रिश्तों में सबसे गहरा, सबसे पाक रिश्ता है मां का। पिछले दिनो, कई चिट्ठाकारों ने अपनी मां को अलग अलग तरीके से याद किया। किसी ने 'कोंहड़ौरी (बड़ी) बनाने का अनुष्ठान – एक उत्सव' के साथ, तो किसी ने 'वो २७ साल' लिख कर, किसी ने 'फिर कुछ कहना है' कह कर, तो किसी को 'मां भूक लगी है' के साथ, किसी के लिये 'मां' ही काफी था, तो किसी को 'घुघूती जी और मेरी माँ' से, तो किसी ने 'घुघूती बासूतीजी के प्रश्नों के उत्तर' देते हुऐ मां के बारे में बताया। यह सब पढ़ कर मुझे अपनी मां की याद आयी। लगा, कि मैं भी उनके बारे में लिखूं, जीवन के अनमोल पलों को पुनः जियूं। यह श्रंखला रिश्तों के बारे में है। इसे जब मैंने लिखना शुरू किया तो लगा कि इसी में कुछ उनके बारे में लिखूं।
बसंत पंचमी १९३९ - मेरी मां, पिता की शादी। मां , उस समय ११वीं कक्षा की छात्रा थीं और पिता उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। १९४० में, पिता ने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और मां ने इण्टरमीडिएट पास किया। पिता तो, बाबा के कस्बे में, वापस आकर व्यवसाय में लग गये पर मां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहर चली गयीं। अगले चार वर्ष छात्रावास में रह कर, उन्होने स्नातक और कानून की शिक्षा पूरी की। १९४४ में, वे अपने विश्वविद्यालय की पहली महिला विधि स्नातक बनीं। उनकी उच्च शिक्षा पूरी हो जाने के बाद ही, हम भाई-बहन इस दुनिया में आए। १९५० में, मेरे पिता इस कस्बे में व्यवसाय की बढ़ोत्तरी के लिये आये।
पिता, चाहते हैं कि हमारा लालन-पालन एक सामान्य भारतीय के अनुसार हो। वह इतना पैसा जरूर कमाते थे कि हमें हिन्दुस्तान के किसी भी स्कूल में आराम से पढ़ने भेज सकते थे पर उन्होंने हम सब को वहीं पढ़ने भेजा जहाँ हिन्दुस्तान के बच्चे सामान्यत: पढ़ते हैं। हमने अपनी पढ़ाई एक साधारण से स्कूल में पूरी की।
पिता, हिन्दी के भी बहुत बड़े समर्थक थे। हमें हिन्दी मीडियम स्कूल में ही पढ़ने के लिये भेजा गया। घर में अंग्रेजी में बात करना मना था। मेरे पड़ोस के सारे बच्चे, अंग्रेजी मीडियम में पढ़ते थे। उनके स्कूलों का भी बहुत नाम था। पड़ोस में सारे बच्चे अंग्रेजी में ही बात करते थे। यह हमें कभी, कभी शर्मिंदा भी करता था। मां हमेशा हमें दिलासा देती,
बस जिस पर 'भागा' आया उसे ही पढ़नी पड़ती थी। उन्होने, हमें पुस्तकें खरीदने से कभी नहीं रोका। इसके लिये उनके पास हमेशा पैसा रहता था। शायद हम सब के पुस्तक प्रेम का कारण, इस तरह से व्यतीत की गयी अनगिनत शामें है।
एक बार मैंने मां से पूंछा कि तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो, तुमने वकालत या कोई और काम क्यों नहीं किया। उनका जवाब था कि, '
मैंने उन्हें हमेशा सफेद रंग की साड़ी पहने हुए देखा। उनके सफेद रंग की साड़ी पहनने के कारण, गोवा में चर्च के अन्दर, क्रॉस के ऊपर सफेद कपड़े को देख कर, उनकी याद आ गयी।
मैंने मां को कभी सिंदूर लगाये नहीं देखा। एक बार हम ट्रेन में सफर कर रहे थे। एक महिला ने मां से पूछा कि क्या वे विधवा हैं? मां मुस्करायीं और हमारी ओर इशारा कर बोली,
