुत से लोग महत्वपूर्ण रहे/ हैं। ऐसे दो का, आज जन्मदिन है - इनमें से एक की चर्चा (१९.०९.१९४४ - २८.१०.२०१९) मेरे द्वारा; और दूसरी (१९.०९.२०१६- ), शायद कभी, मेरे बारे में ऐसी चर्चा करे। लेकिन, तब तक मैं बहुत दूर जा चुका होउंगा।
जेके इन्स्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड फिजिक्स इलाहाबाद विश्विद्यालय की विज्ञान संकाय में स्थिति है। इसका उद्घाटन ४ अप्रैल, १९५६ में जवाहर लाल नेहरू ने किया था। यह चित्र उसी समय का है। इसके दो कोनो पर दो महत्वपूर्ण व्यक्ति - एक मेरे लिये और दूसरा देश के लिये।
लगता है कि राष्ट्रगान के 'जय हे' पर चित्र खींचा गया है।
१९३९ की वसन्त पंचमी - अम्मा और दद्दा की शादी। अम्मा ग्यारवीं में और दद्दा लखनऊ में, गणित की अधिस्नातक और कानून शिक्षा के दूसरे साल में। १९४० में, दद्दा शिक्षा पूरी कर बांदा वकालत शुरू की और अम्मा इंटर पास कर, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय पढ़ने चली गयीं।
अम्मा ने १९४२ में स्नातक और १९४४ में कानून की पढाई, हॉस्टल में रह कर पूरी की। उसी के बाद जीजी इस दुनिया में आयीं, फिर दादा। १९५० में, दद्दा इलाहाबाद वकालत करने आये। मैं इलाहाबाद में ही पैदा हुआ - जीजी के आने के सात साल बाद। शायद, यह अन्तर ही, हमारे बीच खास रिश्ता लेकर आया - भाई बहन का कम, मां बेटे का ज्यादा।
१९५० या १९६० के दशक में, यदि शाम को, कोई घर आता तो उसे बरामदे या खाने की मेज पर हम पहेलियां या फिर विज्ञान के किसी सिद्धांत पर बहस होते दिखते।
दद्दा (मेरे पिता) और रज्जू भैइया (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सर-संघचालक) ने साथ-साथ, सिविल लाइन्स में जमीन खरीदी और एक ही अहाते में मकान बनवाया। अक्सर (हफ्ते में तीन या चार दिन), शाम को, शाखा से लौटते समय, वे भी इस बहस में शामिल होते थे। यही कारण था, कि, हम सब का प्रिय विषय विज्ञान रहा।
लेकिन, यह सोचना कि जीजी को केवल विज्ञान में रूचि थी, गलत होगा। जीजी बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी थीं। उन्हें कला और विज्ञान दोनो में महारत हासिल थी। वे संगीत और नृत्य में भी निपुण थीं।
जीजी गिटार अच्छा बजाती थीं। वे सिविल लाइन्स में सीखती थीं। एक दो बार, मैं उन्हें लेने गया हूं। वे अक्सर, घर में, गिटार बजाया करती थीं। मैं इसका साक्षी हूं। लेकिन, मुझे यह नहीं मालूम था कि वे भरतनाट्यम में भी अच्छा करती थीं। मैंने उन्हें कभी नृत्य करते नहीं देखा। यह बात, चित्रों और उनके सर्टिफिकेट से जानी। जीजी को, अखिल भारतीय भरतनाट्यम प्रतियोगिता में, पहला पुरुस्कार भी मिला था।
बचपन की एक घटना मुझे अभी भी याद है। हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे। मैं केजी में रहा होंगा या फिर दूसरी कक्षा में। मुझे कीजी में डबल प्रमोशन मिला था इसलिये पहली कक्षा में कभी नहीं रहा। एक दिन स्कूल में, झूला झूलते समय, गिर गया। आंखों में कंकड़ भर गये। भैया लाल, रिक्शा चलाता था। वही हमें स्कूल छोड़ने और लाने का काम करता था। जीजी मुझे गोद में लेकर, रिक्शे पर घर लायीं। शायद, देर होती तो आंखों में परेशानी हो सकती थी।दद्दा तो हमेशा वकालत में व्यस्त रहे थे, या फिर अपने संघ के काम में। उनके पास हमारे लिये समय नहीं था। हम चार (अम्मा, जीजी, दादा और मैं) का अपना ही रिश्ता था। अम्मा और जीजी का खास रिश्ता था कि वे हर फिल्म, पहले दिन, पहला शो देखती थीं। इस मां-बेटी ने जितना स्कूल, यूनिवर्सिटी के पीरियड कट कर फिल्में देखी, शायद, उतनी किसी ने न देखी होंगी।
