Friday, May 29, 2009

क्या कहा, महिलायें वोट नहीं दे सकती थीं

यह मेरी कोचीन-कुमाराकॉम-त्रिवेन्दम यात्रा की पहली कड़ी है।

मुझे त्रिवेन्द्रम में होली के आस-पास कुछ काम था। मुझे लगा कि यह बहुत अच्छा मौका है कि जब हम होली में उत्तर भारत से दूर रह सकते हैं और केरल घूम सकते है। इसीलिए हम लोगों ने ऎसा प्रोग्राम बनाया कि मैं त्रिवेन्द्रम में अपना काम कर सकूं और हम केरल भी घूम सकें।

हम लोग दिल्ली से, हवाई जहाज के द्वारा कोचीन के लिए चले। शाम का समय था। दाहिने तरफ की खिड़की से, पश्चिम दिशा में, डूबता हुआ सूरज दिखाई पड़ रहा था और क्षितिज पर लाल सी पंक्ति दिखाई पड़ रही थी ऎसा लगता था कि क्षितिज में चारो तरफ आग लगी हुई है।

उस समय आकाश में केवल एक ही तारा चमक रहा था और बहुत देर बाद अस्त हुआ। मेरे विचार मे वह शुक्र (venus) ग्रह था। वह तारा हमको अपने कस्बे में काफी नीचे दिखाई पड़ता है पर यहां ऊंचाई पर था। शायद, यह इसलिए था कि हम हवाई जहाज में बहुत ऊपर थे।

हम लोग हवाई जहाज पर दिल्ली से कोचीन गये। रास्ते में, एक महिला ने इस बात की घोषणा की। उसने जानकारी दी कि,

  • आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस है।
  • यह दिन, किस प्रकार से लोगों को महिलाओं का सम्मान व आदर करने की याद दिलाता है।
  • वे चाहते हैं कि महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाय।
कुछ समय बाद मेरी मुलाकात एक परिचायिका से हुई। मैंने पूछा क्या उसने महिला दिवस के बारे में घोषणा की है। उसने कहा,
'यह घोषणा मैंने नहीं पर हवाई जहाज की महिला चालक ने की थी। उसने भी, यह अपने मन से नहीं कहा था पर उसे कम्पनी के तरफ से जो सामग्री दी गयी थी उसे केवल पढ़ा था।'
मैंने कहा कि लेकिन जो पढ़ा था क्या उसमें यह क्यों नहीं बताया गया था कि महिला दिवस क्यों शुरू हुआ क्योंकि और यह रोचक है। परिचायिका ने कहा,
'यदि आपको इसके बारे में मालुम है तो बतायें।'

यूरोप के बहुत सारे देशों में, महिलाओं को वोट देने का अधिकार बीसवीं शताब्दी में, द्वितीय विश्वयुद्व के बाद ही मिला।
मैंने उसे बताया, कि महिला दिवस, बीसवीं शताब्दी के शुरू में, महिलाओं को वोट का अधिकार दिलवाने के लिये शुरू किया गया था। परिचायिका को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उसने पूछा,
'क्या कभी ऎसा भी था जब महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था?'
मैंने उसे बताया कि बीसवीं शताब्दी में अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था और यूरोप के बहुत सारे देशों में तो यह बीसवीं शताब्दी में, द्वितीय विश्वयुद्व के बाद ही मिला। इंगलैंड में भी उन्नीसवी शताब्दी में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। उन्हे भी यह अधिकार बीसवीं शताब्दी में, १९१८ में मिला।

६ मई १९१२ को न्यू यॉर्क में वोट के अधिकार के लिये जलूस निकालती महिलायें - चित्र विकिपीडिया से।

मैंने उसे यह भी बताया कि दुनिया में पहले महिलाओं को व्यक्ति नहीं माना गया (विस्तार से यहां और यहां पढ़ें)। सबसे पहले महिलाओं को व्यक्ति इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना उन्होंने यह कॉर्निया सौरबजी नामक महिला को ९ अगस्त १९२१ में वकील के रूप में पंजीकृत कर किया। यह कार्य, हाऊस आफ लार्ड ने १९२८ में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के लगभग सात साल बाद, किया।

हम लोग साढ़े आठ बजे तक कोचीन पहुंचे। हम लोगो को रात कोचीन में ही बितानी थी और अगले दिन कुमराकॉम जाना था।



हम लोगों ने घूमने का पैकेज 'इन्टर साइट टूरस् एवं ट्रैवल्स्' कम्पनी से लिया था। उनकी तरफ से हवाई अड्डे पर हमें प्रवीन लेने आये थे। इस ट्रवैल कम्पनी और प्रवीन के बारे में अगली बार।

कोचीन-कुमाराकॉम-त्रिवेन्दम यात्रा

क्या कहा, महिलायें वोट नहीं दे सकती थीं।।

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yeh post meri Cochin-Kumarakom-Trivandum yatra kee pahlee karee hai. is per delhi se cochin tak havai yatra kee charcha hai. yeh hindi (devnaagree) mein hai. ise aap roman ya kisee aur bhaarateey lipi me padh sakate hain. isake liye daahine taraf, oopar ke widget ko dekhen.

This is first post of my Cochin-Kumarakom-Trivandum visit. It talks about air journey from Delhi to Cochin. It is in Hindi (Devanagari script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.

