मणिकर्ण में राम मन्दिर है। इसकी कथा कुछ इस प्रकार है।
सोलहवी शताब्दी में कुल्लू प्रदेश पर राजा जगत सिंह का राज्य था। एक बार किसी ने राजा जगत सिंह के पास झूठी शिकायत कर दी कि टिपरी गांव (मणिकर्ण से २५ कि.मी.) के एक ब्राहम्ण के पास अनमोल मोती हैं, यह तो राजा के पास होने चाहिए।
राजा जब अगली बार मणिकर्ण आये तब ब्राहम्ण को बुलवा कर आदेश दिया कि राजकीय खजाने में जमा मोती कर दो। लेकिन ब्राहाम्ण के पास मोती नहीं थे। वह जमा कैसे करता।
राजा गांव में मोती लेने पहुँचा। ब्राहाम्ण ने डर के मारे अपने आपको परिवार सहित घर में बंद कर आत्मदाह कर लिया।
ब्राहम्ण हत्या के कारण राजा बीमार हो गया और किसी उपचार से ठीक नहीं हो सका। एक महात्मा ने, राजा को सलाह दी अयोध्या से भगवान रामचन्द्र जी की मूर्ति मंगवा कर मणिकर्ण के मन्दिर में स्थापित कर राज पाठ भगवान रघुनाथ जी को अर्पण कर दें। तब बीमारी दूर हो सकती है। राजा ने ऎसा ही किया। उसके बाद राज्य का काम भगवान रघुनाथ जी के दास के रूप में किया। उनके जीवन के अन्तिम २६ वर्ष यहीं बीते।
कुल्लू के दशहरा मेला विश्व प्रसिद्व है। राजा जगतसिंह के समय से ही, इसका आरम्भ मणिकर्ण से होना शुरू हुआ था। तभी से , यह प्रथा आज भी चल रही है।
हम भगवान राम के इस मंदिर को देखने गये। यहां लंगर चलता रहता है। हम लोगों ने दोपहर का खाना वहीं पर खाया। खाने में मोटा चावल, राजमां और कढ़ी थी। कढ़ी स्वाद में मीठी थी। हम लोगों ने भोजन किया। इसके लिए पैसा नहीं देना पड़ता था पर जब मैं बाहर निकलने लगा तो देखा कि वहां पर एक पेटी रखी हुई है और उसमें लिखा हुआ था कि आप जो चाहे दान दे सकतें है। मुझे लगा कि हम लोगों ने खाना खाया है। इसलिए कि कुछ न कुछ अवश्य दान देना चाहिये मैंने सौ रूपये पेटी में डाले।
हम लोगों को खाना खिलाते समय, एक बहुत सुन्दर नवयुवक रीबॉक का ट्रैक सूट पहने हुए खाना खिला रहा था । वह बाहर मिला। मैंने उससे कहा,
'खाना बहुत अच्छा बना था क्या तुम खाना बनाने वाले को हमारी ओर से धन्यवाद दे सकते हो।'उसने अपना नाम चमन लाल बताया और कहा,
'आज खाना बनाने वाला नहीं आया था। इसलिए आज का खाना मैंने बनाया है।'यह भी कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान राम के मंदिर में, रीबॉक के ट्रैक सूट के साथ, खाना बनाने वाले बवर्ची के हाथों, हमने प्रसाद के रूप में भोजन खाया।
यहां पर एक गुरूद्वारा भी है। हम लोग गुरूद्वारे में भी गये। वहां पर भजन, कीर्तिन हो रहा था और प्रसाद में हलुवा मिल रहा था। मैंने इसे ग्रहण किया। पता नहीं लगता था कि हलुवा घी में, या घी हलुवे में तैर रहा था। लेकिन हलुवे में अच्छी बात यह थी कि वह गर्म था और कम मीठा था। हलुवा खाने के बाद हाथ में लगे घी को अपने बदन में लगा लिया।
देव भूमि, हिमाचल की यात्रा
वह सफेद चमकीला कुर्ता और चूड़ीदार पहने थी।। यह तो धोखा देने की बात हुई।। पाडंवों ने अज्ञातवास पिंजौर में बिताया।। अखबारों में लेख निकले, उसके बाद सरकार जागी।। जहां हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे की बात हुई हो, वहां मीटिंग नहीं करेंगे।। बात करनी होगी और चित्र खिंचवाना होगा - अजीब शर्त है।। हनुमान जी ने दी मजाक बनाने की सजा।। छोटे बांध बनाना, बड़े बांध बनाने से ज्यादा अच्छा है।। लगता है कि विंडोज़ पर काम करना सीख ही लूं।। गाड़ी से आंटा लेते आना, रोटी बनानी है।। बच्चों का दिमाग, कितनी ऊर्जा, कितनी सोचने की शक्ति।। यह माईक की सबसे बडी भूल थी।। भारत में आधारभूत संरचना है ही नहीं।। सुनते तो हो नहीं, जो करना हो सो करो।। रानी मुकर्जी हों साथ, जगह तो सुन्दर ही लगेगी।। उसकी यह अदा भा गयी।। यह बौद्व मंदिर है न कि हिन्दू मंदिर।। रास्ता तो एक ही है, भाग कर जायेंगे कैसे।। वह कुछ असमंजस में पड़ गयी।। हमने भगवान शिव को याद किया और आप मिल गये।। अपनी टूर दी फ्रांस - हिमाचल की साइकिल रेस।। और वह शर्मा गयी।। पता नहीं हलुवा घी में, या घी हलुवे में तैर रहा था।। आप, क्यों नहीं, इसके बाल खींच कर देखते।।
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मणिकर्ण के राम मन्दिर की कहानी कुछ कुछ ओरछा की कहानी से मिलती जुलती भी है. अच्छा लगा. आभार.
ReplyDeleteएक कहावत की याद आ गयी -घी का लड्डू टेढे मेढ़ .....मतलब कई बेहतरीन चीज किसी भी आकर प्रकार में हो क्या फर्क पड़ता है -घी के हलुवा का वर्णन सुन कर मुंह में पानी आ गया !
ReplyDeleteहलुआ वृतांत :)
ReplyDeleteगुरुदुआरे के हलुवे की क्या बात है लगभग हर गुरुदुआरे मे ऐसा ही हलुवा मिलता है। रोचक जानकारी धन्यवाद।
ReplyDeleteजो भी हो, वज़न तो बढ़ना ही है।
ReplyDeleteकुछ भी कहो पर ये हलुवा होता बड़ा स्वाद है हम तो रोज खाते है प्रशाद,बहुत सुंदर वर्णन किया है
ReplyDeleteहलुये की बात से ही मुंह में पानी आ गया...
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