इस चिट्ठी में चर्चा है कि, हिन्दुओं में विकासवाद का क्यों नहीं विरोध हुआ, और क्या भगवान विष्णु का वामन अवतार होमो फ्लॉरेसिएन्सिस (जिसके अस्थि पंजर इंडोनीशिया में मिले हैं) से प्रेरित है।
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देखें।पाश्चात्य देशों में, डार्विन के विकासवाद का विरोध हुआ। अमेरिका में यह अब भी जारी है। हिन्दुओं में यह विरोध नहीं हुआ। ऐसा क्यों है?
मुझे लगता है कि हिन्दूओं में सृष्टि रचना के बारे में कई विचारधारायें हैं। इनके बारे में, मैंने अपनी चिट्ठियों में लिखा है। इन कहानियों में, एक में तो सृजनवाद है पर किसी और में नहीं - शायद यही कारण हो कि हिन्दुओं में डार्विन के विकासवाद का विरोध नही हुआ। इस बारे में जब मैंने विस्तार से जानना चाहा तो कुछ यह पता चला।
पतञ्जलि योग पीठ में, ऋषि पतञ्जलि की प्रतिमा चित्र विकिपीडिया से |
मेरे पिता के अनुसार, पतञ्जलि का योग दर्शन कुछ और नहीं पर डार्विन का विकासवाद है। विकिपीडिया में कुछ भी कुछ इस तरह के भी विचार हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने, पतञ्जलि के योगसूत्र पर लिखते हुऐ कहा है कि अद्वैत वेदान्त का विकासवाद, डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त के अनुरूप है। भारतीय दर्शन या पतञ्जलि का योग दर्शन मैंने नहीं पढ़ा है। इसे पढ़ने का प्रयत्न किया। लेकिन मुझे यह मुश्किल लगा। मुझे अच्छा लगेगा यदि दीपक भारतीय जी, या कोई अन्य चिट्टाकार बन्धु इसकी आसान शब्दों में व्याख्या कर, लिखे।
एक अन्य विचारधारा के अनुसार, सृजनवाद पढ़ाना और डार्विन का विरोध - ईसायित से जुड़ गया है। इसका विरोध ईसायित का समर्थन समझा जाने लगा। इसलिये और धर्मों में, डार्विन के विकासवाद का विरोध नहीं के बराबर हुआ।
अरविन्द मिश्र जी ने मेरा ध्यान, जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (The Discovery of India published by Oxford University Press) पर दिलाया। इसके पेज ११६ पर नेहरू जी लिखते हैं,
'Nevertheless the Old Indians, unlike the other ancient nations, had vast conceptions of time and space. They thought in a big way. Even their mythology deals with ages of hundreds of millions of years. To them the vast periods of modern geology or the astronomical distances of the stars would not have come as surprise. Because of this background, Darwin's and other similar theories could not create in India the turmoil and inner conflict which they produced in Europe. The popular mind in Europe was used to a time scale which did not go beyond a few thousand years.'इस श्रंखला की तीन चिट्ठियां हिन्दूओं में सृष्टि रचना के बारे में यहां, यहां, और यहां लिखी हैं। इन चिट्ठियों और इस चिट्ठी पर अशोक पाण्डेय जी, दीपक भारतीय जी, ने इस तरफ इशारा किया है।