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Saturday, May 23, 2009

डार्विन का विश्वास, बाईबिल से, क्यों डगमगाया

समुद्र यात्रा के बाद, डार्विन का बाईबिल से विश्वास डगमगाने लगा। यह क्यों हुआ, इसी चर्चा इस चिट्ठी में है।
इसे तथा इसके पहले का भाग आप सुन भी सकते है। सुनने के लिये यहां चटका लगायें। यह ऑडियो फाइल ogg फॉरमैट में है। इस फॉरमैट की फाईलों को आप,
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एचएमएस बीगल, पानी के जहाज ने, तीन समुद्री यात्राएं कीं। इसकी पहली यात्रा में, प्रिंगल स्टोकस् (Pringle Stokes) इसके कप्तान थे। शायद अच्छा साथ न होने के कारण, वे अकेलपन और उदासी के शिकार हो गये। उन्होंने खुदकुशी कर ली। तब रॉबर्ट फिट्ज़रॉय (Robert FitzRoy) को उसका कप्तान बनाया गया था।

१८९० में डार्विन का बनाया गया चित्र

बीगल की दूसरी यात्रा में रॉबर्ट ही इसके कप्तान थे। वे जगहों को समझने और सर्वे करने के लिये, किसी पदार्थविज्ञानी (Naturalist) को अपने साथ ले जाना चाहते थे। पहले कप्तान की अकेलेपन और उदासी के कारण मृत्यु ने भी, उन्हें किसी को साथ ले जाने की बात को बल दिया। इसलिये दूसरी यात्रा में डार्विन को, जाने का मौका मिला।

यह समुद्र यात्रा २७ दिसम्बर १८३१ को शुरू हुई। इसे दो साल में समाप्त होना था पर इसे लगभग पांच साल लगे। यह २ अक्टूबर १८३६ में समाप्त हुई।


इस यात्रा के दौरान, डार्विन गैलापगॉस द्वीप समूह (Galápagos Islands) पर भी गये। यह द्वीप समूह प्रशान्त महासागर में इक्वेडर (Ecuador) से लगभग १००० (९७२) किलो-मीटर पश्चिम पर है। यहाँ पर पाये जाने वाले पक्षी और जानवर दक्षिण अमेरिका में पाये जाने वाले पक्षी और जानवरों से कुछ भिन्न थे पर उनमें महत्वपूर्ण समानता भी थी।
डार्विन ने गैलापगॉस द्वीप समूह पर, १३ तरह की चिड़ियों को एकत्र किया था। उनके अध्ययन से पता चला कि वे सब फिंचेस् (Finches) (छोटी गाने वाली चिड़ियां) हैं पर उनकी चोंच अलग-अलग तरह की थी।



डार्विन सोचने लगे कि फिंचेस् की चोंच क्यों अलग हो गयी, इसका क्या कारण था? क्या इन फिंचेस् के पूर्वज एक ही थे और समय बीतने के साथ, नये वातावरण में, खाना प्राप्त करने की सुविधानुसार ढ़ालने के कारण, उनकी चोंच ने अलग-अलग रूप ले लिया?


डार्विन को लगा कि यदि, फिंचेस् में बदलाव आ सकता है तो यह सारे जैविक जीवन में, प्राणी जगत में क्यों नहीं हो सकता है। क्या सारी जातियों, उपजातियों का विकास (Species) एक ही पूर्वज (common ancestor) से हुआ है? क्या जातियों, उपजातियों में बदलाव प्रकृति के सांयोगिक उत्परिवर्तन (chance mutation) के कारण हुआ, जिसमें प्राकृतिक वरण (natural selection) का महत्वपूर्ण योगदान रहा, और वही जीवित रहा जो उत्तरजीविता के लिए योग्यतम (survival of fittest) था?


१८३८ में, डार्विन ने, थॉमस मालथुस (Thomas Malthus) की लिखी पुस्तक 'ऎसे ऑन द प्रिन्सिपल आफ पॉप्युलेशन' (Essay on the principle of Population) पढ़ी। इस पुस्तक ने इस सिद्घान्त को पक्का किया। समुद्र यात्रा के दौरान इकट्ठा किये पक्षी और जानवरों के नमूने भी इसी सिद्वान्त की तरफ इंगित करते थे। लेकिन, इस सिद्वान्त के बाइबिल में दिये प्राणियों की उत्पत्ति (Book of Genesis) के विरूद्व होने के कारण, डार्विन इसे प्रतिपादित करने में चुप रहे पर बाइबिल और भगवान के बारे में उनकी सोच बदल गयी। उनका इन पर से विश्वास उठने लगा। उन्होंने, बाद में, चर्च जाना भी बन्द कर दिया।


१८३९ में, डार्विन ने समुद्र यात्रा के संस्मरण 'द वॉयज ऑफ बीगल' (The voyage of Beagle) नाम से लिखी। इस पुस्तक ने उसे प्रसिद्घि दिलवायी। फिर भी, डार्विन प्राणियों की उत्पत्ति के सिद्घान्त को प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। इसका एक कारण यह भी था कि उसकी पत्नी कट्टर इसाई थीं, वह उसे दुखी नहीं करना चाहते थे। किन्तु एक १८ जून १८५८ में मिले एक पत्र ने, सब कुछ बदल दिया।


किसने लिखा था १८ जून का वह पत्र, किसका था वह पत्र, क्या लिखा था उसमें? इसे जानने से पहले, हम बात करेंगे मज़हबों के बारे में। क्या कहते हैं यह, प्राणियों की उत्पत्ति के बारे में।

साइंटिफिक अमेरिकन विज्ञान की बारे में बेहतरीन पत्रिका है। यह अब भारत से भी प्रकाशित होती है। डार्विन के बारे में इसने एक खास अंक निकाला है। इसमें लिखे लेख आप यहां पढ़ सकते हैं।

डार्विन के पैदा होने के २०० साल पूरे पर, इस साइंटिफिक अमेरिकन में निकले खास लेख आप यहां पढ़ सकते हैं।

इसका इस चिट्ठी में डार्विन का चित्र विकिपीडिया से है तथा फिंचेस् का चित्र इस विडियो से है।

डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े
भूमिका।। डार्विन की समुद्र यात्रा।। डार्विन का विश्वास, बाईबिल से, क्यों डगमगाया।।


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Darwin lost his faith in Bible after sea voyage. This post talks about the reason of the same. It is in Hindi (Devanagari script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.