बहन और मां के बीच में फिल्में देखने का एक अजीब रिश्ता था। वे दोनों हर हिन्दी फिल्म पहले दिन, पहले शो पर देखा करती थीं और पिता के घर वापस पहुँचने के पहले वापस। मैं समझता हूं कि मेरी बहन ने, स्कूल और विश्वविद्यालय से पीरियड कट कर, जितनी फिल्में देखी हैं वह किसी और लड़की ने नहीं देखी होंगीं। जब मेरी बहन ने पढ़ाना शुरू किया तब उसका स्कूल शनिवार को आधे दिन का होता था। तब वे दोनों पहले दिन को छोड़कर शनिवार को पहला शो देखने लगी।
हमें हिन्दी फिल्में देखने की अनुमति नहीं थी। मां को लगता था कि इसका असर अच्छा नहीं होगा। हम केवल अंग्रेजी फिल्में पिक्चर या फिर बच्चों का कोई खास शो ही देख सकते थे। बहन की शादी, मेरे विश्विद्यालय के जीवन के अन्तिम चरण पर हुई। उसके बाद, मेरी मां को हिन्दी फिल्में देखने के लिए साथी मिलना बन्द हो गया तब मैंने उनके साथ हिन्दी फिल्में देखना शुरू किया। कुछ दिनों के बाद मेरे दोस्त भी हमारे गुट में शामिल हो गये। टिकट का पैसा और कोका-कोला के पैसे तो मेरी मां ही देती थी :-) शादी के बाद, शुभा के साथ अनलिखी शर्त थी,
मां की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे छोटी-छोटी बातों से जीवन को भरपूर जीना जानती थीं, दशहरे की झांकी हो या कोई मेला हो, वह हमेशा उसमें जाने में उत्साहित रहती थीं और हम लोगों को भी वहाँ ले जाती थीं। वहाँ पर चाट खाना, कचौड़ी खाना उनको प्रिय था और हमें भी। मुझे यह अब भी बहुत प्रिय है पर शुभा को नहीं। बस जब वह नहीं होती है तब ही इसका आनन्द उठाता हूं।
मेरी मां एक गरीब परिवार से थीं और वह कहती थीं कि उनके घर एक बार ही खाना बनता था। वे हर का, खास तौर से गरीब रिश्तेदारों का ख्याल ज्यादा ही रखती थीं। उनका कहना था कि जो जीवन में बहुत नहीं कर पाया उसका बहुत ख्याल रखना चाहिए क्योंकि वह शायद हिचक के कारण कुछ न कह पाये।
मैंने मां को पिता से कभी बात करते नहीं देखा पर उनके कुछ न कहने पर वह मेरे पिता के मन की हर इच्छा जान जाती थीं। वे पिता की हर बात नहीं मानती थीं कई बार वे हमारा साथ देती थीं पर जिसे वे मानती थी वह उनके न बताये भी जान जाती थीं जैसे कि वे उनका मन पढ़ लेती हों। मैं अक्सर सोचता हूं कि शुभा, क्यों मेरे मन की बात नहीं समझ पाती है? वह कहती है कि,
अगली बार - कुछ मित्रता के बारे में।
भूमिका।। Our sweetest songs are those that tell of saddest thought।। कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन।। Love means not ever having to say you're sorry ।। अम्मां - बचपन की यादों में।। रोमन हॉलीडे - पत्रकारिता।। यहां सेक्स पर बात करना वर्जित है।। जो करना है वह अपने बल बूते पर करो।। करो वही, जिस पर विश्वास हो।। अम्मां - अन्तिम समय पर।। अनएन्डिंग लव।। प्रेम तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो।। निष्कर्षः प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।। जीना इसी का नाम है।।
बसंत पंचमी १९३९ - मेरी मां, पिता की शादी। मां , उस समय ११वीं कक्षा की छात्रा थीं और पिता उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। १९४० में, पिता ने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की और मां ने इण्टरमीडिएट पास किया। पिता तो, बाबा के कस्बे में, वापस आकर व्यवसाय में लग गये पर मां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए शहर चली गयीं। अगले चार वर्ष छात्रावास में रह कर, उन्होने स्नातक और कानून की शिक्षा पूरी की। १९४४ में, वे अपने विश्वविद्यालय की पहली महिला विधि स्नातक बनीं। उनकी उच्च शिक्षा पूरी हो जाने के बाद ही, हम भाई-बहन इस दुनिया में आए। १९५० में, मेरे पिता इस कस्बे में व्यवसाय की बढ़ोत्तरी के लिये आये।