प्राचीन भारतीय, अन्य देशों की तरह से नहीं थे। उन्हें दूरी एवं यगान्तर का ज्ञान था। वे बड़ी तरह से सोचते थे। हमारे पुराण खरबों साल की बात करते हैं। हमें भूगर्भशास्त्र में लम्बे समय के कालचक्र या तारों की दूरी से, कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यही कारण है कि डार्विन के या इस तरह के अन्य सिद्धान्त ने उस तरह की मुश्किल नहीं खड़ी की, जैसा युरोप में हुआ। युरोप के लोगों के दिमाग में, इतने बड़े समय का विचार ही नहीं था। वे केवल कुछ हज़ार साल के बारे में सोचते थे।
कुछ समय पहले यात्रा करते समय एक ज्ञानी जन से मुलाकात हुई। उनसे इस विषय पर चर्चा होने लगी। उन्होंने बताया कि पुराणों में भगवान के २४ अवतारों का वर्णन है। इसमें भगवान विष्णु के १० अवतार मुख्य हैं यह दस कुछ इस तरह से हैं
- मत्स्य (मछली) पानी में रहने वाले जीव;
- कच्छप kchchhp (कछुआ) उभयचर जन्तुओं की उत्पत्ति;
- वाराह Varaah (सुअर) – जमीन के जानवरों की उत्पत्ति;
- नृसिंह Narasingh – आधे मानव;
- वामन – बौने मानव;
- परशुराम – पूर्ण विकसित मानव;
- राम Rama – मानव, शस्त्रों के साथ;
- कृष्ण – मानव, संगीत के साथ;
- गौतम बुद्ध Budhha – शांति और करुणा का प्रतीक;
- कल्कि Kalki – शायद यह ८४ हज़ार साल बाद आना है। इसी के साथ कलियुग की समाप्ति है और एक चक्र पूरा होगा।
इन दस अवतारों में तीसरे के बारे में कछ बहस है। कुछ का कहना है कि वाराह अवतार तीसरा न होकर पहला है। जो इसे पहला अवतार कहते हैं वे इसे पृथ्वी की रचना से जोड़ते हैं न कि जमीन के जानवरों की उत्पत्ति से।
कुछ दिन पहले, मैंने साइंटिफिक अमेरिकन के नवंबर २००९ के अंक में 'Rethinking "Hobbits": What They Mean for Human Evolution' नामक एक लेख पढ़ा।
'उन्मुक्त जी, क्या इस लेख का संबन्ध, भगवान विष्णु के १० अवतारों से है?'शायद, मेरे भाई, मेरी बहना इतनी जल्दी में क्यों रहते हैं। कुछ तो इंतज़ार करिये।
सन २००४ में, इंडोनीशिया के लॅसर सुन्दा द्वीप समूह के फलॉरस् द्वीप की, लिएंग बुआ गुफा में कुछ अस्थि पंजर मिले थे। साइंटिफिक अमेरिकन का उक्त लेख, उन्हीं के बारे में था। इस अस्थिपंजर को, इस गुफा के नाम पर, एलबी१ (LB1) का नाम दिया गया। यह अस्थिपंजर, हजारों साल पहले के लुप्त मानव के हैं। चूंकि यह फलॉरस् द्वीप पर मिलें हैं। इसलिये इनका वैज्ञानिक नाम होमो फ्लॉरेसिएन्सिस रखा गया। लेकिन इनका लोकप्रिय नाम, यह नहीं है। इन्हें जेआरआर टोकियन के लोकप्रिय उपन्यासों के मानव, हॉबिट के नाम से जाना जाता है। क्या आपको मालुम है कि ऐसा क्यों है?
होमो फ्लॉरेसिएन्सिस एवं मानव कपाल - चित्र पीटर बॉउन/ न्यू इंगलैंड विश्विदयालय के सौजन्य से
टोकियन ने, हॉबिटों के बारे में चर्चा, सबसे पहले बच्चों के लिये लिखे उपन्यास 'द हॉबिट' में की थी। इसके बाद इनकी चर्चा, लॉर्ड ऑफ रिंगस् की तीन पुस्तकों (Triolgy) में की। यह ऐसी सभ्यता है, जिसमें बौने (तीन से चार फीट के बीच) रहा करते हैं। इन बौनो को, उन्होंने हॉबिट (Hobbit) कहा। इंडोनीशिया में मिले होमो फ्लॉरेसिएन्सिस के अस्थिपंजर यह बताते हैं कि यह भी बौने थे और उनकी लम्बाई तीन से चार फीट के बीच थी। इसलिये इनका लोकप्रिय नाम हॉबिट है। क्या यह आपको किसी और की याद दिलाते हैं?