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Wednesday, May 20, 2009

मैं, प्रिटोरिआ से ज्यादा, बम्बई की सड़को पर सुरक्षित महसूस करती हूं

साउथ अफ्रीका की यात्रा विवरण श्रंखला की इस कड़ी में, प्रिटोरिआ में घूमने की जगहों की चर्चा है।

प्रिटोरिया में यदि आप किसी से पूछें कि यहां घूमने की क्या जगह है तो वे बतातें हैं कि यहां पर यूनियन बिल्डिंग देखने के अतिरिक्त कोई भी घूमने की जगह नहीं है। 
  
प्रिटोरिआ में उच्च न्यायालय

हम लोग यूनियन बिल्डिंग देखने जाने से पहले, वहाँ पर उच्च न्यायालय को देखने गये। वहां उस कक्ष को भी देखा, जिसमें नेलसन मण्डेला को सजा दी गयी थी। वहां के लोगों के मुताबिक महात्मा गांधी इसी हाई कोर्ट के द्वारा अर्टानी बनाये गये थे और वह यहां अक्सर आकर मुकदमों की बहस करते थे।

उच्च न्यायालय को देखने के बाद हम लोग वहां के यूनियन बिल्डिंग  देखने के लिए गये।  यहां पर साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति रहते हैं। यह  बहुत सुन्दर है।  

यूनियन बिल्डिंग के सामने से  एक सड़क जाती है उसके सामने एक बहुत बड़ी जगह है जिसमें बगीचा है। यह भी बहुत सुन्दर है।
  
यूनियन बिल्डिंग

अपने देश मे राष्ट्रपति भवन में जो बगीचा है उसे आप हर समय  नहीं देख सकतें हैं। वह कुछ समय के लिए ही सबके लिए खुलता है । यह भी कुछ देश के राष्ट्रपति के बगीचे की तरह जगह है लेकिन यह पूरी खुली जगह है। वहां पर घूमते हुए, हमारी मुलाकात एक भारतीय दम्पत्ति से हुई। मैंने उससे  पूछा की शाम  को  हम वहाँ क्या कर सकते हैं। उन्होंने कहा, 
'यहां पर शायद  शाम में कुछ नहीं हो सकता है। आप एक फ्रीडम पार्क देख सकते हैं लेकिन  उसके लिए वहाँ  दिन में ही जाया जा सकता हैं।'
 कुछ देर बातचीत करने के बाद हमने उनसे पूछा कि क्या आप गुजराती हैं।  महिला ने बताया, 
'भारत से दो तरह के लोग आये। एक तो मजदूर के रूप में। ये लोग मुख्यत: बिहार और उत्तर भारत के थे। दूसरे लोग गुजरात से आये जो छोटा मोटा व्यापार करने के लिए वहां पहुंचे थे। मेरे  बाबा उत्तर प्रदेश  के थे और दादी बिहार की थीं। वे लोग मजदूर  के रूप में आये थे।'
मैंने उनसे ऎसे ही पूछा कि यहां पर बहुत सफाई है। यहां पर टैक्सी और कारें कानून का पालन करते है। मालूम नहीं क्यों लोग कहते है कि यहां पर कानून की व्यवस्था खराब है। उस महिला ने जवाब दिया। 
'मैं जब बम्बई की सड़क पर घूमती हूं तो मैं अपने को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हूं । मेरी तीसरी पीढ़ी है उसके बावजूद भी साउथ अफ्रीका की सड़क पर अपने आपको बिल्कुल सुरक्षित नहीं महसूस  करती हूं।' 
हम लोग वापस अपने होटल आ गये। हमें अगले दिन भारत के लिए वापस चलना था।

यूनियन बिल्डिंग के सामने का बगीचा

अगले दिन सुबह, हम प्रिटोरिया से जॉहन्सबर्ग आये। वहीं साउथ अफ्रीकन एयरलाइन्स की उड़ान पकड़ कर, रात में मुम्बई पहुँचे। रात को वहीं विश्राम किया। अगले दिन अपने कस्बे आ गये।

मैं होली के दौरान केरल गया था। अगली यात्रा विवरण में चलेंगे - केरल।


अफ्रीकन सफारी: साउथ अफ्रीका की यात्रा
झाड़ क्या होता है? - अफ्रीकन सफारी पर।। साउथ अफ्रीकन एयर लाइन्स और उसकी परिचायिकायें।। मान लीजिये, बाहर निलते समह, मैं आपका कैश कार्ड छीन लूं।। साउथ अफ्रीका में अपराध - जनसंख्या अधिक और नौकरियां कम।। यह मेरी तरफ से आपको भेंट है।। क्रुगर पार्क की सफाई देख कर, अपने देश की व्हवस्था पर शर्म आती है।। हम दोनो व्यापार कर बहुत पैसा कमा सकते हैं।। फैंटम टार्ज़न ... यह कौन हैं?।। हिन्दुस्तानी, बिल्लियों से क्यों डरते हैं।। आपको तो शर्म नहीं आनी चाहिये।।। लगता है, आप मुझे जेल भिजवाना चाहती हैं।। ऐसा करोगे तो, मैं बात करना छोड़ दूंगी।। भगवान की दुनिया - तभी दिखायी देगी जब उसकी खिड़की साफ हो।। सर, पिछली रात, आपने जूस का पैसा नहीं दिया।। मैंने, आज तक, यहां हवा में कूदती हुई मछलियां नहीं देखी हैं।। आश्चर्य - सर्कस को चलाने वाले, इतने कम लोग।। अश्वेत लोग और गोरी मेम - वोट नहीं दे सकतीं।। मैं, प्रिटोरिआ से ज्यादा, बम्बई की सड़को पर सुरक्षित महसूस करती हूं।।