पिता, चाहते हैं कि हमारा लालन-पालन एक सामान्य भारतीय के अनुसार हो। वह इतना पैसा जरूर कमाते थे कि हमें हिन्दुस्तान के किसी भी स्कूल में आराम से पढ़ने भेज सकते थे पर उन्होंने हम सब को वहीं पढ़ने भेजा जहाँ हिन्दुस्तान के बच्चे सामान्यत: पढ़ते हैं। हमने अपनी पढ़ाई एक साधारण से स्कूल में पूरी की।
पिता, हिन्दी के भी बहुत बड़े समर्थक थे। हमें हिन्दी मीडियम स्कूल में ही पढ़ने के लिये भेजा गया। घर में अंग्रेजी में बात करना मना था। मेरे पड़ोस के सारे बच्चे, अंग्रेजी मीडियम में पढ़ते थे। उनके स्कूलों का भी बहुत नाम था। पड़ोस में सारे बच्चे अंग्रेजी में ही बात करते थे। यह हमें कभी, कभी शर्मिंदा भी करता था। मां हमेशा हमें दिलासा देती,
'ये लोग अपने स्कूल पर गर्व करते हैं पर तुम्हारा स्कूल तुम पर।'मां की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। वे अंग्रेजी के महत्व को समझती भी थीं। वे हमें बीबीसी सुनने के लिये प्रेरित करती। प्रतिदिन शाम को, हम सब भाई-बहनों को उन्हें अंग्रेजी की कोई न कोई कहानी रीडर्स डाइजेस्ट से या फिर अंग्रेजी का अखबार पढ़ कर सुनाना पड़ता था। वे हमारा उच्चारण ठीक करती और अर्थ समझाती थीं। किसकी बारी पड़ेगी यह तो हम लोग यह खेल से ही निकालते थे,
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बोल,
अस्सी नब्बे पूरे सौ।
सौ में लगा धागा,
चोर निकल भागा।
अस्सी नब्बे पूरे सौ।
सौ में लगा धागा,
चोर निकल भागा।
बस जिस पर 'भागा' आया उसे ही पढ़नी पड़ती थी। उन्होने, हमें पुस्तकें खरीदने से कभी नहीं रोका। इसके लिये उनके पास हमेशा पैसा रहता था। शायद हम सब के पुस्तक प्रेम का कारण, इस तरह से व्यतीत की गयी अनगिनत शामें है।
एक बार मैंने मां से पूंछा कि तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो, तुमने वकालत या कोई और काम क्यों नहीं किया। उनका जवाब था कि, '
मैं घर की सबसे बड़ी बहू हूं। तुम्हारे बाबा के कस्बे से तुम्हारे चाचा, बुआ, उनके लड़के, लड़कियां सब यहीं पढ़ने आए। वे सब हमारे साथ ही रहे, यदि मैं कुछ काम करती तो उनका ख्याल, तुम लोगों का ख्याल कैसे रख पाती। पैसे तो तुम्हारे पिता, हम सबके लिए कमा ही लेते हैं बस इसलिए घर के बाहर जाना ठीक नहीं समझा।'
मैंने उन्हें हमेशा सफेद रंग की साड़ी पहने हुए देखा। उनके सफेद रंग की साड़ी पहनने के कारण, गोवा में चर्च के अन्दर, क्रॉस के ऊपर सफेद कपड़े को देख कर, उनकी याद आ गयी।
मैंने मां को कभी सिंदूर लगाये नहीं देखा। एक बार हम ट्रेन में सफर कर रहे थे। एक महिला ने मां से पूछा कि क्या वे विधवा हैं? मां मुस्करायीं और हमारी ओर इशारा कर बोली,
'इनके पिता को सफेद रंग पसन्द है, बस इसलिये, मैंने इसे अपना लिया। शादी के बाद, जब भी सिंदूर लगाया तो सर में दर्द हो गया - शायद कुछ मिलावट हो। इनके पिता ने सिंदूर लगाने के लिए मना कर दिया। बस इसलिये सिंदूर नहीं लगाती।'उस महिला ने मां से माफी मांगी पर ट्रेन पर हमारी उनसे अच्छी मित्रता हो गयी। मुझे भी, होली के रंगों से, एलर्जी हो जाती है। शायद, यह मैंने उन्हीं से पाया है।
