मेरे पिता के ७०वें जन्मदिन पर, रज्जू भैया उनहें बधाई देते और मिठाई खिलाते हुए।
मेरे पिता (वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरी) का जन्म २ सितम्बर १९२१ में हुआ था। १९३७ में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, जहां से १९४० में गणित में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लेकर, बांदा में वकालत शुरू की। १९४६ में वे संघ के जिला प्रचारक बापूजी जोशी के संपर्क में आये और संघ से जुड़ गये।
प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया, संघ के चौथे सर सघंचालक) का जन्म २८ जनवरी १९२२ को हुआ। उन्होंने १९३९ में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। १९४३ में भौतिक शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री लेकर इलाहाबाद में अध्यापन का काम शुरु किया। १९४२ में भारत छोड़ो अभियान के दौरान, वे जिला सघं प्रचारक बापूराव मोघे के संपर्क में आये और संघ से जुड़े।
सन् १९५० की गर्मियों में, सघं शिक्षा वर्ग कानपुर के, बीएनएसडी कॉलेज में हुआ था। वहीं पर मेरे पिता और उत्तर-प्रदेश प्रचारक भावराओ देवरस भी थे। उन्ही के सुझाव पर, मेरे पिता इलाहाबाद वकालत करने आये। शुरू में, रज्जू भैया पार्क रोड पर, किराये के मकान में रहते थे। उस समय, रज्जू भैया ने विश्वविद्यालय से दो साल का अवकाश लेकर, लखनऊ, संघ का कार्य करने गये थे। उनका मकान खाली था। मेरे पिता ने वहीं रहकर, वकालत शुरू की।
बाद में मेरे पिता और रज्जू भैया ने मिल कर, सिविल लाइन में जमीन खरीदी। कुल जमीन, २ एकड़ से कम, पर एक एकड़ से ज्यादा थी। लेकिन तब सिविल लाइन में एक व्यक्ति को एक एकड़ से कम, जमीन खरीदने की अनुमति नही थी। इसलिये यह जमीन रज्जू भैया के नाम से ली गयी, हालांकि इसमें आधा पैसा मेरे पिता ने दिया था। इसके दक्षिण भाग पर पहले रज्जू भैया ने अपना मकान १९५४ में बनवाया। हम यहीं रहने के लिये आये। १९५६ में हमारे पिता ने उत्तरी भाग में अपना मकान बनवाया।
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रज्जू भैया ने अपनी रजिस्टर्ड वसीयत २४ दिसंबर १९९७ को लिखी है जिसमें इस बात को स्पष्ट किया है। |
दोनो मकान एक ही अहाते के अन्दर बने थे और बीच में कोई दीवार नहीं थी। रज्जू भैया रोज सुबह हमारे घर, अखबार पढ़ने आते थे और सप्ताह में ३-४ दिन शाम को संघ की शाखा के बाद भी आते थे। उनका हम सबके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा।
गुरू गोलवलकर जी, बाला साहब देवरस, रज्जू भैया, सुदर्शन जी जब भी इलाहाबाद आये, वे हमारे यहां ही रुके। हमारे घर में, संघ का गहरा प्रभाव रहा और इसी की शिक्षा के साथ, हम बड़े हुऐ।
हर संगठन में, हर प्रकार के लोग होते हैं। सबकी विचारधारा में भी अन्तर होता है। कुछ लोगों के कथन या कृत्य से कोई संगठन परिभाषित नहीं होता। यह कहना सही नहीं है कि संघ में मुसलमानों के प्रति द्वेष भाव है।
मेरे बचपन मे दो सबसे अच्छे मित्र सन्ने और नामिर खान थे। नामिर इस दुनिया में नही है। वह टेबल-टेनिस का अच्छा खिलाड़ी था। हम लोग, उसके नाम से, हर साल, उसकी याद में, जिला-स्तरीय टेबल टेनिस की प्रतियोगिता का आयोजन, अपनी मां के नाम से स्थापित न्यास से करवाते हैं।
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एक और इलाहाबाद प्रवास के दौरान, रज्जू भैया मेरी लिखी पहली पुस्तक पढ़ते हुऐ। |
१९६८ में, मैंने विश्वाविध्यालय में, विज्ञान की स्नातक कक्षा में प्रवेश लिया। वहां मेरे अच्छे मित्रों में, उस्मानी रहा। ईद पर खिलाई गयी सेवई, आज तक याद है। बाद में उसने जेके इन्स्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड फिजिक्स एण्ड टेकनोलोजी से इंजीनियरिंग पास कर, आईटीआई नौकरी की, और अन्त में, लखनऊ के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में कुलपति के पद से अवकाश लिया।
कानून की शिक्षा के दौरान, मेरे अच्छे मित्रों में तारिक खान रहा, जिसका चयन उत्तर प्रदेश की न्यायिक सेवा में हो गया और उसने वहीं से अवकाश प्राप्त किया।
इलाहाबाद मे जज बनने के बाद, साथ के जजों में इमितयाज़ मुर्तज़ा, सिबग़त उल्लाह ख़ान , बरकत अली जैदी का साथ रहा और उनसे गहरी पटती थी, जो आज भी कायम है। इन सबका बहुत बड़ा कारण, हमारी परवरिश है जो कि संघ की विचारधारा से प्रेरित रही। इसने न केवल हमें हमेशा देश-प्रेम सिखाया पर सबसे भाईचारे की सीख भी दी।
हम दो भाई, एक बहन हैं - बहन सबसे बड़ी और मैं सबसे छोटा। हमारे अन्दर, कोई भी बुरी आदत नहीं रहीं। सिग्रेट, शराब,भाँग ,गाँजा व्यवसनों से, हम हमेशा दूर रहे। इसका कारण भी हमारे घर का संघीय वातावरण और वहां से मिले संस्कार रहे।
१९५८ में घर में लिया गया हम भाई बहनो का चित्र
हमारे संस्कार, हमारी दिनचर्या राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से ओत प्रोत रही। इसके १०० वर्ष पूरे होने पर इसे सलाम, अभिवादन। देश प्रेम के साथ, सब का साथ सबका विकास हो - यही इसका मूल मंत्र, यही इसका एक साथ जोड़ने वाला प्रेम का धागा है जो कि देश को आगे ले जायगा - ऐसा विश्वास, ऐसी धारणा।
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सुखद यादें।
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