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Saturday, May 16, 2009

डार्विन की समुद्र यात्रा

'डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े' श्रंखला की इस कड़ी में, डार्विन के शुरुवाती जीवन के बारे में चर्चा है।
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चार्ल्स डारविन का जन्म, दो सौ साल पहले, १२ फरवरी, १८०९ को, श्रेस्बरी (Shrewsbury) में हुआ था। उनके पिता चिकित्सक थे। आठ साल की उम्र में उनकी मां का देहान्त हो गया। अगले छ: साल उन्होंने विभिन्न स्कूलों में पढ़ाई की, जहां वे एक औसत विद्यार्थी रहे।

सात साल के डार्विन

१६ साल की उम्र में उन्होंने चिकित्सा पढ़नी शुरू की पर यह उन्हें रास नहीं आयी। १८ साल की उम्र में, पिता के कहने पर, आध्यात्मविद्या (Theology) की शिक्षा लेकर पादरी बनने की सोची पर यह न हो सका। उन्हें प्राकृतिक इतिहास (Natural History) में रूचि थी। इसलिए उन्होंने, इसकी पढ़ाई, अपने वनस्पति विज्ञान (Botany) के प्रोफेसर, जान स्टीवेन्स् हेन्सलॉ (John Stevens Henslow) की देख-रेख में शुरू की।



२२ वर्ष की उम्र में, डार्विन के पास कोई भी पेशा नहीं था उसका भविष्य अंधकारमय था, उसके समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। तभी उन्हें अपने प्रोफेसर हेन्सलॉ के कारण, एक पत्र मिला,
'क्या आप एच.एम.एस बीगल नामक पानी की जहाज पर प्राकृतिक विशेषज्ञ के रुप में दुनिया की सैर करना चाहेंगे।'
डार्विन ने इसे स्वीकार कर लिया। इस समुद्र यात्रा न केवल उसके जीवन की पर दुनिया की ही दिशा बदल दी।


बीगल की तीसरी यात्रा के दौरान १८४१ के बनाया गया उसका चित्र

यह समुद्र यात्रा २७ दिसम्बर १८३१ को शुरू हुई। इसे दो साल में समाप्त होना था पर इसे लगभग पांच साल लगे। यह २ अक्टूबर १८३६ में समाप्त हुई।

समुद्र यात्रा के समय, डार्विन परम्परा वादी थे और अक्सर बाईबिल को उद्घरित करते थे लेकिन समुद्र यात्रा समाप्त होते- होते यह बदलने लगा। डार्विन का विश्वास, बाईबिल से उठने लगा। उसे लगा प्राणियों के उत्पत्ति के बारे में बाईबिल में लिखी कथा सच नहीं है। बाद के जीवन में उन्होंने चर्च भी जाना बन्द कर दिया।


डार्विन को इस बात की चिन्ता लगने लगी कि मज़हब का, किस तरह से प्रचार किया जाता है। उसे लगने लगा कि यह लोगों को तर्क या तथ्य से नहीं, पर बचपन से ही घुटी पिला कर किया जाता है। जिसके कारण वे अपने बाद के जीवन में उससे बाहर नहीं निकल पाते हैं।

डार्विन का बड़ा पुत्र विलियम, रग्बी स्कूल में पढ़ता था। यह स्कूल मज़हबी शिक्षा पर जोर देता था। डार्विन को लगा कि वहां जाकर उसका कौतूहल समाप्त हो रहा है, वह मंद हो रहा है - इसलिए उसने अपने बाकी चार पुत्रों को ग्रामर स्कूल में डाला। यह स्कूल कम जाने माने स्कूल थे पर वहां विज्ञान का वातावरण था।

बीगल के द्वारा की गयी समुद्र यात्रा का रास्ता

लेकिन, समुद्र यात्रा में ऎसा क्या हुआ कि वह इतना बदल गया? क्या मिला, जिसने उसकी और दुनिया की दिशा बदल दी। यह इस श्रंखला की अगली कड़ी में।


इस चिट्ठी के सारे चित्र विकिपीडिया से हैं।

डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े
भूमिका।। डार्विन की समुद्र यात्रा।। डार्विन का विश्वास, बाईबिल से, क्यों डगमगाया ।।


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This post talks about formative years in Darwin's life. It is in Hindi (Devanagari script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.

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Wednesday, May 13, 2009

अश्वेत लोग और गोरी मेम - वोट नहीं दे सकतीं

साउथ अफ्रीका की यात्रा विवरण श्रंखला की इस कड़ी में, जॉहेन्सबर्ग में घूमने की जगहों की चर्चा है।

साउथ अफ्रीका में हम लोग एक दिन प्रिटोरिआ से जॉहन्सबर्ग घूमने गये। वहां, सबसे महत्वपूर्ण देखने की जगह, रंगभेद सग्रंहालय (एपारथेड (Apartheid) म्यूज़ियम) है। यह सग्रंहालय बताता है कि साउथ अफ्रीका में किस तरह से भेदभाव होता था।

हम लोगों ने टिकट लिया जो कि तीस रैंड का था और साथ ही आडियो सहायता ली। आप जिस जगह पहुँचते है यह आडियो हेल्प अपने आप वहाँ पर लगे चित्रों के बारे में बताती थी। मुझे अच्छी सुविधा लगी इसके लिए हमें १५ रैंड देने पड़े थे। हलांकि हमारे अलावा कोई और लोग इस सुविधा का प्रयोग नहीं कर रहे थे। यह मुझे कुछ अजीब लगा।


हमारे साथ एक टैक्सी ड्राइवर भी था। उसने कहा,
'मैं यहां कई बार आया हूं पर मैंने इस संग्रहालय को नहीं देखा है।'
मैंने अपनी पत्नी के साथ उसका टिकट भी लिया। कुछ टिकटों में काला सफेद और कुछ में सफेद लिखा हुआ था। यह टिकट इस बात के लिए नहीं दिए गये कि हम लोग काले या सफेद थे। यह टिकट यह समझानें के लिए दिया गया था किस तरह से काले और सफेद में भेदभाव किया जाता था। हम लोग अलग अलग रास्ते से अन्दर घुसे।


