Thursday, October 02, 2025

संघ के सौ वर्ष और हमारे संस्कार

इस चिट्ठी में,  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) के सौ साल पूरे होने पर, हमारे परिवार का संघ के संबंधों, उसकी विचारधारा का हम पर प्रभाव और उससे मिले संस्कारों की चर्चा है। 

 मेरे पिता के ७०वें जन्मदिन पर, रज्जू भैया उनहें बधाई देते और मिठाई खिलाते हुए

मेरे पिता वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरी का जन्म २ सितम्बर १९२१ में हुआ था।  १९३७ में,  इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, जहां से १९४० में गणित में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लेकर, बांदा में वकालत शुरू की। १९४६ में वे संघ के जिला प्रचारक बापूजी जोशी के संपर्क में आये और संघ से जुड़ गये।

प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया, संघ के चौथे सर सघंचालक) का जन्म २८ जनवरी १९२२ को हुआ। उन्होंने १९३९ में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। १९४३ में भौतिक शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री लेकर इलाहाबाद में अध्यापन का काम शुरु किया। १९४२ में भारत छोड़ो अभियान के दौरान, वे जिला सघं प्रचारक बापूराव मोघे के संपर्क में आये और संघ से जुड़े।

सन् १९५० की गर्मियों में, सघं शिक्षा वर्ग कानपुर के, बीएनएसडी कॉलेज में हुआ था। वहीं पर मेरे पिता और उत्तर-प्रदेश प्रचारक भावराओ देवरस भी थे। उन्ही के सुझाव पर, मेरे पिता इलाहाबाद वकालत करने आये। शुरू में, रज्जू भैया पार्क रोड पर, किराये के मकान में रहते थे। उस समय,   रज्जू भैया ने विश्वविद्यालय से दो साल का अवकाश लेकर, लखनऊ, संघ का कार्य करने गये थे। उनका मकान खाली था। मेरे पिता ने वहीं रहकर, वकालत शुरू की।

बाद में मेरे पिता और रज्जू भैया ने मिल कर, सिविल लाइन में  जमीन खरीदी। कुल जमीन, २ एकड़ से कम, पर एक एकड़ से ज्यादा थी। लेकिन तब सिविल लाइन में एक व्यक्ति को एक एकड़ से कम, जमीन खरीदने की अनुमति नही थी। इसलिये यह जमीन रज्जू भैया के नाम से ली गयी, हालांकि इसमें आधा पैसा मेरे पिता ने दिया था। इसके दक्षिण भाग पर पहले रज्जू भैया ने अपना मकान १९५४ में बनवाया। हम यहीं रहने के लिये आये। १९५६ में हमारे पिता ने उत्तरी भाग में अपना मकान बनवाया।

 

रज्जू भैया ने अपनी रजिस्टर्ड वसीयत २४ दिसंबर १९९७ को लिखी है जिसमें इस बात को स्पष्ट किया है।

दोनो मकान एक ही अहाते के अन्दर बने थे और बीच में कोई दीवार नहीं थी। रज्जू भैया रोज सुबह हमारे घर, अखबार पढ़ने आते थे और सप्ताह में ३-४ दिन शाम को संघ की शाखा के बाद भी आते थे। उनका हम सबके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा।

गुरू गोलवलकर जी, बाला साहब देवरस, रज्जू भैया, सुदर्शन जी जब भी इलाहाबाद आये, वे हमारे यहां ही रुके। हमारे घर में, संघ का गहरा प्रभाव रहा और इसी की शिक्षा के साथ, हम बड़े हुऐ। 
 
एक बार, रज्जू भैया के इलाहाबाद प्रवास के दौरान, मैं और मेरी पत्नी के साथ का चित्र
  
हमारे पिता हिन्दी प्रेमी थे। उन्होंने हमें कभी अंग्रेजी स्कूल में पढने नहीं भेजा। हमारे घर में, अंग्रेजी में बात करने में भी मनाही थी।  

हर संगठन में, हर प्रकार के लोग होते हैं। सबकी विचारधारा में भी अन्तर होता है। कुछ लोगों के कथन या कृत्य से कोई संगठन  परिभाषित नहीं होता। यह कहना सही नहीं है कि संघ में मुसलमानों के प्रति द्वेष भाव है।

मेरे बचपन मे दो सबसे अच्छे मित्र सन्ने और नामिर खान थे। नामिर इस दुनिया में नही है। वह टेबल-टेनिस का अच्छा खिलाड़ी था। हम लोग, उसके नाम से, हर साल, उसकी याद में, जिला-स्तरीय टेबल टेनिस की प्रतियोगिता का आयोजन, अपनी मां के नाम से स्थापित न्यास से करवाते हैं। 

एक और इलाहाबाद प्रवास के दौरान, रज्जू भैया मेरी लिखी पहली पुस्तक पढ़ते हुऐ।

१९६८ में, मैंने विश्वाविध्यालय में, विज्ञान की स्नातक कक्षा में प्रवेश लिया। वहां मेरे अच्छे मित्रों में, उस्मानी रहा। ईद पर खिलाई गयी सेवई, आज तक याद है। बाद में उसने जेके इन्स्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड फिजिक्स एण्ड टेकनोलोजी से  इंजीनियरिंग पास कर, आईटीआई  नौकरी की, और अन्त में, लखनऊ के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में कुलपति  के पद से अवकाश लिया।