बहन और मां के बीच में फिल्में देखने का एक अजीब रिश्ता था। वे दोनों हर हिन्दी फिल्म पहले दिन, पहले शो पर देखा करती थीं और पिता के घर वापस पहुँचने के पहले वापस। मैं समझता हूं कि मेरी बहन ने, स्कूल और विश्वविद्यालय से पीरियड कट कर, जितनी फिल्में देखी हैं वह किसी और लड़की ने नहीं देखी होंगीं। जब मेरी बहन ने पढ़ाना शुरू किया तब उसका स्कूल शनिवार को आधे दिन का होता था। तब वे दोनों पहले दिन को छोड़कर शनिवार को पहला शो देखने लगी।
हमें हिन्दी फिल्में देखने की अनुमति नहीं थी। मां को लगता था कि इसका असर अच्छा नहीं होगा। हम केवल अंग्रेजी फिल्में पिक्चर या फिर बच्चों का कोई खास शो ही देख सकते थे। बहन की शादी, मेरे विश्विद्यालय के जीवन के अन्तिम चरण पर हुई। उसके बाद, मेरी मां को हिन्दी फिल्में देखने के लिए साथी मिलना बन्द हो गया तब मैंने उनके साथ हिन्दी फिल्में देखना शुरू किया। कुछ दिनों के बाद मेरे दोस्त भी हमारे गुट में शामिल हो गये। टिकट का पैसा और कोका-कोला के पैसे तो मेरी मां ही देती थी :-) शादी के बाद, शुभा के साथ अनलिखी शर्त थी,
'हिन्दी पिक्चर में, मेरी मां भी साथ चलेंगी।'वे जब तक जीवित रहीं, ऎसा ही रहा।
मां की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे छोटी-छोटी बातों से जीवन को भरपूर जीना जानती थीं, दशहरे की झांकी हो या कोई मेला हो, वह हमेशा उसमें जाने में उत्साहित रहती थीं और हम लोगों को भी वहाँ ले जाती थीं। वहाँ पर चाट खाना, कचौड़ी खाना उनको प्रिय था और हमें भी। मुझे यह अब भी बहुत प्रिय है पर शुभा को नहीं। बस जब वह नहीं होती है तब ही इसका आनन्द उठाता हूं।
मेरी मां एक गरीब परिवार से थीं और वह कहती थीं कि उनके घर एक बार ही खाना बनता था। वे हर का, खास तौर से गरीब रिश्तेदारों का ख्याल ज्यादा ही रखती थीं। उनका कहना था कि जो जीवन में बहुत नहीं कर पाया उसका बहुत ख्याल रखना चाहिए क्योंकि वह शायद हिचक के कारण कुछ न कह पाये।
मैंने मां को पिता से कभी बात करते नहीं देखा पर उनके कुछ न कहने पर वह मेरे पिता के मन की हर इच्छा जान जाती थीं। वे पिता की हर बात नहीं मानती थीं कई बार वे हमारा साथ देती थीं पर जिसे वे मानती थी वह उनके न बताये भी जान जाती थीं जैसे कि वे उनका मन पढ़ लेती हों। मैं अक्सर सोचता हूं कि शुभा, क्यों मेरे मन की बात नहीं समझ पाती है? वह कहती है कि,
'तुम्हारे मन में जो है वह मुझे बताते क्यों नहीं।'लगता है कि मेरी मां किसी और मिट्टी की बनीं थीं। वह मेरे पिता के बिना बोले ही, उनका मन जान जाती थीं।
अगली बार - कुछ मित्रता के बारे में।
भूमिका।। Our sweetest songs are those that tell of saddest thought।। कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छिन।। Love means not ever having to say you're sorry ।। अम्मां - बचपन की यादों में।। रोमन हॉलीडे - पत्रकारिता।। यहां सेक्स पर बात करना वर्जित है।। जो करना है वह अपने बल बूते पर करो।। करो वही, जिस पर विश्वास हो।। अम्मां - अन्तिम समय पर।। अनएन्डिंग लव।। प्रेम तो है बस विश्वास, इसे बांध कर रिशतों की दुहाई न दो।। निष्कर्षः प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।। जीना इसी का नाम है।।
बेहद सुंदर, आपने अम्मां की तस्वीर खींच कर रख दी. मन श्रद्धा से भर गया. बहुत अच्छा लगा. सच्चे और सहज लेखन का अपना जादू होता है, और लिखिए...अपनी अम्मा याद आ गई...उन पर लिखूँगा, जल्द ही....