सग्रंहालय में पहली अजीब बात यह लगी कि इसमे लिखा हुआ था कि पहले वहाँ पर अश्वेत लोग और गोरी महिलायें वोट देने की अधिकारिणी नहीं थी। मैंने 'आज की दुर्गा - महिला सशक्तिकरण' की कहानी लिखते समय, इसकी 'महिला दिवस' की कड़ी में बताया था कि इस दिवस की शुरुवात महिलाओं को वोट दिलवाने के लिये ही शुरू हुई थी। यहां प्रत्यक्ष सबूत मिल गया।




इस संग्रहालय में सबसे अजीब बात यह थी इसमें महात्मा गांधी का एक भी चित्र नहीं है। सच तो यह है कि इस भेदभाव के खिलाफ उन्होंने यहां पर सबसे पहले लड़ाई लड़ी थी। इस संग्रहालय में उन्हें वह सम्मान नहीं दिया गया जो उन्हें मिलना चाहिए। वहाँ पर शिकायत दर्ज करने की कॉपी थी। मैंने उस पर आपत्ति दर्ज की। यदि आप अब वहाँ कभी जायें और महात्मा गाँधी का चित्र देखें तो वह मेरे ही कारण होगा :-)

संग्रहालय के बगल में, पुरानी बन्द सोने के खान का प्रवेश द्वार - यहां यह देखा जा सकता है कि सोना कैसे निकाला जाता था।


इस संग्रहालय में अजीब तरह की भावनायें मन में आती हैं। मैं वहाँ न जाता तो शायद साउथ अफ्रीका की यात्रा अधूरी रहती।




जॉहन्सबर्ग में महात्मा गांधी की मूर्ति है। सग्रंहालय देखने के बाद हम वहाँ गये। हमारे टैक्सी ड्राइवर को यह जगह नहीं मालूम थी । हम लोगों ने जब उससे कहा कि हम यहां जाना चाहते है तो उसने आसपास के कुछ लोगों से पूछा उसके बाद में वह हमें वहां ले गया। उसने बताया ,
'मै वहां से अक्सर गुजरता हूं और मुझे नहीं मालूम था कि यह जगह महात्मा गांधी स्क्वैर के नाम से जाना जाता है।'

महात्मा गांधी स्क्वैर पर मूर्ति

वह हमें वहां एक जगह ले कर गया। वहां पर एक मूर्ति थी। उसने कहा कि यही जगह महात्मा गांधी स्क्वैर है। हमें वह मूर्ति महात्मा गांधी की मूर्ति नहीं लगी। मैंने कहा कि लगता है कि हम कुछ गलत जगह आयें है पर मूर्ति के नीचे पढ़ने पर पता चला कि यह महात्मा गांधी की ही मूर्ति है। यह मूर्ति उनके उस उम्र की है जब वे साउथ अफ्रीका में थे। यह उनके जवान समय की है। यही कारण है कि हम उसे नहीं पहचान पायें ।


गाड़ी से उतर कर हमनें टैक्सी ड्राइवर से कहा कि हमें १० मिनट के बाद आकर ले लेना क्योंकि वहां पर कोई रूकने की जगह नहीं थी। जिस समय हम उस मूर्ति का चित्र ले रहे थे तब पुलिस जैसा व्यक्ति हमारे पास आया। वह अपने को सिक्योरिटी का आदमी बता रहा था और उसी तरह के कपड़े पहने था। उसने कहा,
'आप चित्र नहीं ले सकते है और आपको इसके लिए अनुमति लेनी पड़ेगी।'
मैंने उससे कहा,
'दुनिया में ऎसा कहीं नहीं होता कि किसी सार्वजनिक मूर्ति का चित्र लेने के लिए किसी के अनुमति जरूरत हो।'
लेकिन वह नहीं माना। हम वहां उससे लड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि यह नया देश था और वहां पर झंझट पालना ठीक नहीं था। हमनें पूछा कि अनुमति कहां से मिलेगी तो उसने मुझे एक इमारत की तरफ इशारा करके बताया कि वहां मिलेगी।


हम लोग पैदल चलकर उस इमारत के पास गये। वहां पर पहरेदार ने हमसे इमारत के दूसरी तरफ से १३वीं मंजिल पर जाकर अनुमति लेने की बात बतायी। हम लोग इमारत के दूसरी तरफ गये। वहां लिफ्ट ग्यारहवें तल तक जाती थी। इसलिए ग्यारहवें तल तक लिफ्ट से, उसके बाद सीढी चढ़ कर गये।

ऊपर एक बहुत अच्छा सा ऑफिस था। यहाँ पर स्वागत कक्ष मे बैठी महिला से वहाँ जाने के कारण बताया। उसने किसी अन्य महिला से बात करने को कहा। यह काफी सभ्रांत महिला लग रही थी जो अपने चालीस के दशक में होगी। हमने बताया, हम लोग भारत से आयें है, हम महात्मा गाँधी की मूर्ति की फोटो लेना चाहते हैं, कोई व्यक्ति ऎसा करने से मना कर रहा हैं,
'आपसे इसकी लिए अनुमति लेने की बात की है।'

उस महिला ने कहा कि यह सच है कि आपको इसके लिए अनुमति लेनी पड़ेगी। उसने ऑफिस में बात कर यह अनुमित हमें दी। मुझे यह बहुत अजीब बात लगी। हमनें वापस आकर उस मूर्ति के कुछ चित्र लिए।


महिला के द्वारा दी गयी अनुमति। इसमें उसका मोबाइल नम्बर भी था। वह मैंने हटा दिया है।