कानून की शिक्षा के दौरान, मेरे अच्छे मित्रों में तारिक खान रहा, जिसका चयन उत्तर प्रदेश की न्यायिक सेवा में हो गया और उसने वहीं से अवकाश प्राप्त किया। 

इलाहाबाद मे जज बनने के बाद, साथ के जजों में इमितयाज़ मुर्तज़ा, सिबग़त उल्लाह ख़ान , बरकत अली जैदी का साथ रहा और उनसे गहरी पटती थी, जो आज भी कायम है। इन सबका बहुत बड़ा कारण, हमारी परवरिश है जो कि संघ की विचारधारा से प्रेरित रही। इसने न केवल हमें हमेशा देश-प्रेम सिखाया पर सबसे भाईचारे  की सीख भी दी।

हम दो भाई, एक बहन हैं - बहन सबसे बड़ी और मैं सबसे छोटा। हमारे अन्दर, कोई भी बुरी आदत नहीं रहीं। सिग्रेट, शराब,भाँग ,गाँजा व्यवसनों से, हम हमेशा दूर रहे। इसका कारण भी हमारे घर का संघीय वातावरण और वहां से मिले संस्कार रहे। 

१९५८ में घर में लिया गया हम भाई बहनो का चित्र 

हमारे संस्कार, हमारी दिनचर्या राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से ओत प्रोत रही। देश प्रेम के साथ, सबका विकास हो, अनेकता में एकता हो, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' या सरल शब्दों में 'पूरी पृथ्वी एक परिवार है' - यही इसका मूल मंत्र, यही इसका प्रेम का एक साथ जोड़ने वाला प्रेम का धागा है।

इसके १०० वर्ष पूरे होने पर इसे सलाम, अभिवादन। इसका मूल-मंत्र, इसका प्रेम का धागा ही देशश को आगे ले जायगा - ऐसा विश्वास, ऐसी धारणा।

मेरे पिता, जिन्हे हम सब दद्दा कहा करते थे, के बारे में ऊपर लिंक दिया है। उसके अलावा कुछ और समृतियां हैं,  जिन्हें यहां, यहां, यहांयहां, यहां और यहां पढ़ा जा सकता है।

रज्जू भैया के बारे में जो लिंक ऊपर दिया है वह अंग्रेजी में है। मैंने हिन्दी में भी उनके बारे में कड़ियों में लिखा है। इसकी पहली कड़ी यहां और अन्तिम कड़ी यहां है, सारी कड़ियों में, बाकी सारी कड़ियों की भी लिंक दी गयी है।

 
बचपन में संघ की शाखा घर के सामने के पार्क में लगा करती थी। पहले रामबरण जी बाद में माता प्रसाद जी मुख्य शिक्षक रहे। शाखा के अन्त में होने वाली प्रार्थना, न केवल मुझे याद थी पर की बार मैंने इसे गाया भी पर मुझे इसका अर्थ नहीं मालुम था। शंकर महादेवन के इस विडियो से इसका अर्थ भी पता चला और जितनी कर्णप्रिय यह इसमें लगी है उतनी कभी नहीं लगी।

About this post in Hindi-Roman and English

Hindi (devnaagree) kee is chitthi mein, Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) ke soven sal per, RSS aur hamare parivar ke sambandhon ke sath is baat kee charcha hai kee iska hamare jeevn mein kya prabhav raha. ise aap roman ya kisee aur bhaarateey lipi mein  padh sakate hain. isake liye daahine taraf, oopar ke widget ko dekhen.

This post is in Hindi (Devanagari script) and on centenary year of Rashtriya swayamsevak Sangh (RSS), it talks about our links with RSS and what effects it had on our upbringing. You can read it in Roman script or any other Indian regional script also – see the right hand widget for converting it in the other script.

सांकेतिक शब्द
। Culture, Family, Inspiration, life, Life, Relationship, जीवन शैली, समाज, कैसे जियें, जीवन, दर्शन, जी भर कर जियो,
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3 comments:

  1. सुखद यादें।

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  2. Anonymous7:07 am

    दद्दा जी के बारे में बहुत सी नई बातों का पता चला।उनको बांदा में वकालत करने की मुझे अच्छी तरह से याद है ।सुबह बांदा में शिवराज भवन में जब में जब ये वकालतखाने के कमरे के सामने वाले बरामदे में बैठते थे साइड में उनकी कुर्सी होती और बगल में बाबा जी केवलचन्द जी की कुर्सी रहती थी। बचपन में मेरी याद मे दद्दा जी की छवि जो अंकित है वह इस लिए है कि जब भी उनके चरणस्पर्श करता तो उनके चेहरे में हमेशा हल्की मुस्कराहत और वात्सल्य का भाव दिखता।

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  3. Anonymous8:10 am

    Lordship, आपका यह लेख पढ़कर मेरा मन भावविभोर हो उठा और यह मेरे दिल की गहराइयों को स्पर्श करते हुए आत्मा तक उतर गया।

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आपके विचारों का स्वागत है।