ReplyDeleteसाधुवाद
सजीव रेखाचित्र.. बिना रुके एक साँस में सब पढ़ गया.. माताजी सामने खड़ी हो गईं..और दिल भर आया.. अनामदास का आग्रह सही है.. उनके बारे में और लिखिये..
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढने के बाद बहुत देर तक सोचता रहा मांओं के बारे में . बहुत सधे और उत्फ़ुल्ल कदमों से आपकी पोस्ट से बाहर आती आपकी मां के बारे में . अपनी मां के बारे में , जिसकी कहानी बुंदेलखंड के एक किसान की बेटी से गंगा-यमुना के अंतर्वेदी इलाके के एक प्रगतिशील संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी बहू के रूप में अपने को बहुत गरिमामय रूप में स्थापित करने की गौरवगाथा है .
ReplyDeleteसोचता रहा गोर्की के सुप्रसिद्ध उपन्यास 'मां' की उस मां के बारे में जो अपने बेटे की सच्चाई के पक्ष में पूरी हिम्मत से खड़ी है , रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास 'गोरा' में गोरा की विशालहृदया ममतामयी मां के बारे में , उषा गांगुली के नाटक 'हिम्मतमाई' के बारे में . याद आया कुंअर बेचैन का वह गीत जो 'मां' की अद्भुत अभ्यर्थना है, और याद आई विष्णु नागर की कविता 'मां सब कुछ कर सकती है' जो अभी पिछले माह ही मैंने अपने ब्लॉग पर डाली थी .
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट . पर आसपास का कुछ भूगोल और होना चाहिए था . खाली इतिहास से पूरा चरित्र नहीं बनता . व्यक्ति को गढने में एक हद तक भूगोल - उसका 'लोकेल'- भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है .
मां पर कुछ लिखने के लिए मेरा मन भी व्यग्र है . और इसका श्रेय आपको जाता है .
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने जो पिक्चर देखने का जिक्र किया है ठीक वैसे ही हम बहने भी माँ के साथ पिक्चर देखने जाती थी , बहुत पिक्चर देखी है। और हमारा पिक्चर देखने का शौक़ माँ की बदौलत ही आज तक बरकरार है
ReplyDeleteआपकी मां से मिलकर बहुत बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा!
ReplyDeleteमुझे अच्छा लग रहा है कि मैने ’रिश्ते’ वाली पोस्ट लिखी..
कभी अपनी बहन से भी मिलवाइयेगा..
कितना सुंदर चित्र खींचा है आपने माँ का।
ReplyDelete'ये लोग अपने स्कूल पर गर्व करते हैं पर तुम्हारा स्कूल तुम पर।'
कितनी अच्छी बात कही माँ ने।
बहुत बहुत अच्हा लिखा आपने, माँ की याद दिला दी आपने, आपका बहुत बहुत धन्यवाद इसके लिए
ReplyDeleteये मांए सारी एक सी क्यों होती है ?
ReplyDeleteहाँ उन्मुक्त जी, मुझे लगता है कि शायद हर पुरुष के मन में होता कि उसकी पत्नी उसकी बात को बिना कहे ही समझ जाये. शायद अधिकतर पुरुषों को अपने मन की भावनाओं के बारे में बताने में संकोच होता है, जबकि औरतें इस तरह की बातें आसानी से कह देती हैं!
ReplyDeleteunmukt ji...aapki maa ke bare me padha...sach poochhiye to har kisi ko apni maa se jo lagav aur pyar hota hai use vyakt nahi kiya ja sakta,,,main apni maa ka bahut kareeb rahi hoon.....aur unke jane ke baad ye najdiki aur badh gai hai....
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