प्रिटोरिआ में मेरे मित्रों ने उसी रात पर हमें भोजन पर बुलाया था। उसने वहाँ के लोगों को भी मुझसे मिलने के लिए भी बुलाया था। मैने रात में वहाँ जब लोगों को यह बात बतायी तो उन्हे आश्चर्य हुआ। उनका कहना था कि उन्हें आश्चर्य है कि इमारत के दूसरी तरफ जाने पर किसी ने हमें लूट नहीं लिया। उनके मुताबिक वहाँ पर कोई अपना कैमरा नहीं निकलता क्योंकि उसके छिन जाने का भय रहता है।

इस रात्रि के भोजन पर सारे लोग श्वेत लोग थे। उन्होंने रंगभेद सग्रंहालय के बारे में मेरी राय जाननी चाही। मैने उन्हें महात्मा गाँधी के चित्र का न होने की कमी बतायी। उन लोगों का कहना था इसमें कई कमियां है। मुझे लगा कि वे लोग इस संग्रहालय से प्रसन्न नहीं हैं।

अगली बार, प्रिटोरिआ में घूमने चलेंगे।

अफ्रीकन सफारी: साउथ अफ्रीका की यात्रा
झाड़ क्या होता है? - अफ्रीकन सफारी पर।। साउथ अफ्रीकन एयर लाइन्स और उसकी परिचायिकायें।। मान लीजिये, बाहर निलते समह, मैं आपका कैश कार्ड छीन लूं।। साउथ अफ्रीका में अपराध - जनसंख्या अधिक और नौकरियां कम।। यह मेरी तरफ से आपको भेंट है।। क्रुगर पार्क की सफाई देख कर, अपने देश की व्हवस्था पर शर्म आती है।। हम दोनो व्यापार कर बहुत पैसा कमा सकते हैं।। फैंटम टार्ज़न ... यह कौन हैं?।। हिन्दुस्तानी, बिल्लियों से क्यों डरते हैं।। आपको तो शर्म नहीं आनी चाहिये।।। लगता है, आप मुझे जेल भिजवाना चाहती हैं।। ऐसा करोगे तो, मैं बात करना छोड़ दूंगी।। भगवान की दुनिया - तभी दिखायी देगी जब उसकी खिड़की साफ हो।। सर, पिछली रात, आपने जूस का पैसा नहीं दिया।। मैंने, आज तक, यहां हवा में कूदती हुई मछलियां नहीं देखी हैं।। आश्चर्य - सर्कस को चलाने वाले, इतने कम लोग।। अश्वेत लोग और गोरी मेम - वोट नहीं दे सकतीं।।

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सांकेतिक शब्द
Johensburg,
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Saturday, May 09, 2009

डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े - भूमिका

यह चिट्ठी, चार्लस् डार्विन के जन्म के २००वें साल पर शुरू की गयी नयी श्रंखला, 'डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े' की भूमिका है।
इसे आप सुन भी सकते है। सुनने के लिये यहां चटका लगायें। यह ऑडियो फाइल ogg फॉरमैट में है। इस फॉरमैट की फाईलों को आप,
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कुछ समय पहले शास्त्री जी ने एक चिट्ठी 'ईश्वर की ताबूत का आखिरी कील!' नामक शीर्षक से लिखी थी। इसमें ईश्वर का संदर्भ देते हुऐ चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के विकासवाद (evolution) के सिद्धांत को गलत बताने का प्रयत्न किया गया था।



इस पर अरविन्द जी ने टिप्पणी की,
'मैं कोई पुराना चिट्ठाबाज़ तो नही हूँ मगर अल्प समय मे आपके मानवीय गुणों ने मुझे प्रभावित किया है, मगर मुझे यह असुविधाजनक अंदेशा भी रहा है की आपका कोई प्रायोजित मकसद भी है। मुझे यह भी डर था की आप देर सवेर अपने ब्लॉग पर डार्विन को घसीटेंगे जरूर और सच मानिए मेरा संशय सच साबित हो गया। डार्विन ... की पुस्तक डिसेंट ऑफ़ मैन ने सचमुच मनुष्य के पृथक सृजन की बाइबिल -विचारधारा पर अन्तिम कील ठोक दी थी तब से बौद्धिकों मे डार्विन के विकास जनित मानव अस्तित्व की ही मान्यता है। इस मुद्दे पर मैं आपसे दो दो हाथ करने को तैयार हूँ। आप कृपया यह बताये कि डार्विन के किस तथ्य को बाइबिल वादियों ने ग़लत ठहराया है? एक एक कर कृपया बताएं ताकि इत्मीनान से उत्तर दिया जा सके। हिन्दी के चिट्ठाकार बंधू भी शायद गुमराह होने से बच सकें।'


इस चिट्ठी पर मेरी टिप्पणी यह थी,

'शायद इस चिट्ठी की बातें न तो प्रमाणिक हैं न ही ठीक।
डार्विन एक महानतम वैज्ञानिकों में से एक हैं। वे स्वयं पादरी बनना चाहते थे इसलिये उन्होने Origin of Species प्रकाशित करने में देर की। उनका जीवन संघर्षमय रहा। यदि आप Irving Stone की The Origin पुस्तक पढ़ें तो उनके बारे में सारे तथ्य सही परिपेक्ष में सामने आयेंगे।
इस बारे में, अमेरिका में ... मुकदमा चला। पहला तो १९२० के दशक में था। इसमें फैसला Origin of Species के विरुद्ध रहा। यह अमेरिका के कानूनी इतिहास के शर्मनाक फैसलों में गिना जाता है। इसके बाद [के] ... फैसले ... Origin of Species के पक्ष में हुऐ हैं।
...
विज्ञान और धर्म दो अलग अलग क्षेत्र की बातें हैं। मेरे विचार से दोनो को जोड़ना ठीक नहीं।
मैं agnostic [अज्ञेयवादी] हूं यदि मेरे विचारों से दुख पहुंचा तो क्षमा प्रार्थी हूं।'
यह श्रंखला इसी विषय के बारे में है।