उस समय, हम केवल अंग्रेजी पिक्चर ही देख सकते थे, जो या तो इतवार को सुबह १० बजे, या फिर शाम को ६ बजे ही लगती थी। इसलिये मेरे और दादा के लिये पिरियड कट करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन, जब मैंने खेलना शुरू किया, तब अक्सर स्कूल या विश्विद्यालय के पीरियड कट करना पड़ता था। उस समय हमें पीरियड कट करने से कभी मना नहीं किया गया।
जीजी के प्रिय कलाकार मनोज कुमार और साधना हुआ करते थे। १९६० के पहले भाग में, साधना की फिल्म 'मेरे महबूब’ आयी थी। यह अपने समय की बेहद लोकप्रिय फिल्म थी। इसमें सामने से, साधना के बाल कटे थे, जिससे साधना कुछ अलग सी लगती थीं। यह साधना कट, जीजी और बहुत सी लड़कियों का प्रिय स्टाइल हो गया था।
यह फिल्म निरंजन (चौक) में लगी थी। हमारे घर से बहुत दूर। यह मुस्लिम सामाजिक फिल्म थी और हमारा परिवार संघी – कितनी मुश्किल से जीजी और अम्मा, यह फिल्म देख पायीं। मैंने यह फिल्म, इस शताब्दी के शुरू में, दूरदर्शन पर देखी। जीजी को फोन मिलाया, फिर फिल्म और उसका प्रसिद्ध गाना ‘मेरे महबूब तुझे, मेरी मोहब्बत की कसम’ की चर्चा - सुखद अनुभव रहा।
१९६० दशक के अन्त में मनोज कुमार की फिल्म 'पूरब और पश्चिम’ बनी। इसकी कुछ शूटिंग इलाहाबाद में हुई है। मनोज कुमार और सायरा बानो इलाहाबाद आये थे। बार्नेटस में ठहरे थे। यह हमारे घर के पास था। जीजी तो मनोज कुमार से मिलना चाहती थीं। ले जाने के लिये, मै ही पकड़ा गया। जीजी के साथ होटल तक गया। बहुत भीड़ थी। बड़ी मुश्किल से हम लोग मिल सके। बहुत समय तक, जीजी इस अनुभव को संजोये रहीं।
अपने बनाये क्रोशिया का स्वेटर पहने हुऐ |
१९६० के दशक में, लल्ला मामा, कुछ साल हमारे साथ रहे। उन्होंने ही जीजी को गाड़ी चलाना सिखाया। कार चलाने की प्रैक्टिस के लिये, हम लोग, जीजी के साथ, अक्सर संगम की तरफ जाते थे। वहां हां अजीब तरह की गन्ध रहती थी जिसे हम इसे इत्र-नौसादर कहते। घूमने में, अक्सर ज्यादा लोग होते थे। मुझे और दादा को तो कभी कार की डिकी में, तो कभी कार के उपर कैरियर पर, बैठना पड़ता था। बहुत जल्दी ही, जीजी, कार चलाने में माहिर हो गयीं। फिर तो, जब भी जीजी और अम्मां को साथ-साथ सिविल-लाइन्स जाना होता था तो जीजी कार से ही ले जाती थीं।
कभी-कभी, जीजी विश्वविद्यालय कार चला कर जाती थीं। यह वह समय था जब विश्वाविद्यालय में कुछ टीचर ही कार से आते थे। विद्यार्थियो में तो शायद कोई भी नहीं। मै नही जानता कि कभी कोई लड़की कार चला कर विश्वविद्यालय गयी होगी।
जीजी कार चलाती थीं, सुन्दर थीं। उनके पास, पहनावों का भन्डार था। मेरी याददाश्त में, उन्होंने कभी कोई साड़ी या सलवार-कुर्ता, दूसरी बार नहीं पहना। वे लड़कों से बाते नहीं करती थीं। इस लिये, घमन्डी होने का तमगा लगा। लेकिन, वे घमंडी नहीं थीं, घमन्ड तो छू भी नहीं गया था। बस, उस समय, हमारे कस्बे में, लड़के-लड़कियों में बात-चीत करने का रिवाज़ कम था।
