Friday, July 17, 2009

ऐसे व्यक्ति की जगह, बन्दरों से रिश्ता बेहतर है

दुनिया की सबसे प्रसिद्ध बहस, विकासवाद के सिद्धान्त के कारण हुई। इस चिट्ठी इसी की चर्चा है।

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विकासवाद के सिद्धांत ने दुनिया की सबसे प्रसिद्ध बहस को भी जन्म दिया। यह बहस ३० जून, १८६० को, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संग्रहालय में थॉमस हक्सले और बिशप सैमुअल विलबफोर्स  के बीच हुई। बिशप सैमुअल, डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के विरोधी  और हक्सले समर्थक थे। 
 बिशप सैमुअल विलबफोर्स

बिशप सैमुअल बहुत अच्छा बोलते थे।  वे सोचते थे कि यह बहुत अच्छा तरीका है कि जब डार्विन के विकासवाद को सिद्धांत हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। इस बहस में क्या बोला गया इसका रिकार्ड तो उपलब्ध नहीं है पर कहा जाता है कि  बिशप ने  हक्सले से  प्रश्न पूछा,
'आप अपने को अपनी माता की तरफ अथवा पिता की तरफ से बंदरो का वंशज कहलाना पसन्द करेंगे।'


हक्सले ने सोचा,  ईश्वर ने ही बिशप को मेरे हाथ में सौंप दिया है उसने जवाब दिया,
'If..the question is put to me, would I rather have a miserable ape for a grandfather or a may highly endowed by nature and possessed of great means  of influence, and yet who employs these faculties and that influence for the mere purpose of introducing ridicule into a grave scientific discussion... I unhesitatingly affirm my preference for the ape.'
यदि मुझसे यह प्रश्न पूछा जाए कि क्या मैं बन्दरों से नाता जोड़ना चाहूँगा या ऐसे व्यक्ति से जो  शक्तिशाली है, महत्वपूर्ण है, और वह वैज्ञानिक तथ्यों को मज़ाक के रूप में लेना चाहता है तो ऐसे व्यक्ति की जगह, मैं बन्दरों से रिश्ता जोड़ना चाहूँगा।
 थॉमस हक्सले

प्रबुद्व लोगों के बीच यह बहस तभी समाप्त हो गयी जब हक्सले ने इसका उत्तर दिया। 

लेकिन कुछ लोग, सृजनवादी इसे मानने से इंकार करते हैं।  इन लोगों की विकासवाद पर क्या आपत्ति है? उसमें क्या कोई गुणवत्ता है? इस सब की चर्चा, इस श्रंखला की अगली कड़ी में।

डार्विन के जीवन में कुछ पड़ाव-एक नजर
१२ फरवरी, १८०९
श्रेस्बरी (Shresbury) में जन्म।
१८१७
आठ वर्ष की उम्र में, माँ की मृत्यु।
१८१७-१८२५
डार्विन ने विभिन्न स्कूलों में औसत श्रेणी के विद्यार्थी के रूप में अध्ययन किया।
१८२५
१६ वर्ष की उम्र में, चिकित्सा की पढ़ाई शुरू की।
१८२७
चिकित्सा की पढ़ाई रास न आने पर, पिता के सुझाव पर, डार्विन ने आध्यात्मविद्या (Theology) की पढ़ायी शुरू कर पादरी बनने की सोची। लेकिन उसकी रूचि प्राकृतिक इतिहास की ओर थी। उसने वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर जान हेंसलॉ (John Henslow) के आधीन कार्य किया।
१८३१- १८३६
एचएमएस बीगल में प्राकृतिक विशेषज्ञ के तौर पर समुद्र यात्रा की।
१८३७
डार्विन को रहस्यमयी बीमारी ने पकड़ लिया। इसने डार्विन को अगले चालीस वर्षों तक जकड़े रखा। इस कारण उसे महीनों पूर्ण रूप से आराम करना पड़ा।
१८३८
थामस मैलथुस (Thomus Malthus) की पुस्तक, 'ऎसे आन द प्रिंसिपल्स् आफ पॉप्युलेशन' (Essay on the principals of population) पढ़ने के बाद डार्विन, के मन में प्राकृतिक चुनाव (Natural selection) के विचार को दृढ़ किया।
१८३९
ऎमा वेवुड (Emma Wedgwood) के साथ शादी।
१८३९
समुद्री यात्रा पर, उसकी पुस्तक 'द वॉयज ऑफ बीगल' (The voyage of the Beagle) प्रकाशित हुई।
१८ जून, १८५८
अल्फ्रेड रसल वॉलेस का पत्र मिला, जिसमें प्राणियों की उत्पत्ति के बारे में वही सिद्वान्त लिखा था जैसा कि डार्विन सोचते थे।
१ जुलाई, १८५८
वॉलेस तथा डार्विन के संयुक्त नाम से, लन्दन की लीनियिन सोसायटी में पेपर प्रस्तुत किया गया।
२४ नवम्बर, १८५९
डार्विन की पुस्तक 'ऑन द ओरिजिन आफ स्पीशीज़' (On the Origin of Species) प्रकाशित हुई।
३० जून, १८६०
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संग्रहालय में थॉमस हक्सले और बिशप सैमुअल विलबफोर्स के बीच बहस।
१८६८-१८७२
उनकी अन्य पुस्तकें प्रकाशित हुई।
१९ अप्रैल, १८८२
डार्विन की मृत्यु।

डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े
भूमिका।। डार्विन की समुद्र यात्रा।। डार्विन का विश्वास, बाईबिल से, क्यों डगमगाया।। सेब, गेहूं खाने की सजा।। भगवान, हमारे सपने हैं।। ब्रह्मा के दो भाग: आधे से पुरूष और आधे से स्त्री।। सृष्टि के कर्ता-धर्ता को भी नहीं मालुम इसकी शुरुवात का रहस्य।। मुझे फिर कभी ग़ुलाम देश में न जाना पड़े।। ऐसे व्यक्ति की जगह, बन्दरों से रिश्ता बेहतर है।।

इस चिट्ठी के सारे चित्र विकिपीडिया से हैं।

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4 comments:

  1. सिलसिलेवार फिर से डार्विन की जीवनी कैलेंडर को प्रस्तुत किया आपने ! फिर से घटनाक्रम याद हो आये जो बार बार मैंने पढ़े हैं !

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  2. आप संक्षेप में ही सही बड़ा काम कर रहे हैं।

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  3. और उन्मुक्त जी, मुझे याद नहीं पड़ता लेकिन किसी विचारक ने कहा है की वानरों से मनुष्यों का विकास/उद्भव होना उन्नति है जबकि ईश्वर से मनुष्यों का उद्भव होना अवनति का परिचायक है.
    ईश्वर को पूर्ण मन जाता है और मनुष्य को अपूर्ण. इसका अर्थ हुआ की मनुष्य पूर्ण से निकला लेकिन अपूर्ण होकर. यह तो विकास नहीं हुआ.
    दूसरी ओर वानर मनुष्यों से नीचे की पायदान पर हैं और मनुष्य उनसे बेहतर हैं. यही विकास है.

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  4. निशांत जी की बात भी सही है .

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