एक तरफ इस श्रंखला को लिखने कुछ हिचक सी लग रही है। इसका कारण यह है कि डारविन के बारे में बहुत कुछ सामग्री हिन्दी चिट्ठाजगत पर उपलब्ध है। अरविन्द जी कुछ बेहतरीन चिट्ठियां अपने चिट्ठे पर यहां और यहां तथा कुछ Science Blogger's Association of India पर लिखीं हैं। रचनाकार में सूरज प्रकाश और के पी तिवारी ने उनकी आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित किया है। सच यह है कि मैं अपने आप को, इस सामग्री में कुछ भी जोड़ पाने में असमर्थ पाता हूं।


नवयूवक वैज्ञानिक डार्विन का चित्र विकिपीडिया से

दूसरी तरफ,
  • डारविन न ही केवल महानतम वैज्ञानिकों से एक थे पर वे हिम्मती और बेहतरीन व्यक्ति थे। शायद उनकी जैसी हिम्मत वाला और बेहतरीन व्यक्तित्व का कोई अन्य वैज्ञानिक नहीं हुआ है। मुझे लगता है कि मेरे जीवन काल में इस साल से बेहतर समय, इस महान व्यक्ति को श्रधांजलि देने के लिये नहीं आयेगा
  • चर्च ऑफ इंगलैंड (Church of England) ने डार्विन के साथ किये गये अन्याय पर माफी मांग ली है पर हर मज़हब में कुछ लोग कट्टरवादी होते हैं। वे अक्सर विज्ञान, तथ्य, और तर्क को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। मैंने कुछ समय पहले 'ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या, और टोने-टुटके' नामक श्रंखला भी, ऐसी ही एक अन्य भ्रांति दूर करने के लिये लिखी थी। इस समय, एक अन्य भ्रांति, सर्जनवाद (Creationism) (नया नाम Intelligent Design) के नाम पर अपना फन उठा रही है। मेरे जीवन काल में, इस विषय पर लिखने के लिये, शायद वर्ष २००९ से बेहतर कोई अन्य साल नहीं होगा।
  • इस दुनिया से, विदा हो जाने के बाद ही, यह चिट्टा मेरी याद दिलायेगा, सनद रहेगा कि मैं इस अंधकार में खो नहीं गया था - मैंने भी अपनी आपत्ति दर्ज की थी; मैंने भी एक दिया इस अन्धकार को मिटाने के लिये जलाया था।
बस यही कारण है कि मैं यह श्रंखला शुरु कर रहा हूं।

इस श्रंखला में हम चर्चा करेंगे,
  • डार्विन की;
  • प्रणियों के उत्पत्ति की, विकासवाद की;
  • मज़हबों की, सृजनवाद की;
  • सृजनवादियों की विकासवाद के विरुद्ध आपत्तियों की;
  • इन दोनो विचारधाराओं से जुड़े विवाद; तथा
  • इससे जुड़े चर्चित मुकदमों की।
हो सकता है कि, यह श्रंखला कुछ लोगों को कष्ट पहुंचायें। मैं पहले से ही उन लोगों से माफी मांगता हूं। मेरा कोई उद्देश्य किसी को दुख पहुंचाने या उसकी भावनाओं को ठेस पहुचाना नहीं है पर मैं अपनी बात, जो मेरे हिसाब से ठीक है, उसे में सबके सामने रखना चाहता हूं।


अगली बार डार्विन के जीवन से जुड़ी कुछ बातें, उसके जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव।

रिचर्ड डॉकिंस् (Richard Dawkin) जीव वैज्ञानिक हैं। वे ऑक्सफर्ड विश्विद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं। इस समय विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिये लिखते हैं। डार्विन के महत्व और विज्ञान एवं मज़हब के बीच द्वन्द को इस प्रकार से समझाते हैं।

डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े
भूमिका,


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This post is introduction to the new series 'Darwin, Evolution and Religious Fundamentalism'. It is in Hindi (Devanagari script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.




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Tuesday, May 05, 2009

आश्चर्य - सर्कस को चलाने वाले, इतने कम लोग

साउथ अफ्रीका की यात्रा विवरण की इस कड़ी में,  प्रिटोरिआ में देखे गये बॉसवेल सर्कस की चर्चा है।
प्रिटोरिया में हमारे  होटल के  बगल में एक बहुत बड़ा सा मैदान था। लौटते समय हमनें देखा कि वहां पर एक सर्कस लगा हुआ था। इसका नाम ब्राइन बॉस्वल सर्कस (Brian Boswell's Circus) था। हम इसे देखने पहुँचे।  




इस सर्कस की सबसे सस्ती सीट ५० रैंड और सबसे मंहगी सीट १०० रैंड की थी। हम लोगों ने ५० रैंड का टिकट लेना उचित समझा। इसके रोज दो शो होते थे: एक साढ़े तीन बजे और एक साढ़े सात बजे। केवल शनिवार को तीन शो थे। यह  अपने देश की तरह का  सर्कस लगता था। यह एक टेंट में था जो कि अपने देश की तरह ही था। हालांकि इस टेंट का घेरा बहुत छोटा, अपने देश के टेंट का, एक तिहाई था। 

अपने देश में रात के समय सर्च-लाइट की बीम आकाश में फेंक कर सर्कस की  सूचना दी जाती है। यहां इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं थी पर विज्ञापन के लिये इनके पास गाड़ियां थीं जिस पर शहर में सूचना देने की व्यवस्था थी। इनकी वेबसाइट पर भी इनके प्रदर्शन की विस्तार से सूचना है।


 

शो में बहुत ज्यादा लोग नही थें ६०-७० लोग रहें होगें। सर्कस  शेर और टाइगर के करतब से प्रोग्राम शुरू हुआ। यह उसी तरह का एक शो था जैसे अपने देश के सर्कसों में होता है। उसके बाद कई और करतब थे जिसमें कई जानवरों के थे।