जीजा जी, पहले आर्मी में थे। उसके बाद सिविल सेवा में गये। जब जीजी से शादी की बात चली, तब वे ट्रेनिंग कर रहे थे। जीजी के साथ के आधिकतर लड़के, वहीं थे। उन्होंने, जीजा जी को, जीजी की अलग तरह की धारणा बतायी। लेकिन शादी के बाद, तो जीजा जी समझ ही गये।
यह सब, और कुछ मेरे जीजी के खास रिश्ते की बात, अगली बार।
इस चिट्ठी को आप, जीजी की बेटी श्वेता की आवाज में, यहां सुन सकते हैं।
'मेरे महबूब, तुझे मेरी मोहब्बत की कसम' गीत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हॉल में फिल्माया गया था। यदि आपने वहां से पढ़ाई की हो तब यह गीत आपको वहां की याद दिलायेगा। गीत में, सधाना भी 'साधना कट' के साथ।
यह अपने समय का सबसे लोकप्रिय गाना था। यह फिल्म का टाइटिल गाना भी। कहा जाता है कि इस गाने के लिये नौशाद (संगीतकार) ने केवल चार वादकों को साथ रखा। इस पर निर्माता ने आपत्ति जताते हुऐ कहा कि यह तो फिल्म की दुल्हन है। इसमें पूरा वादक समूह क्यों नहीं है केवल चार ही वादक क्यों।
नौशाद ने जवाब दिया कि यह गाना ऐसी दुल्हन है जिसे सजाने की कोई जरुरत नहीं। यह अपने आप में ही ख़ूबसूरत है। इसका भी आनन्द लीजिये।
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यह टिप्पणी कैलाश मेहरा की है और उनके अनुरोध पर की जा रही है,
ReplyDeleteNostalgic memories. I remember one incident.
I was going to MCC for net practise around 3.30 pm along with a friend. We saw Jijee and he said that she is the most beautiful girl in the science faculty. I asked do you know her. He said no. She is much senior. I said let us talk to her. He said what are you doing. Jijee was proceeding to unlock the car. She saw me. I waved and she responded. We talked for a while. My friend was amazed. I introduced my friend, who blushed. Jijee wished us good luck. Later I told him that we have family relations. Later, I told this to Jijee. She enjoyed and patted my back.
I was also a part of Bua's company for watching movies and also enjoyed lunch prepared by Bhola.
हृदय स्पर्शी जीवंत संस्मरण जो आत्मीय लगाव को स्वयं ही प्रदर्शित करने वाला है।
ReplyDeleteUnique
ReplyDeleteप्रणाम दादा, बहुत ही सुंदर वर्णन, जीजी वाकई बहुत सहृदय व प्यारी थी,मेरा साथ थोड़े समय के लिए ही रहा पर जीजी का अपनत्व नही भूलता।मैं भोपाल अक्सर जीजी के घर जाती थी ,जीजी व जीजाजी दोनो ही बहुत स्नेही व आत्मीयता से परिपूर्ण थे।जीजी ने मेरे बच्चों के लिए जो किया वो अविस्मरणीय है।आज उनकी जन्मदिन पर बस उनकी।प्यारी स्मृतियों को संजो कर रख रहे हैं ।💐💐
ReplyDeleteबहुत सुन्दर । लिखते रहिए ।
ReplyDeleteVery well written the best part is the love of brother sister can be felt
ReplyDeleteएक गौरवशाली व्यक्तित्व, राष्ट्रीय भावना से भरे उच्च शिक्षित परिवार, की रोचक स्मृतियां ,फिल्म और होरो हीरोइन के शौक का सुंदर ढंग से वर्णन करने के लिए बधाई,यतीन्द्र जी
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