भगवान विष्णु, वामनअवतार में राजा बालि से तीन कदम जमीन मांगते हुऐ चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से
क्या आपको इनका संबन्ध हिन्दू धर्म से लगता है? क्या भगवान विष्णु का चौथा अवतार होमो फ्लॉरेसिएन्सिस से प्रेरित था? क्या भगवान के विष्णु के अवतार, डार्विन के विकासवाद को नहीं बताते हैं? मैं कह नहीं सकता, कुछ उलझन में फंस गया हूं।
चलते चलते, एक दिन मित्र मंडली के साथ डार्विन पर चर्चा हो रही थी। मेरे शायर दोस्त ने, अकबर इलाहाबादी का यह शेर सुनाया,
हज़रते डार्विन, हकीकत से बहुत दूर थे।यह श्रंखला तो पहले समाप्त हो गयी थी यह तो केवल पुनः लेख था। कोशिश करता हूं कि किसी नयी श्रृंखला के साथ मुलाकात करूं। लेकिन समय आभाव के कारण कुछ मुश्किल लग रहा है।
हम न मानेंगे, हमारे मूरिसान [पूर्वज] लंगूर थे।
क्या आपने कभी विकासवाद क्यों सही है और सृजनवाद गलत इस बात को रैप नृत्य के साथ देखा है। नहीं न तो यहां इसका मजा लें।
डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े
इस चिट्ठी का पहला एवं आखरी चित्र - विकीपीडिया के सौजन्य से
सांकेतिक चिन्ह
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जो मानते हैँ, उनके होंगे क्योंकि इसके कोई भी प्रमाण नहीं है । डार्बिन को महिमा मण्डित करने के लिये कोई उसे माने तो बन्दरों को पूर्वज भी माने ।
ReplyDeleteडार्विन का विकासवाद सही है। निश्चित रूप से इस विचार के संकेत हमें भारतीय पौराणिक साहित्य में मिलते हैं। लेकिन जैसे साक्ष्य प्रस्तुत कर डार्विन ने इसे सिद्ध कर के प्रस्तुत करने का प्रयास किया वह अद्वितीय है। इस के बाद मोर्गन ने जो मानव परिवार के विकास का अध्ययन प्रस्तुत किया है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। उस के बारे में आप अपनी शैली में लिखेंगे तो अच्छा लगेगा।
ReplyDeleteरोचक पोस्ट!
ReplyDeleteरोचक पोस्ट!
ReplyDeleteरोचक तो है ! ये ग्राफिक्स शायद आपने देखा हो: http://pewresearch.org/assets/publications/1105-1.png
ReplyDeleteओह मैं इस रोचक पोस्ट को मिस कर दिया था -यहाँ के लोग सचमुच पोंगे हैं -ताल ठोक के कहना चाहिए की हाबिट दरअसल वामन अवतार ही वतो था/है !अपने मुझे इस आलेख में भी याद किया ,यह आपका बडप्पन है !
ReplyDeleteअवतार वाद की अवधारना वेदों/उपनिषदों के दर्शन में नही है .वह मुख्यतः पुराणों की देन है. पुराण, वैदिक काल के काफ़ी बाद के ग्रन्थ हैं . भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते ह.अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म, और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं. कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है.इनमें हिन्दू देवी-देवताओं का और पौराणिक मिथकों का बहुत अच्छा वर्णन है.
ReplyDeleteकर्मकांड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है. विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ.
जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है. साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रन्थों का मूल विषय है/ इसी कारन इनमे एक एक कर (तात्कालिक अनुमान के आधार पर ) अवतारों का गुणगान किया है ..अग्नि पुराण में अग्निदेव ने ईशान कल्प का वर्णन महर्षि वशिष्ठ से किया है. इसमे पन्द्रह हजार श्लोक है, इसके अन्दर पहले पुराण विषय के प्रश्न है फ़िर अवतारों की कथा कही गयी है.पतंजलि के जिस योग दर्शन की बात आप कर रहे हैं वह वस्तुतः व्यायाम शास्त्र से अधिक कुछ नही है.