Sunday, June 04, 2006

रिचर्ड फिलिप्स फाइनमेन-४

मैने इस विषय पर पहली पोस्ट पर चर्चा की थी कि मै कैसे फाइनमेन के संसार से आबरू हुआ| दूसरी पोस्ट पर फाइनमेन के बचपन के बारे मे चर्चा हुई थी| तीसरी पोस्ट पर युवा फाइनमेन के बारे मे जाना| इस बार उनके कौरनल और कैल-टेक मे बिताये समय के बारे मे बात करेंगे|

मैंने पहले ही बताया था कि फाइनमेन को नोबेल पुरूस्कार 1966 में मिला| पर यह भी रोचक है कि इस पर काम करने का आइडिया उन्हें कैसे आया|

दूसरे महायुद्ध के दौरान लौस एलमौस लेबोरेटरी में फाइनमेन की मित्रता बेथ से हुई जिनसे उनकी काफी पटती थी| बेथ कौरनल में थे, इसलिये फाइनमेन भी कौरनल चले गये| एक दिन वे कौरनल के अल्पाहार गृह में बैठे थे| वहां एक विद्यार्थी ने एक प्लेट को फेंका| प्लेट सफेद रंग की थी और उसमें बीच में कौरनल का लाल रंग का चिन्ह था| प्लेट डगमगा भी रही थी और घूम भी रही थी| यह अजीब नज़ारा था| फाइनमेन इसके डगमगाने और घूमने और के बीच में सम्बन्ध ढ़ूढ़ने लगे| इसमे काफी मुश्किल गणित के समीकरण लगते थे| इसमे उनका बहुत समय लगा। उन्होंने पाया कि दोनो मे 2:1 का सम्बन्ध है। उनके साथियों ने उनसे कहा कि वह इसमे समय क्यों बेकार कर रहे हैं| उनका जवाब था, 'इसका कोई महत्व नहीं है यह सब वे मौज मस्ती के लिये कररहे हैं| पर वह इसके महत्व के बारे मे ठीक नहीं थे| वे जब एलेक्ट्रौन के घूमने के बारे में शोध करने लगे तो उन्हें कौरनल की डगमगाति और घूमती प्लेट में लगी गणित फिर से याद आने लगी और इसने उस सिद्धान्त को जन्म दिया जिसके कारण उन्हें नोबेल पुरूस्कार मिला| सच है जीवन में बहुत कुछ वह भी आवश्यक है जो केवल मौज मस्ती के लिये हो, चाहे उसका कोई और महत्व हो या न हो - मौज मस्ती ही अपने आप मे एक महत्व की बात है| यदि आप मौज मस्ती में ही अपनी जीविका ढ़ूढ सके तो क्या बात है, यदि यह नहीं हो सकता तो शायद जीविका में ही मौज मस्ती ढ़ूढ पाना दूसरी अच्छी बात है ।

फाइनमेन, न ही एक महान वैज्ञानिक थे पर एक महान अध्यापक भी थे| उन्हे मालुम था कि अपनी बात दूसरे तक कैसे पहुंचायी जाय| व्याख्यानशाला उनके लिये रंगशाला थी जिसमें नाटक भी था और आतिशबाजी भी|

फाइनमेन के द्वारा भौतिक शास्त्र पर कैल-टेक के लेक्चरों का जिक्र मैने इस विषय कि पहली पोस्ट पर किया था| इन लेक्चरों को उन्होने सितम्बर 1961-मई 1963 मे दिया था| यह लेक्चर खास थे इसलिये इन्हें हमेशा के लिये सुरक्षित रखा गया और बाद मे ये तीन लाल किताबों के रूप में छापे गये| फाइनमेन सप्ताह में केवल दो लेक्चर देते थे बाकी समय वह इन लेक्चरों को तैयार करने में लगाते थे| लेक्चचर की हर लाइन, हर मजाक को (जो वह लेक्चरों के दौरान करते थे) पहले से सोच विचार कर रखते थे| कभी भी उनके साथ लेक्चर के नोटस नहीं होते थे| बस केवल एक छोटा सा कागज रहता था जिसमें कुछ खास शब्द केवल यह संकेत देने के लिये कि आगे क्या बताना है| यह तीन साल संसार के लेक्चर किसी भी विश्वविद्यालय के किसी भी विषय पर के लेक्चरों मे अद्वितीय हैं| न कभी ऐसे हुये न शायद फिर कभी होंगे| क्योंकि मालुम नहीं कि फिर कभी ऐसा व्यक्ति आयेगा कि नहीं|

अगली बार हम लोग उनके व्यक्तित्व और उनके जीवन की कुछ और घटनाओं का जिक्र करेंगे|

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