एक करतब  में एक चाइनीज़ लड़की आयी। वह एक पहिये की साईकिल चला रही थी। यह भी अपने देश के प्रोग्राम की तरह था पर कुछ देर बाद  उस लड़की ने साइकिल सहित  रस्सी  कूदना शुरू किया। उसने अपने दोनों टांग से साइकिल  को पकड़ लिया था और जब वह ऊपर उछलती थी तो साइकिल भी  ऊपर उछलती थी और रस्सी नीचें से निकलती थी। वहाँ  एक मेज रखी थी। वह उसी तरह से कूदकर चढ़ती हुई मेज के ऊपर पहुँच गई। अपने देश में  मैंने इस तरह का करतब नहीं देखा है। इसमें कुछ करतब और भी देखे जिसे मैंने अपने देश में नही देखा है।
 

इस सर्कस की खास बात यह लगी कि इसमे बहुत कम लोग थे। वही लोग टिकट चेक कर रहे थे, वही लोग जोकर बने हुए थे, और वही लोग सामान, जिस पर करतब दिखाते थे, उसको हटाते थे। मुझे आश्चर्य लगा कि इतने कम लोग इस सर्कस को चला रहे थे। 

एक व्यक्ति कुछ संगीत बजा रहा था और शायद ३-४ लोग उसका सहयोग कर रहे थे जो करतब नहीं कर रहे थे। बाकी सब लोग जो लोग करतब करते थे वही लोग सर्कस में अन्य काम भी करते थे। इसमें कुछ चाइनीज़ युवतियां  भी थीं। वे जब करतब नहीं करती थी तो कपड़े बदलकर हम लोगों को  पंखे या खाने की  चीजें  बेचने के लिए इधर उधर घूम रही थीं।


इस सर्कस का १९४८ का पोस्टर 


इस सर्कस में एक इन्टरवल भी हुआ। उन्होंने इन्टरवल में सर्कस के सारे पोनीज़ आ गये। यह बहुत छोटे घोड़े होते हैं। उन्होंने कहा कि  इन पर सवारी कर सकते हैं।  उस सर्कस मे जितने बच्चें थे वे सब उन पर सवारी करने के लिए पहुंच गये।  पोनीज़ ने सर्कस के अन्दर के  गोल घेरे का चक्कर लगाया जिसके लिए पांच रैंड देना पड़ा।
 
हमारे  देश में यदि शुरूवात ट्रेपीज़ के करतब से होती है तो अन्त शेर के करतब से। यहां प्रोग्राम,  शेरों के करतब से शुरू हुआ लेकिन ट्रेपीज के करतब  द्वारा इसका अंत नहीं हुआ। बल्कि अंत में दो जोकर आ गयें यह वही लोग थे जो बीच में करतब दिखा रहे थे। उन्होंने देखने वालों  से तीन महिलायें और एक पुरूष को लिया और चार कोने मे खड़ा कर दिया और एक बॉक्सिंग रिंग बनायी और बॉक्सिंग की ऎक्टिंग करते रहे।  इसी के साथ यह पूरा प्रोग्राम समाप्त हो गया।

सारा प्रोग्राम लगभग एक   घंटा ४० मिनट चला। सर्कस  देखकर मजा आ गया और  लगा कि ५० रैंड  वसूल हो गये।

अगली बार हम जोहेन्सबर्ग घूमने चलेंगे।


इस चिट्ठी का पहला वा अन्तिम चित्र मेरा खींचा हुआ है। बाकी सारे चित्र मैंने इनकी वेबसाइट की इस पन्ने से लिये हैं जहां पर बहुत सारे अन्य चित्र भी हैं।

अफ्रीकन सफारी: साउथ अफ्रीका की यात्रा
झाड़ क्या होता है? - अफ्रीकन सफारी पर।। साउथ अफ्रीकन एयर लाइन्स और उसकी परिचायिकायें।। मान लीजिये, बाहर निलते समह, मैं आपका कैश कार्ड छीन लूं।। साउथ अफ्रीका में अपराध - जनसंख्या अधिक और नौकरियां कम।। यह मेरी तरफ से आपको भेंट है।। क्रुगर पार्क की सफाई देख कर, अपने देश की व्हवस्था पर शर्म आती है।। हम दोनो व्यापार कर बहुत पैसा कमा सकते हैं।। फैंटम टार्ज़न ... यह कौन हैं?।। हिन्दुस्तानी, बिल्लियों से क्यों डरते हैं।। आपको तो शर्म नहीं आनी चाहिये।।। लगता है, आप मुझे जेल भिजवाना चाहती हैं।। ऐसा करोगे तो, मैं बात करना छोड़ दूंगी।। भगवान की दुनिया - तभी दिखायी देगी जब उसकी खिड़की साफ हो।। सर, पिछली रात, आपने जूस का पैसा नहीं दिया।। मैंने, आज तक, यहां हवा में कूदती हुई मछलियां नहीं देखी हैं।। आश्चर्य - सर्कस को चलाने वाले, इतने कम लोग।।

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सुनने के लिये चिन्ह शीर्षक के बाद लगे चिन्ह ► पर चटका लगायें यह आपको इस फाइल के पेज पर ले जायगा। उसके बाद जहां Download और उसके बाद फाइल का नाम अंग्रेजी में लिखा है वहां चटका लगायें।:
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यह ऑडियो फइलें ogg फॉरमैट में है। इस फॉरमैट की फाईलों को आप -
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is post per pretoria mein dekhe gaye boswell circus kee charchaa hai.   yeh hindi (devnaagree) mein hai. ise aap roman ya kisee aur bhaarateey lipi me padh sakate hain. isake liye daahine taraf, oopar ke widget ko dekhen.


This post talks about Boswell's circus that we saw in Pretoria. It is in Hindi (Devanagari script). You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.

सांकेतिक शब्द
Boswell circus, circus, circus, perfoming arts, entertainment and sports, circuses and rodeos,
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