रिचर्ड फाइनमेन - बॉंगो बजाते हुऐ |
चार नगरोंं की मेरी दुनिया - जयंत विष्णु नार्लीकर
थॉमस गोल्ड (टॉमी) स्थिर स्थिति सिद्धान्त (Steady State Theory) के तीन जनकों में से एक थे। मई १९६३ में, कॉर्नेल विश्वविद्यालय में, 'काल का स्वरूप' (The Nature of Time) नामक विषय पर, उन्होंने एक सम्मेलन आयोजित कया था।
इस सम्मेलन में विश्व के जाने-माने वैज्ञानिकों ने भाग लिया। जयंत विष्णु नार्लीकर भी इसमें भाग लेने गये थे। यहां रिचर्ड फाइनमेन भी आये थे। यहां फाइनमेन ने कुछ आपत्ति उठायी थी। नार्लीकर ने इसकी चर्चा अपनी आत्मकथा 'चार नगरोंं की मेरी दुनिया' में लिखी है। यह घटना वहीं से, लेकिन मेरे शब्दों में।
सम्मेलन में, वक्ता को अपने विचार रखने थे। उसके बाद, उस विषय पर चर्चा होनी थी। भाषण और चर्चा को रिकॉर्ड करने की व्यवस्था थी और बाद में, उस पर लेख प्रकाशित करने की भी बात थी। इस व्यवस्था पर फाइनमेन को आपत्ति थी।
उसका कहना था,
'चर्चा में, खुले दिल से सहभागी होना और कभी-कभी मूर्खतापूर्ण पर सनसनीखेज सवाल पूछना या टिप्पणी करना - अच्छा रहता है। लेकिन यदि चर्चा को रिकॉर्ड करके, उसे प्रकाशित करने का विचार हो तो वो स्पष्टता से अपनी बात नहीं रख पांएगे। इसलिए रिकॉर्डिंग और छपाई न की जाए।'बाकी लोगों का कहना था कि,
'उनकी मूर्खता भरी टिप्पणी और सवाल दूसरों के लिये सोचने लायक हो सकते हैं। इसलिये इस पर बहस न की जाय।'लेकिन फाइनमेन मानने को तैयार नहीं हुऐ। अन्त में, इस बात पर समझौता हुआ कि छापे गए लेख में - कहीं भी फाइनमेन का नाम प्रकाशित नहीं किया जायगा; लेखों में उनके नाम की जगह 'X’ अक्षर का प्रयोग किया जायगा; बाद में छापे गये लेखों में ऐसा ही किया गया।
बहुत बार, न्यायालयों में, न्यायाधीश भी कुछ इसी तरह का बर्ताव करते हैं। कभी-कभी, उनके सवाल, विषय से हट कर, अप्रसांगिक, और शायद बेवकूफी भरे होते हैं। इसके कई कारण होते हैं
- कभी वे विषय को अच्छा नहीं समझते हैं और उसे बेहतर समझना चाहते हैं;
- कभी इस तरह के सवाल, उस विषय को, पूरे परिपेक्ष में, देखने में सहायक होतें हैं; और
- कभी-कभी, यह वकील की बहस का स्तर ऊंचा करने के लिये होते हैं।
इसी तरह की मूर्खतापूर्ण, सनसनीखेज टिप्पणी करते एक जज साहब |
कभी-कभी, न्यायाधीशों की टिप्पणियां, केस के लिये न होकर, जन साधारण के लिये होती हैं। कभी, गलत भी होती हैं - वे हमेशा सही नहीं होते।
अच्छे वकील, इस तरह के सवालों या टिप्पणियों को समझते हैं। इन्हें पार करने में, उन्हें कोई मुश्किल नहीं होती है।
कभी-कभी वकील भी, इसी तरह की टिप्पणी या जवाब दिया करते हैं। इसका उद्देश्य, केवल नयायाधीशों को समझाना होता है।
कभी-कभी वकील, पीछे खड़े अपने मुवक्किल को सुनाने के लिये बहस करते हैं और उस समय, न्यायालय को, किसी न किसी तरह, बताने में नहीं चूकते हैं कि उनका मुचक्किल पीछे खड़ा है। कभी वकील भी गलत होते हैं।
समझदार न्यायाधीश भी, इसे जानते और समझते हैं। वे इसका सम्मान या फिर उन्हें नज़रअंदाज़ करते हैं।
न्यायालयों में पूछे गये सवालों, टिप्पणियों, जवाबों को इसी नजर देखा और समझा जाना चाहिये।
इस तरह के सवालों या टिप्पणियों के बारे में, मीडिया या लोगों की, विपरीत परन्तु सद्भावपूर्वक की गयी टिप्पणियां, अच्छी और स्वागत योग्य हैं। लेकिन दुर्भावनापूर्ण या व्यक्तिगत टिप्पणियां दुर्भाग्यपूर्ण हैं। ये न्यायिक स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाती, जो कि न्यायपालिका का सबसे पहली, सबसे महत्वपूर्ण जरूरत है। यदि यह समाप्त हो गयी, तब समय पड़ने पर, हमें न्यायमूर्ति एचआर खन्ना के समान दृष्टिकोण रखने वाले साहसी न्यायाधीश नहीं मिल पायेंगे।
अपने देश में, ज्योतिष का बोलबाला है। इस श्रंखला की, अगली चिट्ठी में, इस विषय पर, जयंत विष्णु नार्लीकर के विचारों की चर्चा होगी।
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