इस चिट्ठी में, हमारे परिवार और जवाहर लाल नेहरू के बीच दो रोचक किस्सों की चर्चा है।
मोतीलाल और जवाहर लाल नेहरू - इलाहाबाद में, इनके बारे में, दो प्रसंग चर्चित हैं।
पहला, कि इनके कपड़े पेरिस धुलने जाते थे। यह सही नहीं है, केवल रूपक है। यह इसलिये कहा जाता है कि मोतीलाल नेहरू सफल वकील थे और एन्होंने बहुत धन अर्जित किया।
दूसरा, वकालत करना हो तो इलाहाबाद में करो - यदि सफल हो गये तो मोतीलाल नेहरू यदि असफल रहे तो जवाहर लाल नेहरू। दोनो में से कोई भी घाटे का सौदा नहीं।
मैंने यहां बताया था कि १९१० के दशक में पहले बाबा ने इलाहाबाद में, फिर पत्नी के स्वाभिमान के कारण बांदा में वकालत शुरू की। १९२० के दशक में, मेरे बाबा चौधरी केशव चन्द्र सिंह, बुन्देलखंड के जाने माने सिविल के वकील के रूप में प्रतिष्ठित हो गये।
इसी दशक में, बांदा जिले की पहली कार (शेव्रोले) भी बाबा ने कलकत्ता से खरीदी। १९२६ में, कचहरी के बगल में १० बीघा (लगभग ४.५ एकड़) जमीन का बंगला लिया। हमारे छोटे बाबा (बाबा के छोटे भाई) चन्द्र भूषण सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। कई बार जेल भी गये। इन सब की चर्चा, मैंने 'बाबा, मेरे जहान में' नामक शीर्षक से की है।
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भारतीयों को कुछ अधिकार, भारत सरकार अधिनियम १९१९ के अन्दर मिले थे। इसके अन्दर विधान परिषद का गठन हुआ। बाबा सबसे पहले १९२४ और फिर १९३२ में, विधान परिषद के सदस्य चुने गये।
भारत सरकार अधिनियम, १९३५ के अन्दर, १९१९ के अधिनियम के स्वरूप को बदल दिया गया और स्वशासन गठन करने की बात की गय़ी। इसी के अन्तर्गत,देश में १९३६-३७ में चुनाव हुऐ थे।
नेहरू जी, उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इन चुनावों में, कांग्रेस का प्रचार करने के लिये, उन्होंने बुन्देलखन्ड का दौरा किया। इसी दौरान, जनवरी १९३७ में बांदा आये थे। इसके पहले, एक बार १९२०-२१ के दौरान और आखरी बार, १९५० दशक के शुरु में भी, बांदा आये।
१९३७ के चुनाव में, बांदा से, बाबा चुनाव में खड़े थे। नेहरु जी उन्ही के चुनाव में आये थे। चुनाव का भाषण बांदा की रामलीला मैदान में दिया था़।
उस दिन का खाना, हमारे घर पर था। हमारे परिवार को बताया गया था कि नेहरू जी, छुंकी दाल पसन्द करते हैं। उनकी दाल छौंक कर लायी गयी। लेकिन उन्होंने अपने सामने दाल छौंकने की बात की। खाना, रसोईघर से दूर जगह पर था। जब घर से कलछुल में छौंक लायी गयी तब तक आते-आते, ठन्डी हो गयी और जब दाल में डाली गयी तब 'छुन्न' आवाज नहीं आयी। नेहरू जी ने फिर खाने से मना कर दिया। अब कुछ समझ में नही आ रहा था कि क्या किया जाय।
दादी ने सोचा कि यदि खाने की जगह ही कलछुल को गर्म किया जाय तो फिर बात बन सकती है़। फिर क्या था एक अंगीठी, वहां ले जायी गयी, जहां खाना हो रहा था। वहीं पर छौंक गर्म कर, दाल में डाली गयी। बेहतरीन 'छुन्न' की आवाज हुई। नेहरू जी भी प्रसन्न हो गये। छक कर, भोजन का आनन्द लिया।
बाबा के पास कार भी थी। इसी कार में नेहरू जी गये भी थे। उनके साथ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी थे। लोग अधिक हो रहे थे। इसलिये यह समझा गया कि यदि ड्राइवर भी साथ रहेगा तब एक व्यक्ति कम जा पायेगा। फिर बाबा ने ही कार चलायी।
रास्ते में टायर पंक्चर हो गया। बाबा ने कहा कि उन्हें टायर बदलना नहीं आता। बाकी लोगों का भी यही हाल था। केवल नेहरू जी और कलाम साहब को ही गाड़ी का टायर बदलना आता था। जाहिर है कि यह काम भी उन दोनो ने मिल कर किया।
हमारे परिवार में यह याद नहीं रहा कि किस दिन यह सब हुआ था। कुछ लोगों को हमीरपुर का भी जिक्र याद था। इस बारे में मैंने नेहरु संग्रहालय एवं पुस्तकलाय से समपर्क किया। श्री अजित कुमार वहीं काम करते हैं।
उन्होंने ३१ जनवरी, १९३७ के "आज' अखबार में प्रकाशित खबर भेजी है। इसको पढ़ने से लगता है कि नेहरू जी, २७ जनवरी १९३७ को कर्वी, अत्तरा होते बांदा आये थे। हमारे घर पर खाना इसी दिन था। इसके बाद वे कार से ही हमीरपुर गये। जाहिर है कि टायर बदलने का किस्सा, इसी के दौरान हुआ।
उस यात्रा में एक और घटना चरखारी राज्य में हुई, जिसका जिक्र खबर में है़
१९३७ में, राजमाता विजय राजे सिंधिया, हमारे घर, अपने पिता के साथ रुकी थीं। उन्हें - हमारे घर का महौल, बाबा कैसे लगे - इसकी चर्चा उन्होंने अपनी आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ' के पेज ४७-४९ पर की है। इसे मैंने 'मेरे बाबा - राजमाता की ज़बानी' नामक शीर्षक में, उनकी जीवनी के उद्धरण के साथ लिखा है।
१९४० के दशक में, बाबा का कांग्रेस से मोह भंग हो गया और वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में चले गये। विद्यार्थी जीवन में, मेरे पिता साम्यवादी (कम्युनिस्ट) विचारों के थे लेकिन इसी दशक में, वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्राचरकों के सम्पर्क में आये और इसका हिस्सा बन गये। हमारा परिवार कांग्रेस से दूर चला गया।
बाबा ने आखिरी चुनाव, बांदा से, १९५७ में, निर्दलीय उम्मीदवार की तरह, सीढ़ी चुनाव चिन्ह पर लड़ा। लेकिन वे सफल नहीं हुऐ।
हमारा बगीचा बहुत बड़ा था। इसमें सब तरह के फूल और फल के पेड़ थे। एक बार चन्दशेखर आजाद भी हमारे बगीचे में आ कर छिपे थे। इसकी चर्चा फिर कभी।
उनके पीछे लालबहादुर शास्त्री देखे जा सकते हैं।
चित्र सहयोग - अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति श्री आलोक कुमार सिंह
इस चिट्ठी को लिखने में - अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति श्री आलोक कुमार सिंह, और श्री अजित कुमार और श्री अमृत टंडन ने अपना सहयोग दिया है। मैं उनका आभारी हूं।
हरप्रसाद सिंह, अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति श्री आलोक कुमार सिंह के बाबा थे। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और १९३७ के चुनाव में कर्वी से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे।
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